Monday, 19 August 2024

DHIN412 : हिन्दी सगुन काव्य

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DHIN412 : हिन्दी सगुन काव्य

इकाई 1 सूरदास का काव्यगत वशेषताएँ

सूरदास का काव्यगत विशेषताएँ: विस्तृत विवरण और विश्लेषण

प्रस्तावना

कृष्ण भक्त कवि सूरदास का जन्म 1478 . में दिल्ली-मथुरा रोड पर स्थित 'सीही' नामक गांव में हुआ था। माना जाता है कि वे जन्मांध थे, परन्तु उनकी रचनाओं में कृष्ण-लीलाओं और प्रकृति-वर्णन की सजीवता उनके जन्मांध होने पर प्रश्नचिह्न लगाती है। उनकी रचनाओं में 'सूरसागर', 'सूरसारावली', और 'साहित्य लहरी' प्रमुख हैं। 'सूरसागर' का भ्रमरगीत प्रसंग विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

1. सूरदास की काव्यगत विशेषताएँ

सूरदास भारतीय काव्यशास्त्र में श्रृंगार, वात्सल्य और शांत रस के अद्वितीय कवि माने जाते हैं। उनकी रचनाएं सजीवता और भावुकता का अद्वितीय परिचय देती हैं। आइए, सूरदास के काव्य में उनके भाव-पक्ष और कला-पक्ष को विस्तार से समझते हैं।

1.1 भाव-पक्ष

भाव-पक्ष का संबंध कवि की अनुभूति और संवेदनशीलता से होता है। सूरदास की रचनाओं में भाव-पक्ष अत्यन्त सरस और सबल है, जो उनके अनुभवों और भावनाओं की सजीव अभिव्यक्ति करता है। उनके काव्य के भाव-पक्ष की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:

1.        श्रृंगार-वर्णन:

o    सूरदास ने 'सूरसागर' में राधा, कृष्ण और गोपियों के संयोगकालीन चित्रों का सजीव वर्णन किया है। राधा और कृष्ण के प्रारंभिक परिचय का आकर्षक चित्रण उनकी रचनाओं में मिलता है।

o    इसके साथ ही वियोग के भी अनेक चित्र मिलते हैं, जैसे कृष्ण के मथुरा चले जाने पर गोपियों और ब्रजवासियों का विरह।

2.        वात्सल्य-चित्रण:

o    सूरदास ने कृष्ण की बाल-लीलाओं और क्रीड़ाओं का विस्तृत चित्रण किया है। माता यशोदा द्वारा कृष्ण को पालने में झुलाने, माखन चुराने, और गाएँ चराने जैसी घटनाओं का सुंदर चित्रण किया गया है।

o    कृष्ण के माखन चुराने पर यशोदा द्वारा पकड़े जाने के दृश्य भी बहुत मनोहारी हैं।

3.        भक्ति-भावना:

o    सूरदास की भक्ति-भावना पुष्टिमार्ग से प्रभावित है, जिसमें भगवद्कृपा को सर्वोपरि माना गया है।

o    सूरदास की भक्ति मुख्य रूप से सखा-भाव की है, जिसमें वे कृष्ण से उद्धार की याचना करते हैं।

4.        दार्शनिकता:

o    सूरदास के दार्शनिक विचार वल्लभ सम्प्रदाय के सिद्धांतों से प्रभावित हैं। उन्होंने सगुण भक्ति का प्रतिपादन किया है, जिसमें उन्होंने ब्रह्म, जीव, जगत और माया आदि पर विचार किया है।

5.        प्रकृति-चित्रण:

o    सूरदास ने कृष्ण की लीलाओं का चित्रण करते समय प्रकृति के विविध रूप प्रस्तुत किए हैं। उनकी रचनाओं में प्रकृति का उद्दीपन, आलम्बन, अलंकार और पृष्ठभूमि रूप प्रमुख रूप से मिलता है।

6.        भावुकता एवं वाग्वैदग्ध्यत्ता:

o    सूरदास की रचनाओं में उच्चकोटि की भावुकता और वाग्वैदग्ध्यता के दर्शन होते हैं। 'भ्रमरगीत' प्रसंग इसका उत्कृष्ट उदाहरण है, जहाँ गोपियों ने अपने अनन्य प्रेम से उद्धव को परास्त कर दिया।

7.        अलौकिकता एवं मौलिकता:

o    सूरदास ने राधा-कृष्ण और गोपी-कृष्ण के प्रेम में प्रेम की अलौकिकता के दर्शन कराए हैं। हालांकि उन्होंने 'श्रीमद्भागवत्' के दशम स्कन्ध को आधार बनाया है, फिर भी उनकी विषय-वस्तु में मौलिकता विद्यमान है।

1.2 कला-पक्ष

कला-पक्ष का संबंध कवि की अभिव्यक्ति और शिल्प से होता है। सूरदास ने अपने अनुभवों को अत्यंत सुंदर ढंग से अभिव्यक्त किया है। कला-पक्ष की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:

1.        भाषा:

o    सूरदास ने अपने काव्य की भाषा के रूप में ब्रज भाषा का प्रयोग किया है। उनकी भाषा में कोमलकांत पदावली, भावानुकूल शब्द-चयन, धाराप्रवाह, सजीवता और सप्राणता जैसी विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं।

o    सूरदास ने विभिन्न प्रकार के शब्दों का कुशलता से प्रयोग किया है, जिनमें तत्सम, तद्भव, ग्रामीण, और अनुकरणात्मक शब्द प्रमुख हैं।

2.        चित्रमयता:

o    सूरदास के काव्य में चित्रमयता का विशेष ध्यान रखा गया है, जिससे पाठक के मन में सजीव चित्र उभरते हैं।

3.        अलंकार-योजना:

o    सूरदास ने अपने काव्य में अलंकारों का सुंदर प्रयोग किया है, जिससे उनकी रचनाएँ और अधिक प्रभावशाली बन जाती हैं।

4.        छन्द:

o    सूरदास ने अपने काव्य में विभिन्न छंदों का प्रयोग किया है, जिससे उनकी रचनाओं की लयात्मकता बनी रहती है।

निष्कर्ष

सूरदास का काव्य भारतीय साहित्य में एक अनमोल धरोहर है। उनकी रचनाएँ केवल भावनाओं और अनुभवों का सजीव चित्रण करती हैं, बल्कि कला और शिल्प की दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। सूरदास की भक्ति-भावना, प्रकृति-चित्रण, और उनकी भाषा की सरसता उनकी रचनाओं को कालजयी बनाती है।

अभ्यास-प्र श्न

 सूरदास के काव्य में मौजूद कला पक्ष का वर्णन कीजिए।

सूरदास के काव्य में कला पक्ष अत्यंत महत्वपूर्ण है। उनका कला पक्ष उनकी भाषा, चित्रमयता, अलंकार-योजना, छंद, शब्द-शक्तियाँ, गुण, और मुहावरों का प्रयोग में निहित है। सूरदास ने अपने काव्य में इन सभी तत्वों का अत्यंत सजीव और सुगठित रूप में प्रयोग किया है, जिससे उनके काव्य की प्रभावशीलता और सुंदरता और भी बढ़ जाती है। आइए, इन्हें विस्तार से समझते हैं:

1. भाषा

  • सूरदास ने अपने काव्य में ब्रजभाषा का प्रयोग किया है, जो उनके इष्टदेव कृष्ण की विहार-भूमि ब्रज की भाषा है।
  • उनकी भाषा में कोमलता, कान्तता, और भावानुकूल शब्दों का चयन देखने को मिलता है।
  • सूरदास की भाषा में सजीवता, प्रवाह, और सरलता है, जिससे उनके काव्य में प्राणत्व जाता है।
  • उन्होंने अपने काव्य में विभिन्न प्रकार के शब्दों का प्रयोग किया है, जैसे तत्सम, तद्भव, ग्रामीण, और अनुकरणात्मक शब्द, जो उनके काव्य को विविधता प्रदान करते हैं।

2. चित्रमयता

  • सूरदास के काव्य में चित्रमयता का अद्भुत प्रयोग हुआ है। उनके द्वारा वर्णित कृष्ण लीला के दृश्य जीवंत प्रतीत होते हैं।
  • सूरदास ने अपने काव्य में केवल भावनाओं को, बल्कि दृश्य और घटनाओं को भी बहुत सजीवता के साथ प्रस्तुत किया है, जिससे पाठक उनके काव्य को पढ़ते समय उन दृश्यों को अपनी आँखों के सामने महसूस कर सकते हैं।

3. अलंकार-योजना

  • सूरदास के काव्य में अलंकारों का अत्यंत सुंदर और सजीव प्रयोग किया गया है।
  • उनके काव्य में उपमा, रूपक, अनुप्रास, यमक, श्लेष आदि अलंकारों का प्रयोग बहुत ही प्रभावशाली ढंग से हुआ है, जिससे काव्य में एक विशेष आकर्षण पैदा होता है।

4. छंद

  • सूरदास के काव्य में छंदों का अत्यंत सुचारू और सटीक प्रयोग किया गया है।
  • उन्होंने अपने काव्य में दोहा, चौपाई, सोरठा, कवित्त आदि छंदों का प्रयोग किया है, जो उनके काव्य को एक विशिष्ट लय और माधुर्य प्रदान करते हैं।

5. शब्द-शक्तियाँ

  • सूरदास ने अपने काव्य में शब्द-शक्तियों का प्रयोग अत्यंत सजीवता और संवेदनशीलता के साथ किया है।
  • उनके काव्य में शब्दों की अभिधा, लक्षणा और व्यंजना शक्तियों का प्रभावी और सूक्ष्म प्रयोग किया गया है, जिससे काव्य में गहराई और प्रभावशीलता बढ़ जाती है।

6. गुण

  • सूरदास के काव्य में माधुर्य, ओज, और प्रसाद गुण की विशेषता देखी जा सकती है।
  • उनके काव्य में विचारों की स्पष्टता और शब्दों की माधुर्यता है, जिससे उनका काव्य सरल, सुगम और प्रभावशाली हो जाता है।

7. मुहावरे और लोकोक्तियाँ

  • सूरदास ने अपने काव्य में मुहावरों और लोकोक्तियों का भी सुंदर प्रयोग किया है, जिससे उनके काव्य को अधिक सजीवता और प्रभावशीलता मिलती है।
  • इन मुहावरों और लोकोक्तियों के माध्यम से सूरदास ने अपने विचारों और भावनाओं को अधिक स्पष्टता और प्रभाव के साथ प्रस्तुत किया है।

सूरदास के काव्य में कला पक्ष का यह विशिष्ट स्वरूप उन्हें हिंदी काव्य की धरोहर बनाता है। उनके काव्य में भाषा की सुंदरता, अलंकारों की सजावट, और छंदों की लयात्मकता ने उन्हें भक्तिकाल के महान कवियों में अग्रणी स्थान दिलाया है।

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'सूरदास के काव्य में भाव-पक्ष और कला-पक्ष का अत्यंत सुंदर समन्वय देखने को मिलता है।' उदाहरण देकर समझाइए |

सूरदास के काव्य में भाव-पक्ष और कला-पक्ष का अत्यंत सुंदर और प्रभावी समन्वय देखने को मिलता है। सूरदास केवल भावनाओं की गहराई को अभिव्यक्त करने में सक्षम थे, बल्कि उन्होंने अपने काव्य में भाषा, अलंकार, और छंदों का ऐसा प्रयोग किया है कि दोनों पक्ष एक-दूसरे के पूरक बन गए हैं।

आइए इसे कुछ उदाहरणों के माध्यम से समझते हैं:

1. भाव-पक्ष और कला-पक्ष का समन्वय: कृष्ण के बाल्य-रूप का वर्णन

  • भाव-पक्ष: सूरदास ने अपने काव्य में बालकृष्ण के बाल्य-रूप का अत्यंत कोमल और सजीव वर्णन किया है। उदाहरण के लिए:

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मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायो।

मोति की माल बनाइ मैया, बल-बल कहि-कहि गाल लगायो॥

खीरी में से मार कढ़ायो, मुख दधि दधि दधि लायो॥

मोहि नचाय रिझाय सुखायो, यहिन सौं बरबसि बंसी बजायो॥

  • कला-पक्ष: इस पद में सूरदास ने बालकृष्ण के खेल और उनकी बाल सुलभ चंचलता का वर्णन करने के लिए बहुत ही सरल, कोमल और भावपूर्ण भाषा का प्रयोग किया है। इसमें अनुप्रास अलंकार (खिझायो, गाल, खीरी) और छंद का अत्यंत सजीव प्रयोग हुआ है, जिससे चित्रण में जीवंतता जाती है। शब्दों की ध्वन्यात्मकता और लय बालकृष्ण की चपलता को सजीव कर देती है।

2. भाव-पक्ष और कला-पक्ष का समन्वय: राधा-कृष्ण के प्रेम का वर्णन

  • भाव-पक्ष: सूरदास ने राधा और कृष्ण के प्रेम को अत्यंत गहन और मार्मिक रूप में प्रस्तुत किया है। उदाहरण के लिए:

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प्रभु मोहन लेन चल्यो गइयाँ।

मैं एक जानि बंशी भूल्यो, फिरि आयौ मन की बात बनाई॥

  • कला-पक्ष: इस पद में सूरदास ने कृष्ण के बंसी बजाने के प्रभाव का वर्णन करते हुए भाव और कला का सुंदर समन्वय किया है। 'लेन चल्यो गइयाँ' में कृष्ण का साधारण कार्य (गायों को चराने ले जाना) है, लेकिन इसके साथ ही 'बंशी भूल्यो' और 'मन की बात बनाई' में अनुप्रास और छंद का प्रयोग किया गया है, जिससे काव्य में संगीतात्मकता और गहराई आती है। इसके अलावा, शब्दों का चयन और उनका ध्वन्यात्मक प्रयोग भी कला-पक्ष को मजबूत करता है।

3. भाव-पक्ष और कला-पक्ष का समन्वय: भक्ति और समर्पण

  • भाव-पक्ष: सूरदास ने अपने काव्य में भक्ति और समर्पण के भावों को अत्यंत मार्मिकता से प्रस्तुत किया है। उदाहरण के लिए:

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प्रभु मेरो अवगुण चित धरो।

समदरसी है नाम तिहारो, चाहे तो पार करो॥

  • कला-पक्ष: इस पद में सूरदास ने 'अवगुण चित धरो' और 'समदरसी है नाम तिहारो' जैसी पंक्तियों में अनायास ही गुण और अलंकार का संयोजन किया है। यहाँ पर 'समदरसी' और 'पार करो' जैसे शब्दों का चयन अत्यंत सटीक और भावानुकूल है, जो भक्ति के भाव को और अधिक प्रखर बनाते हैं। साथ ही, शब्दों की मधुरता और प्रवाह से काव्य की सौंदर्यता भी बनी रहती है।

निष्कर्ष:

सूरदास के काव्य में भाव-पक्ष और कला-पक्ष का ऐसा सुंदर और संतुलित समन्वय देखने को मिलता है, जिससे उनके काव्य में एक अनोखी प्रभावशीलता उत्पन्न होती है। भावों की गहराई और भाषा, अलंकार, तथा छंदों की कलात्मकता एक-दूसरे को पूरक बनाकर पाठक या श्रोता के हृदय में गहराई से उतरती हैं। यही कारण है कि सूरदास का काव्य हिंदी साहित्य में एक अनमोल धरोहर के रूप में स्थान रखता है।

इकाई 2: सूरदास का भक्त-भावना

प्रस्तावना:

सूरदास, भक्तिकाल के एक प्रमुख कृष्ण भक्त कवि, वल्लभाचार्य के शिष्य और 'पुष्टिमार्ग' के अनुयायी थे। भक्तिकाव्य के क्षेत्र में उनकी भक्ति भावना और काव्यशैली अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है। वल्लभाचार्य का 'पुष्टिमार्ग' भक्ति मार्ग का एक प्रमुख अनुशासन है, जिसमें ईश्वर की कृपा और प्रेम को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। सूरदास ने इस मार्ग को अपनाकर अपनी भक्ति को विशेष रूप से कृष्ण और राधा के प्रति प्रकट किया। उनकी भक्ति में 'सख्य भाव', 'वात्सल्य भाव', और 'माधुर्य भाव' का सुंदर समन्वय देखने को मिलता है।

1. सूरदास की कृष्ण भक्ति:

  • पुष्टिमार्ग की भक्ति: सूरदास ने कृष्ण भक्ति को अपनाने के बाद वल्लभाचार्य के पुष्टिमार्ग को अपनाया। पुष्टिमार्ग का मूल तत्व भगवान की कृपा और अनुग्रह पर विश्वास करना है। इस मार्ग में भक्तों को ईश्वर की 'नित्यलीला' में प्रवेश करने की संभावनाएँ प्राप्त होती हैं। सूरदास ने इस मार्ग की विशेषताओं को अपने पदों में प्रतिबिंबित किया है, जिसमें भगवान की सेवा और लीला का वर्णन प्रमुख है।
  • भक्ति की प्रकृति: सूरदास की भक्ति 'सख्य भाव' की है, जिसमें भगवान के साथ भक्त का मित्रवत संबंध रहता है। इसके अलावा, उन्होंने गुरु सेवा, सन्त सेवा, और प्रभु सेवा को भी अपनी भक्ति में शामिल किया। सूरदास ने सुबह से लेकर रात तक भगवान की सेवा का वर्णन किया और विभिन्न अवतारों के वार्षिकोत्सवों का भी उल्लेख किया।

2. कृष्ण और राधा के प्रेम का वर्णन:

  • प्रेम का चित्रण: सूरदास ने कृष्ण और राधा के प्रेम को बहुत ही सुंदर ढंग से चित्रित किया है। उन्होंने राधा और कृष्ण के प्रेम को गहन भावनाओं के साथ प्रस्तुत किया, जिसमें प्रेम, भक्ति, और समर्पण का अद्भुत समन्वय है। राधा और कृष्ण के बीच के प्रेम को उन्होंने अपनी कविताओं में अत्यंत भावुकता और कोमलता के साथ प्रस्तुत किया है।
  • लीला का गान: सूरदास ने कृष्ण की विभिन्न लीलाओं का गान किया है। वे कृष्ण के गोपियों के साथ प्रेम, रासलीला, और अन्य लीलाओं का विस्तृत वर्णन करते हैं। सूरदास ने गोपियों के प्रति कृष्ण के प्रेम को अत्यंत भावुकता से चित्रित किया, जिसमें प्रेम और भक्ति की गहराई स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।

3. कृष्ण और गोपियों के प्रेम भाव का चित्रण:

  • प्रेम की पराकाष्ठा: सूरदास ने कृष्ण और गोपियों के प्रेम को अत्यंत उच्चस्तरीय और भक्ति से परिपूर्ण चित्रित किया है। गोपियों की प्रेम भक्ति को पुष्टिमार्गी भक्ति का सर्वोत्तम उदाहरण मानते हुए, सूरदास ने इसे अपने पदों में भरपूर भावनाओं के साथ प्रस्तुत किया है। गोपियों की तन्मयता और कृष्ण के प्रति उनके प्रेम को उन्होंने अत्यंत सुंदरता से दर्शाया है।
  • भक्ति का मेरुदण्ड: सूरदास की भक्ति का मेरुदण्ड पुष्टिमार्ग है, जिसमें भगवान की कृपा और अनुग्रह को भक्त के कल्याण का मूल आधार माना जाता है। सूरदास ने भगवान की कृपा और अनुग्रह की महत्ता को अपने काव्य में प्रमुख स्थान दिया है, और उनकी भक्ति में माधुर्य भाव की प्रबलता दिखाई देती है।

4. भक्ति के दार्शनिक स्वरूप:

  • शुद्धाद्वैतवाद: सूरदास ने वल्लभाचार्य के शुद्धाद्वैतवाद की मान्यताओं को अपनाया। वे मानते हैं कि जीव और ब्रह्म का अद्वैत संबंध है, और माया के कारण जीव की दुरावस्था होती है। उन्होंने कृष्ण से इस माया के निवारण की प्रार्थना की है।
  • सायुज्य मुक्ति: सूरदास ने 'सायुज्य मुक्ति' को महत्व दिया है, जिसमें जीव ईश्वर के साथ एकत्व प्राप्त करता है। सूरदास की भक्ति में दार्शनिक नीरसता के बजाय माधुर्य भाव की प्रबलता है, जो उन्हें भक्तों के बीच अत्यंत प्रिय बनाती है।
  • रागानुगा भक्ति: सूरदास की भक्ति 'रागानुगा' है, जिसमें कर्मकाण्ड की बजाय भक्ति की भावना प्रमुख होती है। उनके पदों में सिद्धान्त के बजाय माधुर्य भाव की प्रबलता होती है, जो उनकी भक्ति को विशेष बनाती है।

निष्कर्ष:

सूरदास की भक्ति भावना एक गहन और विविधता से भरी हुई यात्रा है, जिसमें कृष्ण और राधा के प्रेम के सुंदर चित्रण के साथ-साथ, कृष्ण और गोपियों के प्रेम का अत्यंत भावपूर्ण वर्णन मिलता है। उनके काव्य में भक्ति की विभिन्न धाराओं का समन्वय देखने को मिलता है, जो उन्हें भक्तिकाव्य में एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाता है। सूरदास की भक्ति में माधुर्य और प्रेम की प्रबलता, उन्हें भक्तों के बीच अत्यंत प्रिय बनाती है।

अभ्यास-प्रश्न

सूरदास भक्ति की किस पुष्टिमार्ग धारा के कवि थे?

सूरदास भक्ति की पुष्टिमार्ग धारा के कवि थे। पुष्टिमार्ग एक विशेष भक्ति पद्धति है जिसे वल्लभाचार्य ने स्थापित किया था। इस मार्ग की मुख्य विशेषता ईश्वर की कृपा और प्रेम को केंद्र में रखना है।

पुष्टिमार्ग की कुछ प्रमुख बातें निम्नलिखित हैं:

1.        ईश्वर की कृपा: पुष्टिमार्ग में भगवान की कृपा और अनुग्रह को भक्त की भक्ति का आधार माना जाता है। यह मार्ग भक्त की व्यक्तिगत साधना के बजाय भगवान के अनुग्रह पर विश्वास करता है।

2.        प्रेमलक्षणा भक्ति: इस मार्ग में भक्त की भक्ति प्रेम और समर्पण पर आधारित होती है। सूरदास ने इस मार्ग को अपनाकर अपने काव्य में कृष्ण के प्रति प्रेम और समर्पण को अत्यंत भावुकता से व्यक्त किया।

3.        लीला और सेवा: पुष्टिमार्ग में भगवान की लीला और सेवा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। सूरदास ने कृष्ण की विभिन्न लीलाओं का गान किया और भगवान की सेवा को अपने भक्ति काव्य में प्रमुख स्थान दिया।

4.        सखा भाव और वात्सल्य भाव: सूरदास की भक्ति में 'सखा भाव' (मित्रवत संबंध) और 'वात्सल्य भाव' (माता-पिता के प्रेम की भावना) दोनों का समन्वय देखने को मिलता है। उन्होंने कृष्ण और राधा के प्रेम के साथ-साथ कृष्ण के साथ गोपियों के प्रेम को भी अपनी कविताओं में सुंदरता से चित्रित किया।

सूरदास की भक्ति कविताओं में पुष्टिमार्ग की विशिष्टता और उसकी भावनात्मक गहराई साफ तौर पर दिखाई देती है, जो उनकी भक्ति को अन्य भक्ति मार्गों से अलग बनाती है।

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पुष्टिमार्ग में कितने प्रकार के जीव माने गए हैं? उल्लेख कीजिए।

पुष्टिमार्ग में तीन प्रकार के जीव माने गए हैं, जिनका उल्लेख निम्नलिखित है:

1.        पुष्टिवान जीव:

o    ये जीव भगवान के अनुग्रह और कृपा पर विश्वास करते हैं।

o    इनका उद्देश्य भगवान की नित्य लीला में प्रवेश पाना होता है।

o    पुष्टिवान जीव भगवान की कृपा के पात्र होते हैं और उन्हें ब्रह्मा के साथ अनन्त प्रेम संबंध में जोड़ा जाता है।

2.        मर्यादावान जीव:

o    ये जीव वेदों और शास्त्रों द्वारा निर्दिष्ट मार्ग का पालन करते हैं।

o    उनका मुख्य लक्ष्य स्वर्ग प्राप्त करना होता है।

o    वे धार्मिक नियमों और कर्मकांडों का पालन करते हैं, लेकिन भगवान की नित्य लीला में प्रवेश पाने की उनकी इच्छा नहीं होती।

3.        प्रवहावान जीव:

o    ये जीव संसार के प्रवाह में लीन रहते हैं और सांसारिक सुखों में व्यस्त होते हैं।

o    वे ईश्वर की कृपा पर विश्वास नहीं करते और ही भक्ति में रुचि रखते हैं।

o    इनका ध्यान मुख्य रूप से भौतिक और सांसारिक सुखों पर होता है।

इन तीन प्रकार के जीवों में पुष्टिवान जीव को सर्वोच्च माना जाता है, क्योंकि वे भगवान के अनुग्रह को प्राप्त कर उसकी नित्य लीला में सम्मिलित होते हैं।Top of Form

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पुष्टिमार्ग की आसक्तियों का वर्णन कीजिए।

पुष्टिमार्ग की आसक्तियाँ (भावनाएँ) भक्ति के विभिन्न पहलुओं को व्यक्त करती हैं और भक्त की ईश्वर के प्रति गहरी प्रेम और समर्पण को दर्शाती हैं। पुष्टिमार्ग में मुख्यतः तीन प्रकार की आसक्तियाँ मानी जाती हैं:

1.        स्वरूपासक्ति:

o    वर्णन: स्वरूपासक्ति में भक्त भगवान के स्वरूप (रूप) के प्रति विशेष प्रेम और आसक्ति दर्शाते हैं। यह भक्त की भगवान की दिव्य रूप की भव्यता और सुंदरता के प्रति एक गहरा आकर्षण होता है।

o    उदाहरण: भगवान के विभिन्न रूपों की भक्ति और उनके चित्रण में भक्त की रुचि।

2.        लीलासक्ति:

o    वर्णन: लीलासक्ति भगवान की लीलाओं (कार्यवाहियों) के प्रति भक्त की गहरी आसक्ति और प्रेम को दर्शाती है। इसमें भक्त भगवान की विभिन्न लीलाओं जैसे कि रासलीला, गोपाल लीला, और अन्य दिव्य खेलों के प्रति उत्साह और प्रेम प्रकट करता है।

o    उदाहरण: सूरदास ने कृष्ण की लीलाओं का सुंदर चित्रण किया है, जिसमें गोकुल, मथुरा और अन्य स्थानों पर कृष्ण की लीलाओं का वर्णन शामिल है।

3.        भावासक्ति:

o    वर्णन: भावासक्ति में भक्त भगवान के प्रति विभिन्न भावनात्मक भावनाओं का अनुभव करता है, जैसे प्रेम, भक्ति, और समर्पण। इसमें भक्त भगवान के प्रति अपने भावनात्मक संबंध को महत्वपूर्ण मानता है और उसकी भक्ति को विभिन्न भावनात्मक रंगों में व्यक्त करता है।

o    उदाहरण: कृष्ण के साथ भक्त की स्नेहभावना, वात्सल्यभावना, और प्रेमभावना का चित्रण।

इन आसक्तियों के माध्यम से भक्त भगवान के साथ एक गहरा और व्यक्तिगत संबंध बनाते हैं, जो भक्ति के विभिन्न रूपों को प्रकट करता है और भगवान के प्रति उनके प्रेम और समर्पण को दर्शाता है।

इकाई 3 सूरसागर का सार ( गोकुल लाला)

सूरसागर का सार (गोकुल लाला) - विस्तारपूर्वक विवरण

प्रस्तावना: सूरदास का काव्य, विशेषकर उनके वात्सल्यपूर्ण वर्णन, हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर है। उनके काव्य में श्रीकृष्ण के बाल सौंदर्य और बाल मनोविज्ञान का चित्रण अद्वितीय है। सूरदास ने "गोकुल लीला" में कृष्ण की बाल लीलाओं को अत्यंत मनोहर और चित्ताकर्षक ढंग से प्रस्तुत किया है। उनके वर्णन में बालकृष्ण की चेष्टाओं, माता के भावनात्मक संबंध और बालक के प्रति वात्सल्य भाव को गहराई से दिखाया गया है।

पाठ:

1. नवजात कृष्ण का सौंदर्य:

  • सूरदास ने नवजात कृष्ण के रूप-सौंदर्य का अतिशयोक्तिपूर्ण लेकिन आकर्षक वर्णन किया है। वह इसे समुद्र की तरह अथाह और असीम मानते हैं।
  • एक ब्रज-गोपी अपने सखी को बताती है कि कृष्ण का सौंदर्य नंद भवन में ही नहीं, बल्कि पूरे ब्रज की गलियों में चर्चित है। इस सौंदर्य का पूर्ण वर्णन शेषनाग के हजार मुखों से भी नहीं किया जा सकता।
  • यहाँ कवि ने कृष्ण के सौंदर्य को अतिशयोक्ति से प्रस्तुत किया है, जैसे कृष्ण यशोदा के गर्भ रूपी अगाध सागर से उत्पन्न हुए हों।

2. माता यशोदा की भावनाएँ:

  • माता यशोदा अपने पुत्र कृष्ण के सौंदर्य से अत्यधिक प्रभावित हैं। वह अपने पुत्र के मुख की सुन्दरता पर बलिहारी जाती हैं और उसकी मुस्कान, नेत्र, और दूध के दाँतों की सुंदरता की प्रशंसा करती हैं।
  • उनका वर्णन इस प्रकार है कि कृष्ण के दूध के दाँत कमल पर मोतियों की तरह चमकते हैं, और उनके केश-लटें जैसे मस्त भ्रमर के समूह की तरह हैं।
  • माता यशोदा के हृदय की भावनाओं को चित्रित करते हुए सूरदास ने कृष्ण के सौंदर्य को अत्यधिक अलंकरण और उपमा के माध्यम से प्रस्तुत किया है।

3. बाल कृष्ण का रूप:

  • सूरदास ने कृष्ण की मुद्रा और बाह्य सौंदर्य का सुंदर चित्रण किया है। कृष्ण माखन के साथ खेल रहे हैं, और उनकी मुद्रा, चेहरे पर दही का लेप, और हाथ-पैर की गंदगी को मनोहर ढंग से प्रस्तुत किया है।
  • कृष्ण के गाल और नेत्र सुंदर और चंचल हैं, और उनके माथे पर गोबर का टीका लगा हुआ है। उनके गले में कठुला, जिसमें मोती और शेर के नाखून जड़े हैं, उनके हृदय को सजाते हैं।
  • सूरदास का यह वर्णन कृष्ण के सौंदर्य और उसके प्रति भक्ति को प्रकट करता है, और उनके सौंदर्य को क्षण भर देखने का सुख भी अनमोल माना गया है।

4. कृष्ण का अपूर्व सौंदर्य:

  • सूरदास ने कृष्ण के सौंदर्य का वर्णन करते हुए कहा कि उनका रूप स्वर्ण की तरह चमकता है और उनके लटें और मुख का सौंदर्य अद्वितीय है।
  • कृष्ण का रूप, जैसे इन्द्रधनुष से रंग-बिरंगे रंगों का मेल हो, और उनका सौंदर्य चंद्रमा के प्रकाश और देवताओं की मिलनसारियों जैसा प्रतीत होता है।
  • सूरदास ने कृष्ण के दूध-दांतों की तुलना अद्भुत उपमाओं से की है और उनके हँसते हुए रूप को अत्यंत सुंदर और मनमोहक बताया है।

विशेषताएँ:

  • अलंकार: सूरदास ने कविता में उपमा, अतिशयोक्ति, अनुप्रास, और पुनरुक्ति का प्रयोग किया है, जो काव्य के सौंदर्य को बढ़ाते हैं।
  • भावसाम्य: सूरदास का वर्णन तुलसीदास और बिहारी के काव्य से भी मेल खाता है, जहाँ बालकृष्ण के सौंदर्य और भक्ति का चित्रण किया गया है।
  • साहित्यिक मूल्य: सूरदास की काव्य-प्रतिमा उनके गहन पर्यवेक्षण और भक्ति भावनाओं का परिचायक है, और उनके वर्णन ने बालकृष्ण की सुंदरता को एक दिव्य और अनुपम रूप में प्रस्तुत किया है।

निष्कर्ष: सूरदास का "गोकुल लीला" कृष्ण के बाल सौंदर्य और माता यशोदा के वात्सल्य भाव का अद्वितीय चित्रण प्रस्तुत करता है। उनके काव्य में कृष्ण के सौंदर्य को अतिशयोक्ति और अलंकरण के माध्यम से व्यक्त किया गया है, जो केवल साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि भक्ति और वात्सल्य के गहरे भावनात्मक पहलुओं को भी उजागर करता है।

अभ्यास-प्रश्न

 सूरदास ने गोकुल लीला में श्रीकृष्ण की किन-किन लीलाओं का वर्णन किया है, संक्षेप में लिखिए।

सूरदास ने अपने "गोकुल लीला" में श्रीकृष्ण की कई महत्वपूर्ण लीलाओं का वर्णन किया है। इन लीलाओं का संक्षेप में वर्णन निम्नलिखित है:

1.        कृष्ण का जन्म: सूरदास ने कृष्ण के जन्म की कथा का वर्णन किया है, जिसमें देवकी और वसुदेव के घर में कृष्ण का जन्म होता है और उन्हें कंस से बचाने के लिए यशोदा के घर भेजा जाता है।

2.        कृष्ण की बाल लीलाएँ: बाल कृष्ण की शैतानियों और चमत्कारी करतबों का विवरण, जैसे माखन चुराना, गोपियों के साथ खेलना और नंद बाबा के घर में लीलाएँ।

3.        दूध पीने की घटना: कृष्ण के द्वारा गोकुल में गोपियों के दूध पीने का वर्णन, जिसमें गोपियाँ कृष्ण को दूध पिलाने के लिए मोहित हो जाती हैं।

4.        धेनुका की मृत्यु: कृष्ण ने धेनुका नामक राक्षस का वध किया, जो गोकुल में गायों के लिए खतरा था।

5.        कालिया नाग का वध: कृष्ण ने यमुनाजी में डूबे कालिया नाग का वध किया और यमुनाजी को उसके विष से मुक्त किया।

6.        गोपियों के संग रासलीला: कृष्ण की गोपियों के साथ रासलीला का वर्णन, जिसमें कृष्ण और गोपियाँ आनंदित होकर रास नृत्य करते हैं और भक्तिमय वातावरण का सृजन करते हैं।

7.        कृष्ण का उद्धारण: कृष्ण ने अपने अद्भुत बल और चमत्कारों से गोकुलवासियों की कठिनाइयों और संकटों को दूर किया और गोकुल को सुख-समृद्धि प्रदान की।

सूरदास ने कृष्ण की इन लीलाओं के माध्यम से उनके दिव्य गुणों और अद्वितीयता का प्रकट किया है, जो उनकी भक्ति और प्रेम की एक महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति है।

इकाई 4 सूरसागर के प्रमुख पद्याशों का सप्रसग व्याख्या (गोकुल लाला)

प्रस्तावना:

सूरदास हिंदी साहित्य के महान कवि माने जाते हैं, जिनके काव्य में आत्माभिव्यंजन, भावप्रवणता, मधुरता और संगीतात्मकता जैसे अद्वितीय गुण विद्यमान हैं। उन्होंने अपने काव्य के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण और राधा के प्रेम में डूबी गोपियों के हृदय की भावनाओं को गहराई से व्यक्त किया है। उनकी रचनाओं में पाठकों को भावनाओं की मधुरता और आत्मीयता का अनुभव होता है, जिसे हिन्दी काव्य जगत सदैव याद करेगा।

सूरसागर के प्रमुख पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या:

1.        प्रथम पद्यांश:

o    पद्यांश:
"
नवल निकुंज नवत् नवला मिलि, नवल निकेतन रुचिर बनाए।
बिलसत बिपिन बिलास बिविश बर, बारिज-बदन बिक सचु पाए॥"

o    प्रसंग:
इस पद्यांश में श्रीकृष्ण और राधा के प्रेम की मधुर क्रीड़ाओं का वर्णन किया गया है। यह दृश्य वृंदावन के यमुना तट पर स्थित निकुंज का है, जहाँ राधा और कृष्ण ने नये-नये निवास स्थान बनाए हैं।

o    व्याख्या:
यमुना नदी के तट पर स्थित निकुंज में राधा और कृष्ण ने सुन्दर मिलन स्थल बनाए हैं। वहाँ विभिन्न प्रकार के वन और क्रीड़ाएँ हैं, जहाँ कमलमुखी राधा और कृष्ण आनंदित हो रहे हैं। चंद्रमा की किरणें राधा के शरीर पर गिरती हैं, जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि अमृत की धारा से चंद्रमा नारी शरीर को सींच रहा है। इस प्रेम क्रीड़ा का वर्णन सुनकर सखियाँ मन ही मन आनंदित हो रही हैं और इन प्रेम क्रीड़ाओं को देखकर कामदेव भी लज्जित हो जाते हैं।

o    विशेष:
इस पद्यांश में अनुप्रास, यमक, रूपक, उत्प्रेक्षा, पुनरुक्ति और अतिशयोक्ति अलंकारों का प्रयोग किया गया है।

2.        द्वितीय पद्यांश:

o    पद्यांश:
"
अद्भुत एक अनुपम बाग।
जुगल कमल पर गज तर क्रौड़त, तापर सिंह करत अनुराग॥"

o    प्रसंग:
इस पद्यांश में राधा के बाह्य सौन्दर्य का वर्णन किया गया है। कवि ने राधा के शारीरिक सौन्दर्य को एक अद्भुत उद्यान के रूप में प्रस्तुत किया है।

o    व्याख्या:
राधा का शरीर एक अनुपम उद्यान के समान है। इस उद्यान में उनके चरण दो कमलों के समान हैं, जिन पर हाथी जैसी जंघाएं क्रीड़ा कर रही हैं। इस उद्यान में सुन्दर पर्वत (पयोधर) और परागयुक्त कमल (स्तन) सुशोभित हैं। राधा का सम्पूर्ण शरीर कामदेव के लिए भी लज्जा का कारण बनता है। सूरदास कहते हैं कि श्रीकृष्ण इस सौन्दर्य का अमृतरस पान कर रहे हैं।

o    विशेष:
इस पद्यांश में नख-शिख वर्णन की परम्परा का पालन किया गया है। कवि ने विभिन्न अंगों की तुलना प्रकृति के अद्वितीय रूपों से की है, जिसमें रूपक, अतिशयोक्ति और अनुप्रास अलंकार का प्रयोग किया गया है।

3.        तृतीय पद्यांश:

o    पद्यांश:
"
प्रिया-मुख देखो स्याम निहारि।
कहि जाइ आनन की शोभा, रही बिचारि बिचारि॥"

o    प्रसंग:
इस पद्यांश में राधा के मुखमंडल की शोभा का वर्णन किया गया है। कवि ने राधा के मुख को ऐसा अनुपम बताया है जिसे शब्दों में व्यक्त करना संभव नहीं है।

o    व्याख्या:
राधा का मुखमंडल अत्यंत सुंदर और मोहक है। कवि ने उनके मुख को दूध के समान श्वेत वस्त्र से ढके समुद्र के रूप में प्रस्तुत किया है। राधा के मुख को देखकर सभी देवता भी उनकी सुंदरता के आगे नतमस्तक हो जाते हैं।

o    विशेष:
इस पद्यांश में राधा के मुख की शोभा का वर्णन अलंकारों और उपमाओं के माध्यम से किया गया है। कवि ने राधा के सौन्दर्य को अद्वितीय और अनुपम बताया है, जिसे शब्दों में व्यक्त करना असंभव है।

समापन:

सूरसागर के पद्यांशों में सूरदास ने भगवान श्रीकृष्ण और राधा के प्रेम, उनके सौन्दर्य और उनके प्रेम की गहराई का अत्यंत सुंदर वर्णन किया है। इन पदों में अलंकारों और उपमाओं का अद्वितीय प्रयोग किया गया है, जो हिंदी काव्य की समृद्धि को दर्शाता है। सूरदास की रचनाओं में प्रेम, सौंदर्य, और भक्ति का जो सम्मिलन है, वह अद्वितीय है। उनके काव्य को समझने और उसका आनंद लेने के लिए हमें उसकी गहराई में जाकर अध्ययन करना आवश्यक है।

अभ्यास-प्रश्न

1. निम्नलिखित पंक्तियों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए-

राधा माधव भेंट भई।

राधा माधव माधव राधा कीट,

व्याख्या गति ढै। जु गई।।

संदर्भ: प्रस्तुत पंक्तियाँ किसी भक्त कवि की रचना से ली गई हैं, जिसमें राधा और माधव (श्रीकृष्ण) के दिव्य मिलन का वर्णन किया गया है। यह पंक्तियाँ भक्तिकाल की उस परंपरा को दर्शाती हैं जहाँ भक्त और भगवान के बीच के प्रेम को विभिन्न प्रतीकों और उपमाओं के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है।

प्रसंग: इन पंक्तियों में राधा और माधव (श्रीकृष्ण) के मिलन की तुलना कीट (कीड़े) और भूृंग (मधुमक्खी) की गति से की गई है। इस तुलना में राधा और माधव के बीच की एकता और अभिन्नता को दिखाया गया है।

व्याख्या: प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने राधा और माधव के प्रेम और मिलन को अद्वितीय और अभिन्न बताया है। राधा और माधव के बीच का प्रेम इतना गहरा है कि दोनों एक-दूसरे में समाहित हो जाते हैं, जैसे कीट और भूंग की गति में कोई अंतर नहीं रह जाता। इस संदर्भ में, "कीट" और "भूंग" का प्रयोग प्रतीकात्मक रूप में किया गया है, जो राधा और कृष्ण के बीच की अटूट संबंध को दर्शाता है। जिस प्रकार भूंग की गति कीट में समाहित हो जाती है, उसी प्रकार राधा और माधव एक-दूसरे में विलीन हो जाते हैं।

इस पंक्ति में यह संदेश दिया गया है कि जब भक्त भगवान के प्रति पूर्णतः समर्पित हो जाता है, तो उसके और भगवान के बीच का अंतर मिट जाता है, और वह भगवान में ही समाहित हो जाता है। यह भक्ति का सर्वोच्च स्वरूप है, जहाँ भक्त और भगवान एक हो जाते हैं।

निष्कर्ष: इन पंक्तियों के माध्यम से कवि ने भक्ति और प्रेम के उस उच्चतम स्तर का वर्णन किया है जहाँ भक्त और भगवान के बीच का द्वैत समाप्त हो जाता है, और दोनों एकाकार हो जाते हैं। राधा और माधव का मिलन इस भक्ति की चरम अवस्था का प्रतीक है।

इकाई 5: सूरसागर का तात्विक समिक्षा एवं शिल्प विधान

इस इकाई के अध्ययन के पश्चात विद्यार्थी निम्नलिखित योग्यताएँ हासिल करेंगे:

1.        शिल्प विधान के अर्थ को जानना: इस इकाई के माध्यम से विद्यार्थी शिल्प विधान के महत्व और इसके विभिन्न पहलुओं को समझेंगे।

2.        सूरसागर की भाषा और विषय चमत्कार को समझना: विद्यार्थी सूरसागर की भाषा की विशेषताओं और विषयगत चमत्कार को पहचानने और समझने में सक्षम होंगे।

3.        सूरसागर की तात्विक समीक्षा को अपने शब्दों में व्यक्त करना: इस इकाई के अध्ययन से विद्यार्थियों को सूरसागर की तात्विक समीक्षा लिखने की क्षमता प्राप्त होगी।

प्रस्तावना:

काव्य और शिल्प विधान के बीच का संबंध बहुत गहरा और महत्वपूर्ण है। काव्य का मुख्य उद्देश्य रस उत्पन्न करना है, जिसे कवि दो तरीकों से प्राप्त करता है: भावगत तुष्टि और कलागत रमणीयता। यह कलागत रमणीयता शिल्प विधान का ही एक रूप है। कवि की अनुभूतियाँ शिल्प विधान के माध्यम से ही रसिक-हृदय तक पहुँचती हैं और साधारणीकरण का माध्यम बनती हैं। शिल्प विधान कवि की कथ्य को साकार करने और रसिकों के हृदय तक पहुँचाने का माध्यम है। यही कारण है कि शिल्प विधान को काव्य का अभिन्न अंग माना गया है। इसे समझने के लिए एक काव्यशास्त्रीय रूपक का उदाहरण दिया गया है, जिसमें कविता को एक सुंदर स्त्री के रूप में चित्रित किया गया है, जहाँ शब्दार्थ उसका शरीर है, अलंकार उसके आभूषण हैं, और रीति उसके अंगों का गठन है।

सूरसागर का तात्विक समिक्षा एवं शिल्प विधान:

शिल्प विधान का अर्थ 'शिल्प' और 'विधान' शब्दों से मिलकर बना है। 'शिल्प' का अर्थ कला है जबकि 'विधान' का अर्थ संयोजन होता है। इस प्रकार शिल्प विधान का अर्थ कला का संयोजन होता है। यह काव्य का आंतरिक और अभिन्न अंग है, जिसमें भाषा, अलंकार, छंद, और काव्य रूप आदि शामिल होते हैं। सूरदास के काव्य में शिल्प विधान की विशेषताएँ स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं, जहाँ भाषा का सहज प्रवाह और अलंकारिक सौंदर्य देखने को मिलता है।

सूरकाव्य का शिल्प विधान:

सूरदास की काव्य कला की प्रमुख विशेषता उसकी भाषा की सहजता और लोक प्रचलित शब्दावली का उपयोग है। सूरदास ब्रजभाषा के पहले कवि माने जाते हैं, जिन्होंने अपने काव्य में इस भाषा को मुख्य रूप से अपनाया। यह भाषा उस समय की जनभाषा थी, जिसे सूरदास ने 'भाषा' नाम दिया है। उनकी काव्य भाषा में संस्कृत, तद्भव, और देशज शब्दों का संयोजन देखा जाता है, जो इसे और भी प्रभावी बनाता है। उनकी भाषा में ध्वनि और शब्दों का प्रभावशाली उपयोग देखा जा सकता है।

शब्दावली:

सूरदास की काव्य भाषा में मुख्य रूप से ब्रजभाषा की लोक प्रचलित शब्दावली की प्रधानता है। सूरदास ने भाषा को अधिक स्वाभाविक बनाने के लिए शब्दों को तोड़ा-मरोड़ा भी है और ध्वननशीलता को बढ़ाया है। इसमें संस्कृत, तद्भव, लोक-प्रचलित देशज शब्द और अरबी-फारसी के शब्दों का भी संयोजन मिलता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, सूरदास की भाषा बहुत ही स्वाभाविक और चलती हुई है, जिसमें कोमलता और सहजता है।

मुहावरे और लोकोक्तियाँ:

सूरदास की काव्य भाषा में मुहावरों और लोकोक्तियों का विशिष्ट महत्व है। ये अर्थ-व्यंजना को बढ़ाने और भाषा को रोचक, सबल, और स्वाभाविक बनाने में सहायक होते हैं। सूरदास ने ब्रज क्षेत्र में प्रचलित मुहावरों का व्यापक रूप से उपयोग किया है, जो उनके काव्य को और भी प्रभावशाली बनाते हैं। उनके काव्य में लोकोक्तियों का भी महत्वपूर्ण स्थान है, जो उनके विचारों को सटीक और प्रभावी रूप से व्यक्त करने में सहायक होती हैं।

शब्द शक्ति:

सूरदास के काव्य में अभिधा, लक्षणा, और व्यंजना तीनों शब्द शक्तियाँ अपने प्रभावशाली रूप में मिलती हैं। इन शब्द शक्तियों का उपयोग सूरदास ने अपने काव्य को और भी सशक्त और प्रभावी बनाने के लिए किया है। उदाहरण के लिए, "मुस्कर स्याम हमारे चोर" और "ऊद्यो! तुम साथी मोरे" जैसे पंक्तियाँ सूरदास की शब्द शक्ति की अद्भुतता को दर्शाती हैं।

इस प्रकार, सूरदास का काव्य शिल्प विधान और भाषा के उत्कृष्ट संयोजन का एक अद्भुत उदाहरण है, जो भारतीय काव्य परंपरा में उनका स्थान और भी महत्वपूर्ण बनाता है।

अभ्यास-प्रश्न

'सूरदास ने अपने काव्य में चमत्कारपूर्ण भाषा का प्रयोग किया है'-स्पष्ट कीजिए

सूरदास, जिन्हें हिंदी साहित्य के 'सूरदास' के रूप में जाना जाता है, ने अपने काव्य में भाषा का अद्भुत और चमत्कारपूर्ण प्रयोग किया है। उनकी भाषा अत्यंत सरल, सजीव और हृदयस्पर्शी होती है, जिससे वे अपनी कविताओं में गहरे भावों को अत्यंत प्रभावशाली तरीके से व्यक्त करते हैं। उनके काव्य में ब्रज भाषा का प्रयोग मुख्य रूप से किया गया है, जो उस समय की सामान्य बोलचाल की भाषा थी। इस भाषा के माध्यम से उन्होंने अपनी कविताओं में ग्रामीण जीवन, कृष्ण-लीला, और भक्ति की भावना को सजीव रूप में प्रस्तुत किया।

सूरदास की भाषा की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:

1.        सरल और सजीव भाषा: सूरदास ने अत्यंत सरल और सजीव भाषा का प्रयोग किया है, जिससे उनके काव्य में एक विशेष प्रकार की जीवंतता और प्रभावशीलता जाती है। उनकी कविताएँ पढ़ने और सुनने में सरल, स्पष्ट और भावपूर्ण होती हैं।

2.        रस और भावों की अभिव्यक्ति: सूरदास ने अपने काव्य में विभिन् रसों जैसे शृंगार, करुणा, और भक्ति रस का अत्यंत कुशलता से प्रयोग किया है। उनके काव्य में कृष्ण और गोपियों के प्रेम, वात्सल्य, और करुणा के भावों को अत्यंत मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है।

3.        अनुप्रास और अलंकारों का प्रयोग: सूरदास की रचनाओं में अनुप्रास, उपमा, रूपक, और अन्य अलंकारों का चमत्कारपूर्ण प्रयोग देखने को मिलता है। ये अलंकार उनकी कविताओं को सौंदर्य और गहराई प्रदान करते हैं।

4.        वर्णनात्मक शैली: सूरदास ने अपने काव्य में अत्यंत सजीव वर्णनात्मक शैली का प्रयोग किया है, जिससे उनके काव्य में चित्रात्मकता और जीवंतता जाती है। उनकी कविताओं में कृष्ण की बाल-लीला, गोपियों के साथ उनका रास, और अन्य कथाओं का वर्णन अत्यंत चित्रात्मक ढंग से किया गया है।

5.        भावनाओं का सूक्ष्म चित्रण: सूरदास ने मानवीय भावनाओं का अत्यंत सूक्ष्म और गहन चित्रण किया है। उनकी कविताओं में प्रेम, भक्ति, और करुणा के भाव इतने सजीव और प्रभावी होते हैं कि पाठक उनसे भावनात्मक रूप से जुड़ जाते हैं।

इस प्रकार, सूरदास ने अपने काव्य में चमत्कारपूर्ण भाषा का प्रयोग करके अपने भावों और विचारों को अत्यंत प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया है। उनके काव्य में भाषा की यह विशेषता उन्हें हिंदी साहित्य के महान कवियों की श्रेणी में स्थान दिलाती है।

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'सूर-काव्य में अलंकारों का सागर है" विश्लेषण कीजिए

सूरदास का काव्य हिंदी साहित्य में एक ऐसा अनुपम रत्न है जिसमें भक्ति, प्रेम, और काव्यात्मक सौंदर्य की गहरी अभिव्यक्ति होती है। उनके काव्य में अलंकारों का प्रयोग इतनी कुशलता से किया गया है कि इसे "अलंकारों का सागर" कहना बिल्कुल उचित होगा। अलंकार, काव्य की शोभा को बढ़ाने के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्दशिल्प होते हैं, और सूरदास ने इनका प्रयोग अपने काव्य में अत्यंत सजीवता और सजीवता से किया है।

सूरदास के काव्य में अलंकारों का सागर निम्नलिखित प्रकार से देखा जा सकता है:

1. अनुप्रास अलंकार:

अनुप्रास का प्रयोग शब्दों में ध्वन्यात्मक सौंदर्य पैदा करने के लिए किया जाता है। सूरदास की कविताओं में एक ही ध्वनि का बार-बार उपयोग उनके काव्य को लयबद्ध और संगीतमय बना देता है।

  • उदाहरण: "मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायो।"

2. उपमा अलंकार:

उपमा में किसी वस्तु की तुलना अन्य वस्तु से की जाती है। सूरदास ने कृष्ण की सौंदर्यता, उनकी लीलाओं और गोपियों के प्रेम की तुलना कई अद्वितीय और सुंदर वस्तुओं से की है।

  • उदाहरण: "श्याम सुंदर पर धरे स्याम घन, अनूप रूप लखि चित्त चकोर।"

3. रूपक अलंकार:

रूपक में किसी वस्तु को उसके वास्तविक रूप से अलग किसी अन्य वस्तु के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। सूरदास ने रूपक का प्रयोग अत्यंत कुशलता से किया है।

  • उदाहरण: "नैनन के तीर चलाइके, प्रभु काहू पायो।" (यहाँ कृष्ण की नज़र को तीर के रूप में दिखाया गया है।)

4. यमक अलंकार:

यमक अलंकार में एक ही शब्द का एक से अधिक बार अलग-अलग अर्थों में प्रयोग होता है। सूरदास ने इसे अपने काव्य में कई बार उपयोग किया है।

  • उदाहरण: "खेलत पनघट पर, कर पकड़ लीन्ही कहे, सुन री सखी यह छलकै नाहीं।"

5. अनन्वय अलंकार:

अनन्वय में किसी वस्तु की विशेषता को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया जाता है, जिससे उसकी अनुपम विशेषता उभरकर सामने आती है।

  • उदाहरण: "श्याम सुंदर का रूप निराला, देखत मन हरषायो।"

6. उत्प्रेक्षा अलंकार:

उत्प्रेक्षा में किसी वस्तु की विशेषता को कल्पना के आधार पर प्रस्तुत किया जाता है। सूरदास ने इस अलंकार का उपयोग करके अपने काव्य को कल्पनात्मक ऊँचाई प्रदान की है।

  • उदाहरण: "धरनी धसान का रूप तिहारा, ब्रज के भाग्यविधाता हो।"

7. संबंधित अलंकार:

सूरदास के काव्य में शब्द और अर्थ के बीच संबंध स्थापित करने के लिए संबंधित अलंकारों का भी प्रयोग किया गया है। इससे काव्य की गहराई और अर्थवत्ता में वृद्धि होती है।

इन अलंकारों के प्रयोग ने सूरदास के काव्य को एक अलंकारिकता का सागर बना दिया है, जिसमें पाठक डूब कर भावनाओं और सौंदर्य के रस का आनंद ले सकता है। सूरदास ने अपनी सरल और सजीव भाषा में अलंकारों का कुशलता से प्रयोग किया है, जिससे उनका काव्य अत्यंत मनमोहक और प्रभावी बन गया है। इसीलिए कहा जाता है कि 'सूर-काव्य में अलंकारों का सागर है।'

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 सूरसागर के शिल्प-विधान को अपने शब्दों में लिखिए।

सूरसागर सूरदास की एक प्रसिद्ध रचना है, जो हिंदी साहित्य के भक्तिकाल की प्रमुख कृति मानी जाती है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण के बाल्यकाल, किशोरावस्था, और युवावस्था से जुड़ी लीलाओं का वर्णन किया गया है। इस ग्रंथ का शिल्प-विधान अत्यंत महत्वपूर्ण और अद्वितीय है, जो इसे साहित्यिक दृष्टिकोण से उच्च कोटि का बनाता है।

सूरसागर के शिल्प-विधान के प्रमुख तत्व:

1. भाषा की सरलता और माधुर्य:

  • सूरसागर की भाषा ब्रजभाषा है, जो उस समय की लोकभाषा थी। सूरदास ने अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए अत्यंत सरल, मधुर, और सुबोध भाषा का प्रयोग किया है। उनकी भाषा में लोकजीवन की सहजता और मिठास है, जिससे पाठक सहज ही भावविभोर हो जाता है।

2. छंदों का विविध और कुशल प्रयोग:

  • सूरसागर में कई प्रकार के छंदों का प्रयोग हुआ है। इसमें 'दोहा,' 'सोरठा,' 'पद,' और 'कवित्त' जैसे छंदों का प्रयोग मिलता है। हर छंद में सूरदास ने अपनी भावनाओं और विचारों को बड़ी ही कुशलता से प्रस्तुत किया है।
  • दोहा: सूरसागर में दोहे का प्रमुखता से प्रयोग हुआ है। यह छंद सरलता से गेय और स्मरणीय है।
  • सोरठा: इस छंद में विषम चरणों के अंत में यति (विराम) होती है, जिससे भाव की गहराई बढ़ जाती है।
  • पद: पदों में भावनाओं को गहराई से व्यक्त करने की क्षमता होती है। सूरदास ने इनका उपयोग कर कृष्ण की लीलाओं का सजीव चित्रण किया है।

3. अलंकारों का प्रयोग:

  • सूरदास ने सूरसागर में अलंकारों का अत्यधिक और कुशल प्रयोग किया है, जिससे काव्य का सौंदर्य और भी बढ़ गया है। इनमें उपमा, अनुप्रास, रूपक, और यमक जैसे अलंकार प्रमुख हैं।
  • इन अलंकारों के माध्यम से सूरदास ने अपने भावों को सजीव और प्रभावी रूप में प्रस्तुत किया है, जिससे उनके काव्य की अभिव्यक्ति और भी मनोहर हो जाती है।

4. भावनाओं की गहनता:

  • सूरसागर में भावनाओं की गहनता प्रमुख है। विशेषकर श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों का प्रेम, वात्सल्य, और भक्ति के विविध रूपों का अत्यंत मार्मिक चित्रण हुआ है।
  • सूरदास ने मानव मन के सूक्ष्म भावों को अत्यंत सजीवता से अभिव्यक्त किया है, जिससे उनका काव्य सीधे हृदय में उतर जाता है।

5. प्रकृति चित्रण:

  • सूरदास ने प्रकृति के विभिन्न रूपों का भी सुंदर चित्रण किया है। सूरसागर में ऋतु वर्णन, वन, नदी, पर्वत, और बृज की सुंदरता का वर्णन बड़ी बारीकी से किया गया है।
  • प्रकृति का यह चित्रण काव्य की सजीवता को और बढ़ा देता है तथा भावों के अनुरूप वातावरण की सृष्टि करता है।

6. रचना का संगठन:

  • सूरसागर की रचना का संगठन अत्यंत सुगठित और क्रमबद्ध है। इसमें श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं से लेकर रासलीला, माखनचोरी, और गोपियों के साथ उनके संबंधों तक का वर्णन किया गया है।
  • इस क्रमबद्धता से पाठक को कथा का तारतम्य और रसास्वादन निरंतर बना रहता है।

7. भक्ति और प्रेम का सामंजस्य:

  • सूरसागर में भक्ति और प्रेम का अद्भुत सामंजस्य देखने को मिलता है। श्रीकृष्ण के प्रति गहन भक्ति और गोपियों का प्रेम इस काव्य का मुख्य विषय है। सूरदास ने इस प्रेम और भक्ति को इतने मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है कि यह हृदय को गहराई से छू जाता है।

सूरसागर के शिल्प-विधान में सूरदास ने अपनी प्रतिभा और काव्य-कौशल का अद्वितीय प्रदर्शन किया है। उनकी रचनाएँ केवल धार्मिक और भक्ति भावना को उत्तेजित करती हैं, बल्कि साहित्यिक दृष्टिकोण से भी उच्चतम स्तर की हैं। उनके शिल्प की यह विशेषताएँ सूरसागर को हिंदी साहित्य की एक महान कृति के रूप में स्थापित करती हैं।

इकाई 6  तुलसादास का काव्यात्मक योगदान

प्रस्तावना:

गोस्वामी तुलसीदास हिन्दी साहित्य के सर्वाधिक दैदीप्यमान नक्षत्र हैं। उनकी रचनाएँ केवल हिन्दी काव्य जगत में बल्कि समग्र भारतीय साहित्य में विशिष्ट स्थान रखती हैं। उनकी लेखनी की शक्ति, भावों की गहनता, और विचारों की समृद्धि के कारण उनकी कृतियाँ सर्वकालिक और सार्वभौमिक मानी जाती हैं।

1. तुलसीदास की लेखन कुशलता:

  • तुलसीदास मुख्यतः भक्त और संत कवि थे। उनकी काव्य रचना का मुख्य उद्देश्य आत्मोद्धार और रामभक्ति था। उन्होंने काव्य को एक साधन के रूप में इस्तेमाल किया, और इस साधन को उन्होंने इतना प्रभावशाली और समर्थ बना दिया कि भक्ति और साहित्य के क्षेत्र में वे अद्वितीय बन गए।
  • तुलसीदास ने अपने काव्य में सभी रसों और भावों का वर्णन किया है। उन्होंने उपमा, उत्प्रेक्षा, और अन्य अलंकारों का सहज और नैसर्गिक प्रयोग किया है। उनकी काव्यशैली में अलंकारों का प्रयोग उनके भावों को गहनता प्रदान करता है।
  • भाषा और शैली की दृष्टि से तुलसीदास ने अवधी और ब्रजभाषा दोनों में उत्कृष्ट प्रयोग किया है। उन्होंने अपनी भाषा कोगँवारूकहकर अपनी विनम्रता प्रकट की, लेकिन उनकी भाषा का प्रवाह और समृद्धि अद्वितीय है।
  • तुलसीदास के काव्य में शब्द शक्तियों का भी कुशलता से प्रयोग किया गया है। उनके काव्य में अभिधा, लक्षणा, और व्यंजना का सहज और सटीक प्रयोग हुआ है।
  • छन्दों की विविधता और उनके उचित प्रयोग में भी तुलसीदास ने अपनी रचनात्मकता का परिचय दिया है। उनकी रचनाओं में चौपाई, दोहा, सोरठा, सवैया आदि छन्दों का कुशल प्रयोग दिखाई देता है।
  • तुलसीदास की लेखन कुशलता को हरिऔध जी की उक्ति में अभिव्यक्त किया गया है: "कविता करके तुलसी लसे, कविता लसी पा तुलसी की कला।"

2. तुलसीदास का काव्यात्मक योगदान:

  • तुलसीदास मुख्यतः प्रबंधकाव्य के महाकवि हैं। उनकी प्रतिभा का क्षेत्र व्यापक है, और उन्होंने काव्य के सभी आवश्यक उपकरणों का कुशलता से प्रयोग किया है।
  • 'रामचरितमानस' तुलसीदास का सबसे प्रसिद्ध महाकाव्य है, जिसमें रामकथा का उत्कृष्ट विन्यास किया गया है। इस ग्रंथ में राम के चरित्र, उनके गुणों, और उनकी महिमा का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।
  • तुलसीदास ने राम की महिमा को केंद्र में रखते हुए कथा को इस प्रकार सज्जित किया कि यह जन साधारण के लिए केवल आकर्षक बनी बल्कि उनके जीवन में कल्याणकारी भी सिद्ध हुई।
  • तुलसीदास की भक्ति दास्य भाव की थी, जिसमें उन्होंने राम के प्रति अटूट श्रद्धा और प्रेम को व्यक्त किया है। उनकी भक्ति में स्वामी के प्रति संभ्रम और श्रद्धा का भाव हमेशा बना रहा।
  • तुलसीदास का महत्वपूर्ण योगदान समन्वय-भावना और उदारता में भी देखा जा सकता है। उन्होंने भक्ति को एक ऐसी शक्ति के रूप में प्रस्तुत किया जो समाज को संगठित और सशक्त कर सकती है।
  • स्वातन्त्रयोत्तर काल में तुलसीदास के प्रति नई-नई स्थापनाएँ और व्याख्याएँ प्रस्तुत की गईं, जिनमें से कुछ अतिवादी और एकांगी थीं। लेकिन तुलसीदास और उनके साहित्य का निष्पक्ष मूल्यांकन करते समय उनकी वास्तविकता और महत्व को समझना आवश्यक है।

निष्कर्ष:

गोस्वामी तुलसीदास का काव्यात्मक योगदान भारतीय साहित्य में अमूल्य है। उन्होंने केवल रामकथा को जन-जन तक पहुँचाया, बल्कि अपनी लेखनी के माध्यम से समाज को एक नई दिशा और नई प्रेरणा दी। उनकी रचनाएँ आज भी अपने भावों की गहनता और भाषा की समृद्धि के कारण प्रासंगिक और लोकप्रिय बनी हुई हैं।

अभ्यास-प्र श्न

 "तुलसीदास प्रबन्धकाव्य-प्रणेता महाकवि हैं' स्पष्ट करें।

"तुलसीदास प्रबन्धकाव्य-प्रणेता महाकवि हैं" इस कथन का अर्थ है कि तुलसीदास एक ऐसे महाकवि हैं, जिन्होंने प्रबन्धकाव्य (महाकाव्य) की रचना में उत्कृष्टता प्राप्त की है। उनके काव्य में कथा का सुगठित और सुनियोजित विन्यास, चरित्र चित्रण, और विभिन्न रसों का समन्वय देखा जाता है, जो उन्हें एक महान प्रबन्धकाव्य रचनाकार के रूप में स्थापित करता है।

प्रबन्धकाव्य की विशेषताएँ और तुलसीदास:

1.       कथा का सुगठित विन्यास:

o    प्रबन्धकाव्य का मुख्य आधार कथा होती है। तुलसीदास ने 'रामचरितमानस' में रामकथा का अद्वितीय और सुव्यवस्थित ढंग से वर्णन किया है। कथा के प्रत्येक भाग को क्रमबद्ध और सुसंगठित रूप में प्रस्तुत करना उनकी प्रबन्धकाव्य रचनाशीलता का प्रमाण है।

2.       चरित्र चित्रण:

o    तुलसीदास ने अपने काव्य में राम, सीता, लक्ष्मण, हनुमान, और रावण जैसे चरित्रों का गहन और सजीव चित्रण किया है। प्रत्येक चरित्र का भावपूर्ण और यथार्थवादी चित्रण उनकी काव्यात्मक कुशलता को दर्शाता है।

3.       रस-निरूपण:

o    प्रबन्धकाव्य में विभिन्न रसों का निरूपण होता है, और तुलसीदास ने अपने काव्य में श्रृंगार, वीर, करुण, और शांत रस का सम्यक्‌ रूप से उपयोग किया है। इन रसों के माध्यम से उन्होंने कथा को जीवंत और भावपूर्ण बनाया है।

4.       प्रकृति वर्णन:

o    तुलसीदास ने अपने काव्य में प्रकृति का सजीव और सुंदर वर्णन किया है। उन्होंने प्राकृतिक दृश्यों और ऋतुओं का इतना मनोरम चित्रण किया है कि पाठक उनके काव्य में स्वयं को उसी वातावरण में महसूस करता है।

5.       मर्यादा स्थापन:

o    तुलसीदास ने अपने काव्य में राम के चरित्र के माध्यम से मर्यादा पुरुषोत्तम के आदर्श को स्थापित किया। उनके काव्य में नायक के रूप में राम को मर्यादा और धर्म के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

6.       लोक संरक्षण:

o    तुलसीदास ने 'रामचरितमानस' में समाज और संस्कृति के संरक्षण के महत्व को प्रमुखता दी है। उन्होंने सामाजिक मूल्यों और धर्म का प्रचार-प्रसार किया, जो उनके प्रबन्धकाव्य की महत्वपूर्ण विशेषता है।

निष्कर्ष:

तुलसीदास को "प्रबन्धकाव्य-प्रणेता महाकवि" कहा जाता है क्योंकि उन्होंने प्रबन्धकाव्य की सभी विशेषताओं का समावेश अपने काव्य में किया और उसे एक महाकाव्य के रूप में प्रस्तुत किया। उनका काव्य न केवल साहित्यिक दृष्टि से उत्कृष्ट है, बल्कि इसमें जीवन, समाज, और धर्म का गहन और व्यापक चित्रण भी मिलता है, जो उन्हें एक महान महाकवि के रूप में प्रतिष्ठित करता है।

 

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तुलसीदास की भाषा-शैली पर टिप्पणी करें।

तुलसीदास की भाषा-शैली उनके काव्य की उत्कृष्टता का एक प्रमुख कारण है। उनकी भाषा सरल, सजीव, और प्रवाहपूर्ण है, जो पाठकों के हृदय को छूने में सक्षम है। तुलसीदास ने अपनी रचनाओं में अवधी और ब्रजभाषा का प्रयोग किया, जो उस समय की लोकभाषाएँ थीं। उनकी भाषा-शैली की कुछ प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:

1. सरलता और सहजता:

  • तुलसीदास की भाषा में सरलता और सहजता है, जो उन्हें आम जनमानस के बीच लोकप्रिय बनाती है। उन्होंने अपनी भाषा को जटिल और कठिन बनाने के बजाय उसे सरल और प्रवाहपूर्ण रखा, ताकि हर वर्ग के लोग उसे समझ सकें और आत्मसात कर सकें।

2. अवधी और ब्रजभाषा का प्रयोग:

  • तुलसीदास ने मुख्य रूप से अवधी और ब्रजभाषा का प्रयोग किया है। 'रामचरितमानस' में अवधी भाषा का प्रयोग करते हुए उन्होंने उसे इतना परिमार्जित और प्रवाहपूर्ण बना दिया कि यह भाषा साहित्यिक जगत में प्रतिष्ठित हो गई। वहीं, 'कवितावली' और 'विनय पत्रिका' जैसी रचनाओं में ब्रजभाषा का प्रयोग किया गया है, जो उनके भाषा-शिल्प के गहरे ज्ञान को दर्शाता है।

3. प्रभावी व्यंजना:

  • तुलसीदास ने अपनी रचनाओं में प्रभावी व्यंजना का उपयोग किया है। उन्होंने शब्दों के माध्यम से गहरे भावों और विचारों को प्रभावी ढंग से व्यक्त किया है। उनके काव्य में उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक जैसे अलंकारों का प्रयोग स्वाभाविक और प्रभावशाली है, जो उनके काव्य को और अधिक मनोहारी बनाता है।

4. धर्म और भक्ति का समन्वय:

  • तुलसीदास की भाषा-शैली में धर्म और भक्ति का गहन समन्वय देखा जाता है। उन्होंने अपनी रचनाओं में धार्मिक और आध्यात्मिक विचारों को सरल और सहज भाषा में प्रस्तुत किया है, जिससे उनकी रचनाएँ धार्मिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हो जाती हैं।

5. संस्कारित और प्रांजल भाषा:

  • तुलसीदास ने अपनी भाषा को संस्कारित और प्रांजल बनाए रखा। उनकी भाषा में संस्कृत के श्लोकों और पदों का समावेश भी मिलता है, जिससे उनकी रचनाओं में एक विशेष प्रकार की गरिमा और मधुरता आती है।

6. लय और छंद का सुन्दर प्रयोग:

  • तुलसीदास की रचनाओं में लय और छंद का अत्यंत सुन्दर प्रयोग हुआ है। 'रामचरितमानस' की चौपाई और दोहे, 'कवितावली' के सवैये, और अन्य रचनाओं के विविध छंदों में लय का प्रभावी प्रयोग उनके काव्य को अधिक गेय और मनोहारी बनाता है।

7. प्राकृतिक वर्णन:

  • तुलसीदास की भाषा-शैली में प्राकृतिक दृश्य और वातावरण का सुंदर चित्रण मिलता है। उन्होंने प्रकृति का वर्णन अत्यंत सजीव और यथार्थ रूप में किया है, जिससे पाठक उस दृश्य को अपने सामने देख सकता है।

8. नैतिकता और सामाजिकता:

  • तुलसीदास की भाषा-शैली में नैतिकता और सामाजिकता का भी विशेष ध्यान रखा गया है। उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज को नैतिक मूल्यों और धर्म के प्रति जागरूक किया।

निष्कर्ष:

तुलसीदास की भाषा-शैली अद्वितीय और प्रभावशाली है। उनकी भाषा में सरलता, सजीवता, और भावप्रवणता है, जो पाठकों के मन को छू लेती है। उन्होंने अपनी रचनाओं में अवधी और ब्रजभाषा का प्रयोग करके उन्हें साहित्यिक सम्मान दिलाया और अपने काव्य के माध्यम से समाज और धर्म का प्रचार-प्रसार किया। उनकी भाषा-शैली भारतीय साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है और आज भी वह पाठकों के बीच लोकप्रिय है।

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 तुलसीदास के काव्यात्मक योगदान का वर्णन करें।

तुलसीदास हिंदी साहित्य के महान कवि और संत थे, जिनका काव्यात्मक योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण और व्यापक है। उनकी रचनाएँ केवल साहित्यिक दृष्टि से बल्कि धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। तुलसीदास का काव्यात्मक योगदान निम्नलिखित प्रमुख बिंदुओं में समझा जा सकता है:

1. रामचरितमानस:

  • तुलसीदास की सबसे प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण रचना रामचरितमानस है। यह महाकाव्य भगवान राम के जीवन और उनके आदर्शों का वर्णन करता है। रामचरितमानस ने केवल हिंदी साहित्य में बल्कि भारतीय जनमानस में भी अमिट छाप छोड़ी है। इसे रामायण का लोकभाषा में अद्वितीय संस्करण माना जाता है, जिसने रामकथा को घर-घर में पहुँचाया।

2. धर्म और भक्ति की स्थापना:

  • तुलसीदास के काव्य में धर्म और भक्ति का गहन समन्वय है। उनकी रचनाओं में रामभक्ति का जो उत्कट प्रवाह है, वह अनूठा है। तुलसीदास ने अपने काव्य के माध्यम से भगवान राम को एक आदर्श पुरुष और धर्मपालक के रूप में प्रस्तुत किया, जिससे रामभक्ति का प्रचार हुआ।

3. भाषा का परिष्कार:

  • तुलसीदास ने अवधी और ब्रजभाषा को साहित्यिक गौरव दिलाया। उनकी रचनाओं के कारण ये भाषाएँ जन-जन की भाषाएँ बन गईं। उन्होंने अपनी भाषा को सरल, सहज, और प्रवाहमय बनाकर उसे आम जनमानस के लिए सुलभ बनाया।

4. सामाजिक चेतना:

  • तुलसीदास ने अपने काव्य के माध्यम से समाज में नैतिकता, मर्यादा, और धर्म का प्रचार किया। उनके काव्य में सामाजिक बुराइयों की निंदा की गई है और आदर्श जीवन के मूल्यों का प्रचार-प्रसार किया गया है। उनके काव्य ने समाज में भाईचारे, सदाचार, और धर्मनिष्ठा के प्रति जागरूकता उत्पन्न की।

5. मानवीय मूल्य और आदर्श:

  • तुलसीदास ने अपने काव्य में मानवीय मूल्यों और आदर्शों का व्यापक रूप से वर्णन किया। उनके काव्य में राम, सीता, हनुमान, और लक्ष्मण जैसे चरित्र आदर्श मानवीय गुणों के प्रतीक हैं। उन्होंने अपने काव्य के माध्यम से सत्य, धर्म, करुणा, और सेवा जैसे मूल्यों को प्रतिष्ठित किया।

6. कवितावली, विनय पत्रिका, दोहावली:

  • कवितावली में तुलसीदास ने अपने समय की सामाजिक, धार्मिक, और राजनीतिक स्थिति का वर्णन किया है। इसमें उन्होंने अपने भक्ति और नीति के विचारों को सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है।
  • विनय पत्रिका तुलसीदास की एक अन्य प्रमुख रचना है, जिसमें उन्होंने भगवान राम के प्रति अपनी विनम्र भक्ति और अनुराग का वर्णन किया है। यह रचना भक्तों के लिए एक महत्वपूर्ण पाठ्य है, जिसमें भक्ति के भाव को व्यक्त किया गया है।
  • दोहावली में तुलसीदास के दोहे हैं, जो संक्षेप में गहन अर्थ व्यक्त करते हैं। ये दोहे नीति, भक्ति, और समाज के विभिन्न पहलुओं को सरल और प्रभावी रूप में प्रस्तुत करते हैं।

7. शक्ति और साहस का संचार:

  • तुलसीदास के काव्य ने समाज में धर्म और नैतिकता के प्रति एक नई चेतना का संचार किया। उन्होंने राम जैसे चरित्रों के माध्यम से लोगों में साहस, शक्ति, और नैतिकता का संचार किया।

8. साहित्यिक और सांस्कृतिक प्रभाव:

  • तुलसीदास का काव्य हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर है। उनके काव्य का प्रभाव भारतीय संस्कृति पर भी गहरा पड़ा है। उनके द्वारा प्रस्तुत आदर्श चरित्र, धार्मिक विचार, और नैतिक शिक्षाएँ भारतीय समाज में गहरे समाहित हो गई हैं।

निष्कर्ष:

तुलसीदास का काव्यात्मक योगदान केवल हिंदी साहित्य बल्कि भारतीय संस्कृति और समाज में भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। उनकी रचनाएँ रामभक्ति, नैतिकता, और सामाजिक चेतना के संदेशवाहक हैं। तुलसीदास ने अपने काव्य के माध्यम से जो आदर्श प्रस्तुत किए, वे आज भी लोगों के लिए प्रेरणादायक हैं। उनका साहित्य सदियों तक पाठकों और भक्तों के लिए मार्गदर्शक बना रहेगा।

इकाई 7: रामचरितमानस उत्तरकाण्डदोहा-सप्रसंग व्याख्या

प्रस्तावना: महाकवि तुलसीदास ने 'श्रीरामचरितमानस' में अपनी विलक्षण काव्य-प्रतिभा का परिचय दिया है। यह महाकाव्य केवल भारतीय साहित्य का एक अद्वितीय ग्रंथ है, बल्कि समाज, संस्कृति और धर्म के आदर्शों का भी प्रतिनिधित्व करता है। इसमें तुलसीदास ने व्यक्ति, परिवार, समाज, और धर्म के आदर्शों को प्रस्तुत किया है, जो मानवता के मार्गदर्शक सिद्ध हुए हैं। इस इकाई में 'रामचरितमानस' के उत्तरकाण्ड के दोहों की व्याख्या की जाएगी, जो इस महाकाव्य के समापन के समय की घटनाओं को दर्शाते हैं।

11.1 रामचरितमानस उत्तरकाण्ड दोहा-सप्रसंग व्याख्या

"रहा एक दिन अवधि कर अति आरत पुर लोग।
जहँ तहें सोचहिं नारि नर कृस तन राम बियोग॥"

शब्दार्थ:

  • अवधि: सीमा, अवधि
  • आरत: आर्त, व्याकुल
  • कृस: दुर्बल

व्याख्या:
राम के चौदह वर्ष के वनवास की अवधि अब एक दिन ही शेष रह गई है। इस स्थिति में अयोध्यावासी अत्यंत व्याकुल हैं और श्रीराम के वियोग में उनके शरीर दुर्बल हो गए हैं। वे सभी जगह चिंतित और परेशान हैं।

विशेष:

  • अवधि: विद्वानों के अनुसार, चौदह वर्ष की अवधि चैत्र मास में पूरी हुई थी। वाल्मीकि रामायण के अनुसार, श्रीराम ने चतुर्थी को किष्किंधा में रहकर पंचमी को वहाँ से प्रस्थान किया और चौदहवें वर्ष की समाप्ति पर पंचमी तिथि को भारद्वाज आश्रम पहुँचे थे।
  • अध्यात्मरामायण: इसमें भी यही वर्णन है कि श्रीराम ने चौदहवें वर्ष की समाप्ति पर पंचमी तिथि को भारद्वाज मुनि को दर्शन किया।

"सगुन होहिं सुंदर सकल मन प्रसन् सब केर।
प्रभु आगवन जनाव जनु नगर रम्य चहूँ फेर॥"

शब्दार्थ:

  • आगवन: आगमन
  • रम्य: सुंदर
  • फेर: दिशा, ओर

व्याख्या:
सभी लोग शुभ शकुन की अनुभूति कर रहे हैं और उनके मन प्रसन्न हैं। वे मानते हैं कि ये शुभ शकुन श्रीराम के आगमन का संकेत हैं। पूरा नगर सुंदर और रमणीय लग रहा है, जैसे कि नगर भी श्रीराम के आगमन का संकेत दे रहा है।

अलंकार:
दूसरे चरण में उत्प्रेक्षा।

"Kausalyādi mātā sab mana ananda as hōḍ
Āyau prabhu śrī anuja jut kahana cahat aba kōī
"

शब्दार्थ:

  • आयउ प्रभु: श्रीराम के आगमन की सूचना
  • जुत: युक्त, साथ

व्याख्या:
कौसल्या और अन्य माताओं के मन में अपार आनंद हो रहा है। वे यही कहना चाहती हैं कि श्रीराम और सीता जी लक्ष्मण के साथ वापस गए हैं।

विशेष:

  • आयउ प्रभु: यह संदेश देने वाले के वचन हैं, माताओं के नहीं, क्योंकि उनके मन में श्रीराम के प्रति वात्सल्य भाव था।

"भरत नयन भुज दच्छिन फरकत बारहिं बार।
जानि सगुन मन हरष अति लागे करन बिचार॥"

शब्दार्थ:

  • भुज: भुजा, बाँह

व्याख्या:
भरत जी की दाहिनी आँख और दक्षिण भुजा बार-बार फड़क रही है। इसे शुभ शकुन मानकर उनके मन में अत्यधिक हर्ष उत्पन्न हुआ है और वे विचार करने लगे हैं।

विशेष:

  • श्रीराम के वनवास की अवधि पूरी होने में केवल डेढ़ पहर शेष रह गया है, जिससे अवधवासी चिंतित हैं, लेकिन शुभ शकुन आशा का संचार कर रहे हैं।

"राम बिरह सागर महँ भरत मगन मन होत।
बिप्र रूप थरि पवन सुत आइ गयउ जनु पोत॥"

शब्दार्थ:

  • मगन: डूबना
  • पोत: जहाज

व्याख्या:
राम के वियोग के समुद्र में भरत जी का मन डूब रहा था। उसी समय हनुमान जी, जो ब्राह्मण के रूप में आए थे, मानो डूबते व्यक्ति को सहारा देने वाला जहाज हो गए।

अलंकार:

  • पहली पंक्ति: रूपक
  • दूसरी पंक्ति: उत्प्रेक्षा

"बैठे देखि कुसासन जटा मुकुट कृस गात।
राम राम रघुपति जपत स्त्रवत नयन जल्जात॥"

शब्दार्थ:

  • कृस: दुर्बल
  • गात: शरीर
  • स्त्रवत: प्रेमाश्रुप्रवाह
  • जलजात: कमल

व्याख्या:
हनुमान जी ने देखा कि भरत जी कुशासन पर बैठे हैं, सिर पर जटाओं का मुकुट है और श्रीराम के वियोग में उनका शरीर दुर्बल हो गया है। वे निरंतर 'राम राम' का जाप कर रहे हैं और उनके कमल जैसे नेत्रों से आंसू बह रहे हैं।

विशेष:

  • श्रीराम के वियोग में भरत की स्थिति का वर्णन वैल्मीकि रामायण में भी मिलता है।

"आवत देखि लोग सब कृपासिंधु भगवान।
नगर निकट प्रभु प्रेरेउ उतरेड भूमि बिमान॥"

व्याख्या:
जब भगवान राम ने देखा कि अवधवासी उनका स्वागत करने के लिए रहे हैं, तो उन्होंने पुष्पक विमान को नगर के समीप उतरने का आदेश दिया। फिर विमान को कुबेर के पास भेजने की आज्ञा दी। श्रीराम का हर्ष और वियोग दोनों भावनाएं विमान के साथ जुड़ी थीं।

विशेष:

  • पुष्पक विमान को कुबेर के पास भेजा गया, क्योंकि यह विमान कुबेर का था।

दोहा:
"
पुनि प्रभु हरषि सन्नुहन भेंटे हृदय लगाइ।
लछिमन भरत मिले तब परम प्रेम दोउ भाइ॥"

व्याख्या:
श्रीराम ने भरत से मिलकर अत्यंत खुशी से भरत को गले लगाया। जब श्रीराम, भरत और शत्रुघ्न मिले, तब लक्ष्मण और भरत के बीच गहरा प्रेम प्रकट हुआ।

"भेरेउ तनय सुमित्रों राम चरन रति जानि।
रामहि मिलत कैकई हृदयेँ बहुत सकूचानि॥"

व्याख्या:
सुमित्रा माता ने लक्ष्मण को राम के भक्त के रूप में देखा और उन्हें आशीर्वाद दिया। कैकेयी ने श्रीराम से मिलते समय अपने हृदय में बहुत खेद महसूस किया, क्योंकि उसने ही श्रीराम को वनवास दिया था।

विशेष:

  • कैकेयी का खेद समाप्त नहीं हो रहा था, भले ही वह लक्ष्मण से बार-बार मिल रही थी।

"लछिमन अरु सीता सहित प्रभुष्ठि बिलोकति मातु।
परमानंद मगन मन पुनि पुनि पुलकित गातु॥"

व्याख्या:
माता कौसल्या श्रीराम को बार-बार देखती हैं, लेकिन यह स्पष्ट होता है कि उनका प्रेम केवल राम के प्रति नहीं है, बल्कि लक्ष्मण और सीता के प्रति भी है। वे हर बार राम को देखकर अत्यंत प्रसन्न और रोमांचित हो जाती हैं।

निष्कर्ष: इन दोहों की व्याख्या से स्पष्ट होता है कि रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में तुलसीदास ने केवल श्रीराम के आगमन की खुशी और अवधवासियों के प्रेम का वर्णन किया है, बल्कि समग्र भावनात्मक परिदृश्य को भी बड़े सजीव और प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है। तुलसीदास की काव्यशैली और उनके पात्रों का चित्रण अत्यंत प्रभावशाली और गहन है, जो भारतीय साहित्य में अनमोल योगदान के रूप में गिना जाता है।

अभ्यास-प्रश्न

 रामचरितमानस तुलसीदास द्वारा रचित अद्वितीय कृति है'-इस कथन को सोदाहरण स्पष्ट कीजिए

रामचरितमानस तुलसीदास द्वारा रचित अद्वितीय कृति है”- इस कथन को समझने के लिए हम रामचरितमानस की विशिष्टताओं और तुलसीदास के योगदान पर विचार कर सकते हैं।

रामचरितमानस का महत्व

1.        साहित्यिक शैली और भाषा:

o    भाषा: रामचरितमानस अवधी भाषा में लिखा गया है, जो आम जनता की भाषा थी। तुलसीदास ने संस्कृत के जटिल शास्त्रीय भाषाशास्त्र को सरल अवधी भाषा में प्रस्तुत करके इसे आम जनता तक पहुंचाया।

o    छंद और कवित्त: तुलसीदास ने कविता की विभिन्न छंदों और कवित्तों का उपयोग करके एक सुगठित और बहुपरकारी ग्रंथ लिखा, जो साहित्यिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है।

2.        धार्मिक और नैतिक शिक्षा:

o    राम के आदर्श: रामचरितमानस में भगवान राम को एक आदर्श पुरुष के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह ग्रंथ धर्म, नीति, और आदर्श जीवन के नियमों को स्पष्ट करता है।

o    भक्ति की महिमा: तुलसीदास ने भक्ति की महत्वपूर्णता को दर्शाते हुए राम के प्रति अटूट भक्ति की प्रेरणा दी। इससे भक्ति आंदोलन को बल मिला और यह समाज में व्यापक प्रभावी हुआ।

3.        कहानी की संरचना:

o    रामायण की पुनरावृत्ति: तुलसीदास ने वाल्मीकि की रामायण की कहानी को सरल और जनप्रिय रूप में प्रस्तुत किया। इसमें कुछ नये दृष्टिकोण और विशेषताएं शामिल की गईं, जो इसे अद्वितीय बनाती हैं।

o    उपकथाएँ और संवाद: रामचरितमानस में कई उपकथाएँ और संवाद शामिल हैं, जो धार्मिक शिक्षा को सरल और प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करते हैं।

4.        सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव:

o    जनसामान्य में प्रभाव: रामचरितमानस ने समाज के विभिन्न वर्गों को धार्मिक और नैतिक शिक्षा प्रदान की। इसका प्रभाव भारतीय समाज पर गहरा पड़ा और यह कई संस्कृतियों का हिस्सा बन गया।

o    आध्यात्मिक मार्गदर्शन: यह ग्रंथ अनेक लोगों के जीवन में मार्गदर्शक का कार्य करता है, विशेषकर भारतीय संस्कृति और धार्मिकता में।

निष्कर्ष

रामचरितमानस तुलसीदास द्वारा रचित अद्वितीय कृति है क्योंकि यह केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं है, बल्कि यह भाषा, साहित्य, धर्म और संस्कृति के विभिन्न पहलुओं को जोड़ने वाला एक महत्वपूर्ण माध्यम है। तुलसीदास ने इसे एक सरल और सहज भाषा में प्रस्तुत करके इसे जन-सामान्य के लिए सुलभ बनाया, जिससे इसका प्रभाव और महत्व और भी बढ़ गया।Top of FormBottom of Form

2. जासु कृपा कटाच्छु सुर चाहत चितव सोई।

राम पदारबिंद रति करति सुभावहि खोई।।

उपरोक्त पंक्तियों की प्रसंग सहित व्याख्या कीजिए

उक्त पंक्तियाँ तुलसीदास की रामचरितमानस की सर्ग 4, कांड 5 से हैं। ये पंक्तियाँ रामचरितमानस के उत्तरकांड में आती हैं और श्रीराम के चरित्र की महिमा और उनके प्रति भक्ति के भाव को व्यक्त करती हैं।

पंक्तियों की व्याख्या:

पंक्ति 1: "जासु कृपा कटाच्छु सुर चाहत चितव सोई"

इस पंक्ति में तुलसीदास ने बताया है कि जिनके ऊपर भगवान श्रीराम की कृपा होती है, उनके मन से देवताओं की इच्छा भी मिट जाती है। यहाँ पर यह इंगित किया गया है कि भगवान श्रीराम की कृपा इतनी महान है कि देवता भी उनकी कृपा की आकांक्षा करते हैं। अर्थात, जिनके ऊपर श्रीराम की कृपा होती है, वे सभी सांसारिक इच्छाओं और भौतिक सुखों से परे होते हैं।

पंक्ति 2: "राम पदारबिंद रति करति सुभावहि खोई"

इस पंक्ति में यह कहा गया है कि जिनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति भगवान श्रीराम के चरणों में प्रेम और भक्ति करने की होती है, उनके लिए सभी सांसारिक सुख और इच्छाएँ स्वतः ही समाप्त हो जाती हैं। जब किसी के दिल में भगवान श्रीराम के चरणों में लगन और प्रेम होता है, तब वह व्यक्ति अपने आप सांसारिक मोह-माया से मुक्त हो जाता है।

प्रसंग

इन पंक्तियों का प्रसंग उस समय का है जब भगवान श्रीराम की भक्ति और उनके प्रति प्रेम को विभिन्न पात्रों के माध्यम से दर्शाया गया है। तुलसीदास यहाँ पर भगवान श्रीराम की भक्ति की उच्चता को स्पष्ट कर रहे हैं, यह दिखाते हुए कि जिनके हृदय में श्रीराम के प्रति सच्चा प्रेम और भक्ति होती है, वे सभी बाहरी इच्छाओं और सुख-सुविधाओं से परे होते हैं।

इन पंक्तियों में भक्ति के उच्चतम स्तर की बात की गई है, जहां भगवान की कृपा और प्रेम ही सब कुछ है और सांसारिक इच्छाओं का कोई स्थान नहीं रह जाता। तुलसीदास ने इस प्रकार की कविताओं के माध्यम से भक्तों को भगवान श्रीराम की भक्ति की ओर प्रेरित किया और उन्हें यह समझाया कि सच्ची भक्ति और प्रेम ही सब सुखों का स्रोत हैं।

इकाई 8: तुलसीदास का भक्त-भावना

1. प्रस्तावना

हिन्दी साहित्य में तुलसीदास को रामभक्ति काव्य का महान कवि माना जाता है। उनके रचित ग्रंथ जैसे रामचरितमानस, रामलला नहछू, जानकी मंगल, दोहावली, गीतावली, श्रीकृष्ण गीतावली, और विनय-पत्रिका को विशेष महत्व प्राप्त है। इनमें रामचरितमानस विश्वभर में अत्यंत लोकप्रिय है और इसमें दास्यभाव की भक्ति स्पष्ट रूप से प्रदर्शित होती है। तुलसीदास ने केवल राम की भक्ति की है, बल्कि शिव, पार्वती, गणेश आदि देवताओं की भी स्तुतियां की हैं। उनके राम ने रामेश्वरम् में शिवलिंग की स्थापना की और सीता ने गौरी-पूजन किया। तुलसीदास की भक्ति पद्धति में धार्मिक समन्वय, ज्ञान, भक्ति और कर्म का दार्शनिक समन्वय भी मिलता है।

2. तुलसीदास की भक्ति-भावना

तुलसीदास भक्तिकाल की सगुण भक्ति धारा के प्रमुख कवि हैं और उन्होंने अपने सभी काव्य-प्रणीतों में राम के प्रति अनन्य भक्ति-भाव व्यक्त किया है। वे राम को प्रेम और भक्ति का परम आदर्श मानते हैं। उनकी भक्ति दास्य भाव की है, जिसमें वे राम को अपना स्वामी मानते हैं और स्वयं को राम का सेवक मानते हैं।

3. दास्यभाव की भक्ति

तुलसीदास की भक्ति पद्धति में दास्यभाव की प्रधानता है। वे स्वयं को तुच्छ और राम को महान मानते हैं। रामचरितमानस में उन्होंने दास्यभाव की भक्ति को महत्वपूर्ण स्थान दिया है और यह स्पष्ट किया है कि सेवक-सेव्य भाव के बिना कोई भी इस संसार सागर से तर नहीं सकता।

4. विनय-पत्रिका में भक्ति की स्पष्टता

विनय-पत्रिका में तुलसीदास की भक्ति पद्धति की स्पष्टता अधिक है। वे भगवान को ब्रह्म, जीव को ठाकुर, और स्वयं को चेरो मानते हैं। वे दैन्य की प्रधानता को स्वीकारते हुए राम को महान और स्वयं को तुच्छ मानते हैं। तुलसीदास की भक्ति में "नवधा भक्ति" का पूरा स्वरूप दिखता है जिसमें श्रवण, कीर्तन, पाद सेवन, अर्चना, वन्दना, दास्य, नाम स्मरण, और आत्म निवेदन शामिल हैं।

5. तुलसीदास के राम और उनके गुण

तुलसीदास के अनुसार, राम विष्णु के अवतार हैं जो भक्तों की रक्षा के लिए और धर्म की रक्षा के लिए अवतार लेते हैं। वे शक्तिशाली, शीलवान और सौंदर्य में अत्यंत सम्पन्न हैं। तुलसीदास के राम शक्ति, शील और सौंदर्य के भण्डार हैं और सम्पूर्ण जगत के स्वामी हैं।

6. भक्ति की भूमिकाएं

तुलसीदास की भक्ति पद्धति में विनय की सात भूमिकाएं हैं:

  • दैन्: भक्त अपने को तुच्छ मानते हुए प्रभु से प्रार्थना करता है।
  • मानमर्पता: अभिमान शून्य होकर प्रभु के समीप जाने का संकल्प।
  • भयदर्शना: प्रभु की शरण में जाने के लिए डर दिखाना।
  • भर्त्सना: मन को सही मार्ग पर लाने का प्रयास।
  • आश्वासन: प्रभु के गुणों पर विश्वास और मन को आश्वस्त करना।
  • मनोराज्य: मन की कामनाओं की अभिव्यक्ति।
  • विचारण: संसार की जटिलताओं को दिखाकर भक्ति-भावना में लीन होना।

7. शरणागत की छः प्रकार

तुलसीदास की भक्ति पद्धति में शरणागत के छः प्रकार हैं:

  • अनुकूल का संकल्प: प्रभु की सेवा का संकल्प।
  • प्रतिकूल का त्याग: उन बातों का त्याग जो प्रभु से दूर ले जाती हैं।
  • गौप्तृत्व वरण: प्रभु की रक्षा का विश्वास।
  • रक्षा का विश्वास: प्रभु हर हाल में रक्षा करेंगे।
  • कारुण्य: प्रभु के प्रति दया और करुणा।
  • आत्म निक्षेप: पूरी तरह प्रभु के प्रति समर्पण।

8. तुलसीदास की भक्ति की विशेषताएं

तुलसीदास की भक्ति पद्धति की सबसे बड़ी विशेषता उसकी सर्वांगपूर्णता है। यह भक्ति जीवन के सभी पक्षों को ध्यान में रखती है और इसमें कर्म, धर्म और ज्ञान का समन्वय है। तुलसीदास की भक्ति पद्धति को वे सगुण भक्ति का सर्वोत्तम रूप मानते हैं जो सभी वर्गों के लिए खुली है और इसमें ऊंच-नीच का भेदभाव नहीं है।

9. तुलसीदास की भक्ति की सरलता और लोकप्रियता

तुलसीदास ने भक्ति के मार्ग को ज्ञान मार्ग की तुलना में सरल और सहज बताया है। भक्ति मार्ग की सरलता और जनसाधारण में लोकप्रियता ने इसे अधिक प्रचलित किया है।

निष्कर्ष

तुलसीदास की भक्ति दास्यभाव की है जिसमें दैन्य और तुच्छता की प्रधानता है। वे राम के प्रति अटल श्रद्धा और विश्वास से युक्त हैं और उन्हें भक्ति की अनन्यता दिखती है। तुलसीदास की भक्ति पद्धति सरलता और सर्वांगपूर्णता के साथ जीवन के सभी पक्षों को समेटे हुए है। उनकी भक्ति पद्धति ने भक्तिरस की नई ऊचाइयों को छुआ है और जनसाधारण में अपनी गहरी छाप छोड़ी है।

अभ्यास-प्रश्न

'तुलसीदास कृत 'रामचरितमानस' विश्वभर में प्रसिद्ध है, इस कथन के समर्थन में अपने मत प्रस्तुत कीजिए

'तुलसीदास कृत 'रामचरितमानस' विश्वभर में प्रसिद्ध है' इस कथन के समर्थन में निम्नलिखित मत प्रस्तुत किए जा सकते हैं:

1. काव्य की अनूठी शैली और प्रभावी लेखन

  • भक्ति-भावना की गहराई: 'रामचरितमानस' में तुलसीदास ने भगवान श्रीराम की भक्ति को अत्यंत गहराई और भावनात्मकता के साथ व्यक्त किया है। यह काव्य केवल धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि इसकी भावनात्मक अपील भी व्यापक जनसमूह को आकर्षित करती है।
  • सहज और सरल भाषा: तुलसीदास ने संस्कृत और अवधी भाषा का मिश्रण करते हुए एक सरल और सहज शैली अपनाई, जिससे यह काव्य आम जनता के लिए समझने योग्य और पहुंच योग्य बना।

2. सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व

  • धार्मिक परंपराओं में महत्वपूर्ण स्थान: 'रामचरितमानस' भारतीय संस्कृति और हिन्दू धर्म में एक विशेष स्थान रखता है। यह ग्रंथ भारतीय धार्मिक जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गया है और विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों में इसका पाठ नियमित रूप से किया जाता है।
  • मौर्यवादी परंपरा और समाज पर प्रभाव: तुलसीदास का यह ग्रंथ भारतीय समाज में आदर्श मर्यादा, नैतिकता और धर्म की दिशा दिखाता है, जो विभिन्न युगों और समाजों में प्रसारित हुआ है।

3. वैश्विक प्रसार और अध्ययन

  • अनुवाद और प्रकाशन: 'रामचरितमानस' का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद किया गया है और विश्वभर में कई भाषाओं में प्रकाशित हुआ है। यह विभिन्न सांस्कृतिक संदर्भों में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सफल रहा है।
  • विदेशी अध्ययन: कई विदेशी विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों में 'रामचरितमानस' पर अध्ययन और अनुसंधान किया गया है। इसकी धार्मिक और सांस्कृतिक महत्वता को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी इसे सराहा गया है।

4. साहित्यिक और सांस्कृतिक प्रभाव

  • लोकप्रियता और प्रभाव: 'रामचरितमानस' की कहानियाँ, पात्र और उपकथाएँ भारतीय जनजीवन का हिस्सा बन गई हैं। इसका प्रभाव भारतीय कला, संगीत, नाट्य और फिल्म उद्योग पर भी देखा जा सकता है।
  • शिक्षा और प्रेरणा: यह ग्रंथ शिक्षा, प्रेरणा और जीवन के विभिन्न पहलुओं के प्रति जागरूकता फैलाने में सहायक रहा है। विशेष रूप से भारतीय धार्मिक और सांस्कृतिक समारोहों में इसकी विशेष भूमिका रही है।

5. लोकप्रियता का प्रमाण

  • जनप्रियता: 'रामचरितमानस' को आम जनता के बीच अत्यधिक लोकप्रियता प्राप्त है। यह धार्मिक अनुष्ठानों, संगीनी प्रदर्शनियों और भजन-कीर्तन के माध्यम से व्यापक रूप से प्रसारित और सराहा गया है।
  • साहित्यिक पुरस्कार और सम्मान: तुलसीदास और उनके काव्य को साहित्यिक पुरस्कारों और सम्मान प्राप्त हुए हैं, जो इसके वैश्विक महत्व को मान्यता देते हैं।

इन सभी बिंदुओं के आधार पर, यह स्पष्ट होता है कि 'रामचरितमानस' केवल भारत में, बल्कि विश्वभर में प्रसिद्ध है और इसकी व्यापक पहुंच और प्रभाव इसे एक महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध काव्य बनाते हैं।

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तुलसीदास रामभक् हैं। ज्ञान और वैराग्य उनकी भक्ति के साधन हैं। स्पष्ट कीजिए

तुलसीदास की भक्ति और उनके ज्ञान और वैराग्य के प्रति दृष्टिकोण को समझने के लिए हमें उनके जीवन और काव्य की गहराई से परिचित होना होगा। तुलसीदास ने भक्ति, ज्ञान और वैराग्य को एक दूसरे के पूरक और महत्वपूर्ण तत्व के रूप में देखा। आइए इस विचार को स्पष्ट रूप से समझें:

1. भक्ति का प्रमुख स्थान

  • श्रीराम की भक्ति: तुलसीदास की भक्ति मुख्यतः भगवान श्रीराम के प्रति थी। उनका 'रामचरितमानस' इस भक्ति का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसमें उन्होंने श्रीराम की जीवनगाथा और गुणों का वर्णन किया है। तुलसीदास ने श्रीराम को आदर्श भक्त और धर्म के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया, जिससे भक्ति के महत्व को दर्शाया।

2. ज्ञान और भक्ति का समन्वय

  • ज्ञान का उपयोग: तुलसीदास ने भक्ति के साथ-साथ ज्ञान का भी महत्वपूर्ण स्थान रखा। उनके अनुसार, भक्ति और ज्ञान एक-दूसरे के पूरक हैं। ज्ञान भक्ति को सशक्त और स्थिर करता है, जबकि भक्ति ज्ञान को व्यावहारिक और अनुभवात्मक बनाती है। तुलसीदास ने अपने ग्रंथों में ज्ञान के विभिन्न पहलुओं को भक्ति के संदर्भ में प्रस्तुत किया।
  • धार्मिक शिक्षाएं: 'रामचरितमानस' में तुलसीदास ने धार्मिक शिक्षाओं और जीवन की महत्वपूर्ण सच्चाइयों को भक्ति के माध्यम से प्रस्तुत किया। उन्होंने बताया कि भक्ति के साथ-साथ ज्ञान का विवेकपूर्ण उपयोग कैसे किया जा सकता है, ताकि जीवन की वास्तविकता को समझा जा सके और धर्म की सच्चाई को महसूस किया जा सके।

3. वैराग्य का प्रभाव

  • वैराग्य और आत्मनिवेदन: तुलसीदास का वैराग्य भक्ति का एक अभिन्न हिस्सा था। उन्होंने भौतिक और सांसारिक सुखों से परे रहकर भगवान श्रीराम की भक्ति में आत्मनिवेदन किया। उनका वैराग्य उन्हें भक्ति के पथ पर निरंतर बनाए रखने में सहायक था, जिससे वे भौतिक और मानसिक बंधनों से मुक्त हो सके।
  • साधना और तपस्या: तुलसीदास के वैराग्य का एक प्रमुख उदाहरण उनकी साधना और तपस्या है। उन्होंने भक्ति की गहराई में प्रवेश करने के लिए कठिन तपस्या की और सांसारिक आकर्षणों से दूर रहने का प्रयास किया। इस वैराग्य ने उन्हें भक्ति के शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करने में मदद की।

4. भक्ति के साधन के रूप में ज्ञान और वैराग्य

  • ज्ञान का माध्यम: तुलसीदास का ज्ञान भक्ति की ओर मार्गदर्शन प्रदान करता है। यह ज्ञान उन्हें भक्ति की गहराई और श्रीराम के चरित्र को सही तरीके से समझने में मदद करता है। ज्ञान के माध्यम से वे भक्ति के सिद्धांतों को स्पष्ट और सही रूप में प्रस्तुत कर सके।
  • वैराग्य की भूमिका: वैराग्य ने उन्हें भक्ति के मार्ग पर समर्पित और अनिवार्य रूप से स्थिर बनाए रखा। यह भक्ति की सच्चाई और शुद्धता को बनाए रखने के लिए एक आवश्यक तत्व था, जो उनके जीवन और साहित्य में प्रतिध्वनित होता है।

निष्कर्ष

तुलसीदास की भक्ति, ज्ञान और वैराग्य तीनों तत्व उनके धार्मिक और आध्यात्मिक जीवन के महत्वपूर्ण अंग थे। उनके लिए, भक्ति का वास्तविक स्वरूप ज्ञान और वैराग्य के बिना अधूरा था। ज्ञान ने उन्हें भक्ति की गहराई को समझने में मदद की, जबकि वैराग्य ने उन्हें भक्ति के पथ पर निरंतर बनाए रखा। इन तीनों का समन्वय उनकी भक्ति को एक स्थिर और प्रभावशाली मार्ग बनाता है, जिसे उन्होंने अपनी रचनाओं और जीवन के माध्यम से प्रस्तुत किया।

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तुलसीदास की भक्ति पद्धति में शरणागत के कितने प्रकार उपलब्ध हैं?

तुलसीदास की भक्ति पद्धति में शरणागत (आश्रय लेने वाले) के विभिन्न प्रकारों की पहचान की गई है। तुलसीदास ने भक्ति और शरणागत की विभिन्न अवस्थाओं और प्रकारों का वर्णन अपने ग्रंथों, विशेषकर 'रामचरितमानस' में किया है। शरणागत की मुख्यतः चार प्रमुख प्रकारों की पहचान की जाती है:

1. सर्वसंग्रही शरणागत

  • विवरण: यह शरणागत वह है जो भगवान को पूरी तरह से अपने जीवन का आधार मानता है और किसी भी प्रकार की बुराई या दोष को नहीं मानता। यह व्यक्ति पूरी तरह से भगवान के संरक्षण और मार्गदर्शन पर निर्भर रहता है।
  • उदाहरण: भक्त Hanuman और सीता जी इस श्रेणी में आते हैं, जो भगवान श्रीराम के प्रति पूर्ण समर्पण और विश्वास रखते हैं।

2. सर्वात्मनिवेशी शरणागत

  • विवरण: यह शरणागत उस व्यक्ति को दर्शाता है जो भगवान के प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण करता है और अपने सभी कार्यों और इच्छाओं को भगवान की इच्छा के अनुसार समर्पित करता है। यहाँ आत्मनिवेश का मतलब है कि व्यक्ति पूरी तरह से भगवान के प्रति समर्पित रहता है।
  • उदाहरण: तुलसीदास खुद इस श्रेणी में आते हैं, जिन्होंने अपने जीवन और रचनाओं को भगवान श्रीराम के प्रति समर्पित कर दिया।

3. सर्वार्थप्रयासी शरणागत

  • विवरण: यह शरणागत व्यक्ति है जो भगवान के पास जाकर अपनी सभी इच्छाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रार्थना करता है। वह भगवान के प्रति अपनी भक्ति और समर्पण के माध्यम से अपनी इच्छाओं की पूर्ति की अपेक्षा करता है।
  • उदाहरण: भक्तों में वह लोग जो अपने व्यक्तिगत लाभ और इच्छाओं की पूर्ति के लिए भगवान से प्रार्थना करते हैं, इस श्रेणी में आते हैं।

4. सर्वार्थसिद्धि शरणागत

  • विवरण: यह शरणागत वह व्यक्ति है जो भगवान के साथ अपने जीवन के विभिन्न पहलुओं को जोड़कर अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए शरण लेता है। यह व्यक्ति भगवान को अपने जीवन के हर पहलू में शामिल करता है और उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए समर्पण करता है।
  • उदाहरण: यह वह भक्त है जो भगवान की कृपा के माध्यम से अपने जीवन की समस्याओं का समाधान चाहता है और उनके आशीर्वाद को प्राप्त करना चाहता है।

निष्कर्ष

तुलसीदास की भक्ति पद्धति में शरणागत के ये चार प्रकार यह दर्शाते हैं कि भक्ति की विविधता और गहराई को कैसे समझा जा सकता है। प्रत्येक प्रकार शरणागत की भक्ति के अलग-अलग पहलुओं को दर्शाता है और भक्ति की विभिन्न अवस्थाओं को स्पष्ट करता है। तुलसीदास ने इन विभिन्न प्रकारों को अपने ग्रंथों में चित्रित कर भक्तों को भक्ति की विविधता और समर्पण की गहराई को समझने का मार्ग दिखाया।

इकाई 9: मीराबाई की "मुक्तावला" - व्याख्या भाग

प्रस्तावना: भक्तिकालीन कवियों में सूरदास, तुलसीदास, और मीराबाई का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। मीराबाई का काव्य, विशेषकर "मीरामुक्तावली", इस काल के अन्य काव्य रचनाओं से अलग है। उनका कृष्ण के प्रति प्रेम और भक्ति अद्वितीय है। उनकी रचनाएँ सहज और सरल भाषा में भगवान कृष्ण के प्रति उनकी अनन्य भक्ति और प्रेम को व्यक्त करती हैं। इस इकाई में, मीरामुक्तावली के कुछ प्रमुख पदों की व्याख्या प्रस्तुत की गई है।

तो गिरघर के घर जाऊँ #टेका॥ गिरथर म्हारों साँचो प्रीतम, देखत रूप लुभाऊँ। रैण पड़े तब ही उठि जाऊँ, भोर गये उठि आऊँ॥ रैण दिन बाके संग खेलूँ, ज्यूँ त्यूँ वाहि रिझाऊँ॥ जो पहिरावै सोई पहिखरूँ जो दे साई खाऊँ। मेरी उनकी प्रीत पुराणी, उण बिन पत्ष रहाऊँ॥ जहाँ बैठावे तितही बैदूँ बेचे तो बिक जाऊँ। मीरा के प्रभु गिरथर नागर, बार बार वलि जाऊँ

शब्दार्थ:

  • म्हारो - मेरा
  • सांचो - सच्चा
  • प्रीतम - प्रियतम
  • लुभाऊँ - मोहित
  • रैण - रात
  • भोर - सुबह
  • रैणदिन - रात दिन
  • वाहि - उसे
  • रिझाऊँ - प्रसन्न
  • दे - दे
  • पल्ट - एक क्षण
  • रहाऊं - रह सकती हूं

व्याख्या: इस पद में मीराबाई अपने कृष्ण के प्रति अटूट प्रेम और समर्पण को व्यक्त कर रही हैं। वे कहती हैं कि वे श्रीकृष्ण के घर जाने की आकांक्षा रखती हैं, क्योंकि वह ही उनके सच्चे प्रियतम हैं। कृष्ण की रूपसौंदर्य को देखकर वे मोहित हो जाती हैं। रात्रि के आते ही वे कृष्ण के दर्शन के लिए चली जाती हैं और प्रातःकाल भी वहीं लौट आती हैं। वे अपने दिन और रात का अधिकांश समय कृष्ण की सेवा और उनकी प्रसन्नता में बिताती हैं। उनकी भक्ति में तन, मन, और जीवन को अर्पित करने की भावना स्पष्ट है। मीरा अपने प्रियतम के बिना एक क्षण भी नहीं रह सकती और उनके प्रति असीम समर्पण प्रकट करती हैं।

विशिष्टता: यह पद समर्पण की उच्चतम स्थिति को दर्शाता है। मीराबाई की भक्ति पुष्टिमार्गीय परंपरा के अनुसार है, जिसमें समर्पण की गहरी भावना व्यक्त की गई है। इसमें तन, मन, और धन से भक्ति की भावना का चरमोत्कर्ष देखा जा सकता है।

मैं तो अपने प्रियतम श्रीकृष्ण को नित्यप्रति देखा करूँगी | उन के दर्शनों के बिना किसी दिन भी नहीं रहती हूं। मेरे चिन्तन और स्मरण का विषय भी केवल श्रीकृष्ण ही हैं। उस श्यामवर्ण वाले श्रीकृष्ण का ध्यान ही धारण किये रहती हूं। श्रीकृष्ण जहां-जहां, भी धरती पर अपने चरणों को रखते हैं। बहां-वहां ही मैं अपना नृत्य करती हूं। मेरे प्रभु तो गिरथर नागर श्रीकृष्ण हैं मैं उनके साथ ही लताकुंजों में साथ-साथ फिरूँगी उनके साथ ही रहती हूं। उनसे पृथक्कभी नहीं रहूंगी।

शब्दार्थ:

  • सामरिया - सांवरा, श्याम रंग का
  • करां - करूँ
  • उमरण - चिन्तन
  • सुमरण - याद करना
  • धरां - धारण करूँ
  • निरत - नृत्य, नाच
  • लता - कुंजलता
  • गैला - साथ
  • फिराँ - फिरूँ

व्याख्या: इस पद में मीराबाई अपने कृष्ण के प्रति निरंतरता की भावना व्यक्त करती हैं। वे कहती हैं कि वे श्रीकृष्ण के दर्शन के बिना एक दिन भी नहीं रह सकतीं। उनका ध्यान और स्मरण केवल श्रीकृष्ण पर केंद्रित है। कृष्ण के चरणों की प्रत्येक दिशा में वे अपना नृत्य करती हैं। मीराबाई कृष्ण के साथ हर पल बिताने की इच्छा प्रकट करती हैं और उनके साथ ही रहना चाहती हैं। वे कृष्ण के साथ रहने के लिए सभी सुखों का परित्याग करने के लिए तैयार हैं।

विशिष्टता: इस पद में कोई विशेष अलंकार का प्रयोग नहीं है। मीरा की शैली में अनुप्रास और उपमा का प्रयोग सामान्य है और यह उनकी भक्ति भावना को दर्शाता है।

मैंने तो गोविंद (श्रीकृष्ण) को मोल ले लिया है। तू कहती है कि छिप कर मोल लिया है, परन्तु मैं कहती हूं कि मैंने सब के सामने प्रकट रूप से ढोल बजाकर (सबको सुना-दिखाकर) मोल लिया है। तुम कहती हो कि यह मोल लेना बहुत महंगा पड़ा है, पर मेरा कहना है कि मैंने सस्ते में ही ले लिया है क्योंकि तराजू में तोलकर ठीक ढंग से खरीदा है। मैं इस श्रीकृष्ण पर अपना शरीर और जीवन न्योछावर कर सकती हूं। मैं अमूल्य पदार्थ भी नोट इस पर न्योछावर कर सकती हूं। मीरा कहती है कि उसे भगवान्दर्शन दें क्योंकि उसके प्रति भगवान्का पूर्वजन्म का दिया हुआ बचन है कि प्रति जन्म में उसे (मीरा को) दर्शन देंगे।

विशिष्टता: इस पद में मीरा भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अपनी भक्ति और प्रेम को एक व्यापारिक दृष्टिकोण से भी प्रस्तुत करती हैं। वे कहती हैं कि उनका प्रेम भगवान के प्रति मूल्यवान है और वे इसे सभी को दिखाकर ही मोल लिया है। उनका यह प्रेम सभी भौतिक वस्तुओं से श्रेष्ठ है।

मैं श्रीकृष्ण के रंग में रंगी हुई हूं। उन में ही पूर्णरूप से अनुरक्त हूं। मैं पंच रंगा चोला पहनकर झिरमिट का खेल खेलने जाती हूं। तात्पर्य यहाँ यह है कि अपने पाँच तत्वों से बने कर्मानुसार प्राप्त इस शरीर से भगवान को प्राप्त करने के लिए माया से आथ्वृत होने के कारण एक खेल को खेल रही हूं। वास्तविकता मैं जानती हूं। इस झिरमिट के खेल में मुझे श्रीकृष्ण के, दर्शन प्राप्त हो गये उन्हें देखकर मैं शरीर और मन से उन पर अनुरक्त हो गयी। जिन नारियों का पति परदेश में रहता है। वे तो पत्र लिख लिखकर संदेश भेजती हैं; परन्तु मेरा प्रियतम तो मेरे हृदय में ही रहता है। इसलिए मैं कहीं आती-जाती नहीं, मुझे पत्र लिखने की आवश्यकता नहीं है। मीरा के स्वामी (प्रभु) तो गिरधर नागर श्रीकृष्ण हैं जिनके लिए वह दिन रात रास्ता देखती रहती हैं। प्रतीक्षा करती रहती है।

विशिष्टता: इस पद में मीरा ने "पंचरंग चोला" और "झिरमिट" जैसे प्रतीकों का प्रयोग किया है। ये प्रतीक निर्गुणी संतों के प्रभाव से उत्पन्न हैं और शरीर को चोला मानने की भक्ति परंपरा को दर्शाते हैं। मीरा की भक्ति में प्रेम और समर्पण की भावनाओं का प्रकट रूप है।

निष्कर्ष: मीरामुक्तावली में मीराबाई ने अपने कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम और समर्पण को व्यक्त किया है। उनके पद भक्तिपद्धति की उच्चतम अवस्था को दर्शाते हैं, जिसमें प्रेम, भक्ति, और समर्पण की गहरी भावनाएँ हैं। इन पदों के माध्यम से मीराबाई ने कृष्ण के प्रति अपनी असीम भक्ति और प्रेम को स्पष्ट रूप से प्रकट किया है।

विशिष्ट-इस पद में शाक्त जनों की संगति का विरोध

1. संदर्भ और विचारधारा:

इस पद में मीरा ने शाक्त जनों की पूजा पद्धतियों और उनके आचार-विचार का विरोध प्रकट किया है। मीरा की यह स्थिति उनके वैष्णव आदर्शों के कारण है, क्योंकि उन्होंने युद्धप्रिय वंश की महारानी होने के बावजूद शाक्त पूजा की कठोरता और बलि, मांस, मदिरा जैसी चीजों को स्वीकार नहीं किया। वे इसे अपने जीवन के अनुरूप नहीं मानतीं और इसीलिए शाक्तों पर कटु व्यंग्य करती हैं। इस व्यंग्य के माध्यम से तत्कालीन शाक्तों की निंदनीय स्थिति का भी संकेत मिलता है।

2. कबीर का दृष्टिकोण:

कबीर ने भी शाक्तों की पूजा पद्धतियों का विरोध किया। वे वैष्णव पूजा को अधिक पसंद करते थे और शाक्त पूजा के स्थानों से दूर रहते थे। कबीर का एक प्रसिद्ध पद इस भावना को स्पष्ट करता है:

  • चंदन की कुटकी भली ना बबूंर की अबराउं।
  • वैश्नों की छपरी भली, ना साक्त का बड़गाँउ।

3. वैष्णव और शाक्तों का विरोध:

वैष्णव भक्तों द्वारा शाक्त पूजा के आचार-विचार का विरोध एक पारंपरिक सामाजिक दृष्टिकोण था। मीरा ने भी इस परंपरा को अपनाया और शाक्तों की निंदा करते हुए वैष्णवों का पक्ष लिया।

मीरा के पद का विवरण

1. पद की व्याख्या:

  • "माई महा गोविन्द गुण गास्याँ "

मीरा ने भगवान श्री कृष्ण के गुणों का गान करने का निश्चय किया है। उन्होंने नियमपूर्वक प्रातःकाल भगवान के चरणों का अमृतजल लेने और दर्शन करने का संकल्प किया है। भगवान के मंदिर में नृत्य और कीर्तन भी कराती हैं और संसार रूपी सागर से पार जाने के लिए भक्ति का जहाज चलाने का इरादा करती हैं। इस संसार को झरबेरी के कांटों के समान मानते हुए, मीरा अपने प्रिय श्री कृष्ण के प्रति अडिग प्रेम और भक्ति प्रकट करती हैं।

2. शब्दार्थ और विशेषता:

  • "स्थाम गाम रो झाँझ चलास्याँ" - इसमें एक संस्करण में "स्याम नाम रो झाँझ चलास्याँ" भी मिलता है, जिसका अर्थ होता है कि श्री कृष्ण के नाम की झाँझ बजाकर संसार रूपी समुद्र से पार हो जाऊँगी। इस वाचन में दोनों अर्थों की रमणीयता रहती है।

3. भक्ति की विधियाँ:

पद में भागवत में वर्णित भक्ति विधियों जैसे श्रवण, कीर्तन, स्मरण, आदि का पालन किया गया है। मीरा का जीवन और व्रत इस बात का सुंदर उदाहरण हैं कि उन्होंने अपने जीवन की सभी सांसारिक वस्तुओं को त्याग कर पूर्ण भक्ति का मार्ग अपनाया।

4. भावाभिव्यक्ति और राग:

  • "नहिें भाव थाँरो देसलड़ी रंगरूड़ो "

इस पद में मीरा ने राणा के देश की सुंदरता और वहां के लोगों की भक्ति को अस्वीकार करते हुए अपनी भक्ति की शुद्धता को प्रमाणित किया है। उन्होंने सभी सांसारिक वस्त्र और आभूषण त्याग दिए हैं और भगवे वस्त्र पहनकर श्री कृष्ण के चरणों की शरण ली है।

5. संवेदनात्मक दृष्टिकोण:

  • "राणा जी म्हाने या बदनामी लगे मीठी "

मीरा अपनी बदनामी को भी मधुर मानती हैं और श्री कृष्ण के प्रति अपनी भक्ति को अनूठा बताती हैं। उन्होंने ज्ञान प्राप्त किया है और दुर्जनों की निंदा को भी परवाह नहीं की। उनका विश्वास है कि श्री कृष्ण के चरणों की शरण में रहकर वे किसी भी संसारिक बुराई से अछूती रह सकती हैं।

6. सामाजिक दृष्टिकोण:

  • "सीसोद्यो रूठ्यो तो म्हॉरो काँई कर लेसी "

मीरा ने राणा की नाराजगी की परवाह किए बिना अपने भक्ति मार्ग पर अडिग रहने की बात की है। राणा की नाराजगी से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उनका विश्वास भगवान श्री कृष्ण में है जो उन्हें हर संकट से उबारते हैं।

7. अलंकार:

पद में अधिक अलंकार का प्रयोग किया गया है। यहां सांसारिक सुख और भौतिक वस्त्रों का त्याग कर भगवान के चरणों की लघुता और महत्ता को स्वीकार किया गया है। मीरा ने राजसी सुखों को छोड़कर भगवद भक्ति का मार्ग अपनाया है, जो उनकी दृढ़ता और भक्ति का परिचायक है।

अभ्यास-प्र श्न

मीरा एवं कबीर के भक्ति रूपों की तुलना कीजिए

मीरा बाई और कबीर दास, दोनों ही भारतीय भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत थे, लेकिन उनके भक्ति रूप और उनके धार्मिक दृष्टिकोण में महत्वपूर्ण अंतर थे। यहाँ हम उनकी भक्ति रूपों की तुलना करेंगे:

1. भक्ति का स्वरूप और प्रेरणा:

  • मीरा बाई:
    • धार्मिक पृष्ठभूमि: मीरा बाई वैष्णव भक्ति परंपरा की अनुयायी थीं। उन्होंने विशेष रूप से श्री कृष्ण की भक्ति की और इसे अपने जीवन का केंद्रीय तत्व माना।
    • भक्ति का स्वरूप: मीरा की भक्ति में शृंगार रस प्रमुख था। उन्होंने अपने पदों में श्री कृष्ण को प्रेमिका के रूप में प्रस्तुत किया और उनके प्रति गहरा प्रेम और समर्पण व्यक्त किया।
    • प्रेरणा: मीरा की भक्ति परंपरागत शास्त्रीय और धार्मिक शिक्षा से प्रभावित थी, लेकिन उन्होंने अपने व्यक्तिगत अनुभव और प्रेम को प्रमुख स्थान दिया।
  • कबीर दास:
    • धार्मिक पृष्ठभूमि: कबीर का भक्ति मार्ग साधारणत: निर्गुण भक्ति पर आधारित था। वे तो किसी विशेष धार्मिक परंपरा के अनुयायी थे और ही उन्होंने किसी मूर्तिपूजा को महत्व दिया।
    • भक्ति का स्वरूप: कबीर की भक्ति सगुण और निर्गुण दोनों परंपराओं से प्रभावित थी। उन्होंने परमात्मा को एक निराकार शक्ति के रूप में प्रस्तुत किया और भक्ति को साधना और अनुशासन से जोड़ा।
    • प्रेरणा: कबीर की भक्ति सामाजिक सुधार और धर्म की वास्तविकता की खोज से प्रेरित थी। उन्होंने सामाजिक और धार्मिक पाखंड के खिलाफ खड़े होकर एक सच्चे भक्त की राह अपनाई।

2. भक्ति की सामाजिक और धार्मिक आलोचना:

  • मीरा बाई:
    • आलोचना: मीरा ने शाक्त परंपरा और उसके आचार-विचार की आलोचना की, खासकर बलि और मांसाहारी परंपराओं के खिलाफ। उन्होंने भक्ति और साधना की बात की, जिसे वे पाप और असत्य मानती थीं।
    • सामाजिक स्थिति: मीरा ने अपने राजसी जीवन को त्याग कर साधना की और अपने भक्ति को सामाजिक मान्यताओं के खिलाफ रखा। उन्होंने जनेऊ और आभूषण जैसे सांसारिक सुखों को त्याग दिया।
  • कबीर दास:
    • आलोचना: कबीर ने समाज की कई धार्मिक परंपराओं और जातिवाद की आलोचना की। उन्होंने मूर्तिपूजा, जाति व्यवस्था और धार्मिक पाखंड के खिलाफ आवाज उठाई।
    • सामाजिक स्थिति: कबीर ने आम जनजीवन को अपनाया और साधारण जीवन जीते हुए धार्मिक और सामाजिक सच्चाईयों को व्यक्त किया। उन्होंने जाति और धर्म की सीमाओं को नकारते हुए एक समानता की बात की।

3. भक्ति के माध्यम और शैली:

  • मीरा बाई:
    • भक्ति के माध्यम: मीरा ने पद और गीतों के माध्यम से अपनी भक्ति को व्यक्त किया। उनकी रचनाओं में प्रेम, समर्पण और शृंगार रस की अभिव्यक्ति प्रमुख थी।
    • शैली: मीरा की भक्ति में एक व्यक्तिगत और भावुक पहलू था। उनकी रचनाएं भावनात्मक गहराई और प्रेमपूर्ण संवेदनाओं से भरपूर थीं।
  • कबीर दास:
    • भक्ति के माध्यम: कबीर ने अपनी भक्ति को पदों, दोहों और कविताओं के माध्यम से व्यक्त किया। उनकी रचनाएँ सरल, सटीक और सामाजिक संदेश देने वाली थीं।
    • शैली: कबीर की भक्ति में एक साधारण और स्पष्टता की शैली थी। उन्होंने गहरे आध्यात्मिक और सामाजिक मुद्दों को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया।

निष्कर्ष:

मीरा बाई और कबीर दास दोनों ने भक्ति के माध्यम से समाज और धर्म की महत्वपूर्ण समस्याओं को उजागर किया, लेकिन उनके दृष्टिकोण और शैली में भिन्नता थी। मीरा बाई ने प्रेम और भक्ति को केंद्र में रखते हुए व्यक्तिगत और शृंगार रस की अभिव्यक्ति की, जबकि कबीर ने सामाजिक और धार्मिक पाखंड के खिलाफ संघर्ष करते हुए निर्गुण भक्ति और समानता की बात की। दोनों ही संतों ने अपने-अपने तरीके से भारतीय भक्ति परंपरा को समृद्ध किया।

'मीरा का काव्य उनकी सहज अनुभूतियों का उद्गार है।' स्पष्ट कीजिए

मीरा बाई का काव्य वास्तव में उनकी सहज अनुभूतियों का उद्गार है, और इसे स्पष्ट करने के लिए हमें उनके काव्य और उनकी जीवनशैली की गहराई से समीक्षा करनी होगी। यहाँ पर कुछ बिंदुओं में इस विचार को स्पष्ट किया जा सकता है:

1. व्यक्तिगत अनुभव और भावनाएँ:

  • सहज प्रेम: मीरा बाई का काव्य श्री कृष्ण के प्रति उनके व्यक्तिगत प्रेम और समर्पण को दर्शाता है। उनके पद और गीतों में कृष्ण के प्रति उनके गहरे प्रेम की अभिव्यक्ति अत्यंत सहज और प्राकृतिक है। यह प्रेम एक साधारण भावनात्मक अनुभूति से अधिक है, जो उनके व्यक्तिगत अनुभव और आत्मिक संबंध को दर्शाता है।
  • प्रेरणादायक भावनाएँ: मीरा का काव्य उनके भावनात्मक अनुभवों, जैसे प्रेम, विरह, और समर्पण, को सरल और सजीव तरीके से प्रस्तुत करता है। उनके पदों में इन भावनाओं की गहरी अनुभूति और सजीवता है, जो उनकी सहजता को दर्शाती है।

2. काव्य की सरलता और प्रवाह:

  • सहज भाषा: मीरा के पदों की भाषा सरल, स्पष्ट और सहज है। उन्होंने आम बोलचाल की भाषा में अपनी भावनाओं को व्यक्त किया, जिससे उनकी रचनाएँ जनसाधारण तक आसानी से पहुँच सकीं। यह सरलता उनकी सहज अनुभूतियों को व्यक्त करने में सहायक रही है।
  • प्राकृतिक अभिव्यक्ति: मीरा के काव्य में कोई कृत्रिमता या बौद्धिकता नहीं है। उनकी रचनाएँ एक स्वाभाविक प्रवाह और निःस्संकोचता से भरी हुई हैं, जो उनके वास्तविक भावनात्मक अनुभवों को दर्शाती हैं।

3. भावनात्मक सच्चाई:

  • व्यक्तिगत आस्था: मीरा की भक्ति किसी धार्मिक या सामाजिक अनुशासन से बंधी हुई नहीं थी। उनके काव्य में उनकी व्यक्तिगत आस्था और आत्मिक संबंध की सच्चाई झलकती है। उन्होंने श्री कृष्ण को अपने प्रेम का केंद्र मानते हुए उनके प्रति गहरी भक्ति व्यक्त की, जो उनकी सहज भावनाओं का संकेत है।
  • जीवन के संघर्ष: मीरा ने अपने जीवन में सामाजिक और पारिवारिक संघर्षों को भी सहज रूप में स्वीकार किया। उनके पदों में इन संघर्षों की सहज अभिव्यक्ति और उनके प्रति गहरी संवेदनशीलता प्रदर्शित होती है।

4. आध्यात्मिक अनुभव:

  • आध्यात्मिक सरलता: मीरा के काव्य में आध्यात्मिक अनुभव की सहजता और सरलता स्पष्ट है। उन्होंने श्री कृष्ण के साथ अपने अनुभवों को बहुत सहजता और स्नेहपूर्ण भावनाओं के साथ व्यक्त किया। उनके पदों में आध्यात्मिक गहराई है, लेकिन यह गहराई उनके सहज और स्वाभाविक अनुभवों से निकली है।
  • भक्ति का सहज प्रवाह: मीरा की भक्ति में एक सहज प्रवाह और आत्मिक तृप्ति है, जो उनकी वास्तविक भक्ति और प्रेम की गहराई को दर्शाती है। यह प्रवाह उनकी व्यक्तिगत अनुभूतियों का प्रतिफल है।

निष्कर्ष:

मीरा बाई का काव्य उनकी सहज अनुभूतियों का उद्गार है क्योंकि इसमें उनके व्यक्तिगत प्रेम, भावनात्मक अनुभव, और आध्यात्मिक आस्था की सहजता और स्वाभाविकता प्रकट होती है। उनके पद और गीत उनकी आत्मिक अनुभूतियों को सरल और सजीव तरीके से व्यक्त करते हैं, जो उनके काव्य को अनूठा और गहन बनाता है।

इकाई 10: मीरा का भक्त भावना

1. भक्ति और कविता का तालमेल:

मीरा बाई की रचनाएँ उनके जीवन और सिद्धांतों के तालमेल को दर्शाती हैं। भक्त कवि अपनी आस्था को कविता से अधिक महत्त्वपूर्ण मानते थे और इसीलिए उन्होंने अपने विचारों को, जीवन और जगत के प्रति अपनी प्रतिक्रिया को सीधे तौर पर अभिव्यक्त किया। मीरा की कविता भी इसी परंपरा में आती है। उन्होंने अपनी भक्ति और आस्था को कविता के माध्यम से व्यक्त किया, जो उनके जीवन के वास्तविक अनुभवों से जुड़ी हुई है।

2. मीरा की भक्ति भावना:

मीरा की कविता में अक्सर लोकलाज, कुल की मर्यादा और सामाजिक बंधनों को तोड़ने की बातें होती हैं। यह उनके समय की सामाजिक परिस्थितियों की ओर इशारा करती है। मीरा की भक्ति का मुख्य बिंदु उनका श्री कृष्ण के प्रति समर्पण था, लेकिन इस समर्पण की प्रक्रिया में उन्हें कई बाधाओं का सामना करना पड़ा। तुलसीदास और कबीर जैसे अन्य भक्त कवियों के विपरीत, मीरा ने अपनी कविता में समकालीन दुष्ट लोगों का उल्लेख किया है, जैसे कि राणा, जो उनके संघर्षों का हिस्सा थे।

3. मीरा का भक्ति रस:

मीरा ने अत्यधिक मात्रा में काव्य रचनाएँ नहीं कीं, लेकिन उन्होंने अपने भावनात्मक और आध्यात्मिक अनुभवों को पर्याप्त रूप से व्यक्त किया। उनके काव्य में श्री कृष्ण के बिना संसार की कड़वाहट और उनके प्रति प्रीति का विरोध स्पष्ट रूप से प्रकट होता है। श्री कृष्ण के बिना संसार का कड़ापन उनके लिए एक वास्तविकता है, जबकि कृष्ण की प्रीति उनकी भक्ति का वास्तविक और मीठा रूप है। मीरा की भक्ति में कड़वाहट और रसीलापन दोनों का मिश्रण है, जो यथार्थ की विषमताओं और विरोधाभासों को दर्शाता है।

4. मीरा का प्रियतम और जोगी:

मीरा की रचनाओं मेंजोगीशब्द का प्रयोग उनके परम प्रियतम कृष्ण के संदर्भ में किया गया है। यहजोगीउनकी साधना और भक्ति का प्रतीक है। मीरा के प्रेम और विरह की अभिव्यक्ति सामान्य परंपरा से भिन्न है। वे जोगी के वियोग में दुखी हैं और उसकी अनुपस्थिति को लेकर वे निराश हैं। उनके द्वारा व्यक्त किया गया विरह उनके प्रेम की गहराई को दर्शाता है और यह भी संकेत करता है कि यह प्रियतम केवल कृष्ण ही हो सकते हैं।

5. गिरधर नागर का रूप:

मीरा कागिरधर नागरका रूप उनके भावजगत और जीवन के संघर्षों का परिणाम है। यह रूप उनके जीवन के अनुभवों से निर्मित हुआ है और उनकी पीड़ा को स्वरूप प्रदान करता है। मीरा के लिएगिरधर गोपालउनका एकमात्र आश्रय है। उन्होंने अपने परिवार, मित्र और समाज को छोड़ दिया और साधुओं के साथ मिलकर लोकलाज को भी त्याग दिया। उनके भक्तों के साथ वे खुश रहती हैं, जबकि संसार की व्यावहारिकताओं से वे निराश रहती हैं।

6. मीरा का त्याग और समर्पण:

मीरा ने भाई-बंधुओं, सगे-संबंधियों और समाज के सभी बंधनों को छोड़ दिया। उन्होंने साधुओं के साथ बैठकर लोकलाज को त्याग दिया और केवल अपने प्रियतम श्री कृष्ण पर ध्यान केंद्रित किया। उनकी भक्ति में समर्पण की गहराई और उनके जीवन की विषमताओं को स्वीकार करने का साहस स्पष्ट है। मीरा के जीवन का मुख्य उद्देश्य श्री कृष्ण की भक्ति और प्रेम ही था, और उन्होंने इसके लिए हर प्रकार की कठिनाइयों को स्वीकार किया।

इस प्रकार, मीरा बाई की भक्ति भावना उनके जीवन और रचनाओं में गहराई से व्याप्त है। उनकी कविता में समाज के बंधनों को तोड़ने, कृष्ण के प्रति सच्चे प्रेम, और उनके जीवन के संघर्षों की सच्चाई स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।

अभ्यास-प्र श्न

मीराबाई किस भावना से कृष्ण भक्ति करती हैं? वर्णन करो।

मीराबाई की कृष्ण भक्ति की भावना:

1. असीम प्रेम और समर्पण: मीराबाई की कृष्ण भक्ति की भावना सबसे प्रमुख रूप से प्रेम और समर्पण की भावना से अभिव्यक्त होती है। उन्होंने कृष्ण को अपने जीवन का केंद्र मानते हुए उन्हें एक प्रेमी और पति के रूप में पूजा। उनकी भक्ति में कृष्ण के प्रति असीम प्रेम और समर्पण का भाव है, जो उनके काव्य और भक्ति गीतों में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। वे कृष्ण को अपना प्रियतम मानती हैं और उनसे गहरी आत्मीयता और आध्यात्मिक संबंध महसूस करती हैं।

2. सामाजिक बंधनों और विषमताओं का विरोध: मीराबाई की भक्ति में एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि उन्होंने सामाजिक बंधनों और विषमताओं को चुनौती दी। उनके समय में जाति, कुल, और समाज की मर्यादाओं के खिलाफ जाकर उन्होंने कृष्ण की भक्ति को प्राथमिकता दी। उन्होंने अपने परिवार, समाज और कुल के बंधनों को छोड़कर कृष्ण की भक्ति में पूर्ण रूप से समर्पित हो गईं। यह सामाजिक विरोध और उनकी आत्म-त्याग की भावना उनकी भक्ति को एक गहरी और प्रेरणादायक दिशा प्रदान करती है।

3. कृष्ण के बिना संसार का कड़ापन: मीराबाई की भक्ति में एक महत्वपूर्ण तत्व यह है कि उन्होंने संसार को कृष्ण के बिना कड़वा और अर्थहीन माना। वे मानती थीं कि केवल कृष्ण की भक्ति ही जीवन को सार्थक और मीठा बना सकती है। उनके काव्य में अक्सर कृष्ण के बिना संसार की विषमताओं और कड़वाहट का वर्णन मिलता है। कृष्ण के प्रति उनकी प्रीति और भक्ति ही उन्हें जीवन की कठिनाइयों और विषमताओं से पार पाने की शक्ति देती है।

4. विरह और प्रेम का अनुभव: मीराबाई की भक्ति में विरह और प्रेम का गहरा अनुभव होता है। वे कृष्ण के वियोग में दुखी और निराश रहती हैं, और इस विरह को उन्होंने अपनी भक्ति का एक अभिन्न हिस्सा मान लिया। उनका प्रेम और विरह दोनों ही उनके भक्ति गीतों में स्पष्ट रूप से प्रकट होते हैं। कृष्ण के प्रति उनके प्रेम और विछोह की भावना उनके भक्ति साहित्य की गहराई को दर्शाती है और यह भक्ति की एक विशेष शैली को प्रस्तुत करती है।

5. साधना और आत्म-परिवर्तन: मीराबाई की भक्ति में साधना और आत्म-परिवर्तन का भी महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने अपनी भक्ति को एक साधना का रूप दिया और अपने जीवन को कृष्ण की आराधना में समर्पित कर दिया। उनकी भक्ति केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक जीवन शैली और आत्मिक प्रक्रिया थी, जो उनके व्यक्तिगत अनुभव और आध्यात्मिक विकास से जुड़ी हुई थी।

6. भक्ति की रसीलापन और सत्यता: मीराबाई की कृष्ण भक्ति में भक्ति के रसीलेपन और सत्यता का भी महत्वपूर्ण स्थान है। वे कृष्ण की भक्ति को जीवन के सभी कटु अनुभवों और वास्तविकताओं से ऊपर मानती हैं। उनके काव्य और भक्ति गीतों में कृष्ण की प्रेमपूर्ण और अद्भुत छवि को प्रस्तुत किया गया है, जो उनके भक्ति के रसीले और सत्य अनुभव को दर्शाती है।

इस प्रकार, मीराबाई की कृष्ण भक्ति एक गहरी प्रेम, समर्पण, सामाजिक विरोध, और आत्मिक साधना की भावना से प्रेरित है। उनकी भक्ति की भावना में सामाजिक बंधनों का विरोध, कृष्ण के प्रति असीम प्रेम, और व्यक्तिगत आत्मिक अनुभव का अनूठा मेल देखने को मिलता है।

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मीरा के गिरधर नागर का संक्षिप्त परिचय दीजिए।

मीरा के "गिरधर नागर" का संक्षिप्त परिचय:

1. गिरधर नागर का अर्थ: "गिरधर नागर" एक उपनाम है जिसे मीरा बाई ने अपने प्रियतम कृष्ण के लिए उपयोग किया है। इसमें "गिरधर" का मतलब है 'गिरि' (पर्वत) को धारण करने वाला, जो कृष्ण के एक विशेष रूप का प्रतीक है, और "नागर" का अर्थ है 'निवासी' या 'धरने वाला', जो यह दर्शाता है कि कृष्ण उनके जीवन के केंद्र और निवास हैं।

2. गिरधर नागर का रूप: "गिरधर नागर" का रूप मीरा बाई के भक्ति साहित्य में एक दिव्य और प्यारा रूप है। इसे अक्सर कृष्ण की बालमूर्ति या उनके किशोर रूप के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। यह रूप भक्तों के लिए एक आदर्श और आत्मीयता का प्रतीक है। मीरा के साहित्य में यह रूप आमतौर पर भगवान कृष्ण की शीतलता, सौंदर्य और दिव्यता को दर्शाता है।

3. गिरधर नागर का स्थान: "गिरधर नागर" के रूप में कृष्ण की पूजा का मतलब है कि मीरा बाई ने कृष्ण को अपने व्यक्तिगत प्रियतम और पति के रूप में स्वीकार किया। इस नाम के माध्यम से उन्होंने कृष्ण को एक सशक्त और प्रेमपूर्ण आदर्श रूप में प्रस्तुत किया है, जो उनके व्यक्तिगत और आध्यात्मिक जीवन का केंद्र बिंदु है।

4. गिरधर नागर की भक्ति: मीरा बाई की भक्ति में "गिरधर नागर" की छवि एक गहरी और आत्मिक प्रेम की अभिव्यक्ति है। वे अपने भक्ति गीतों और कविताओं में गिरधर नागर को अपने जीवन के एकमात्र प्रेम और समर्थन के रूप में चित्रित करती हैं। यह भक्ति केवल व्यक्तिगत प्रेम बल्कि आध्यात्मिक समर्पण और पवित्रता की भी प्रतीक है।

5. गिरधर नागर का प्रभाव: मीरा बाई के "गिरधर नागर" का प्रभाव उनके भक्ति साहित्य में एक विशिष्ट स्थान पर है। यह रूप उनके जीवन के संघर्ष, समर्पण, और आध्यात्मिक यात्रा को एक सुंदर और गहरा दृष्टिकोण प्रदान करता है। यह भी दर्शाता है कि कृष्ण की भक्ति केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक जीवन शैली और व्यक्तिगत अनुभव है।

इस प्रकार, मीरा बाई के "गिरधर नागर" का परिचय उनकी भक्ति के गहरे भावनात्मक और आध्यात्मिक पहलुओं को दर्शाता है, जो उनके साहित्य और जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।

मीरा को श्याम के बिना जग खारा क्यों लगता है?

मीरा बाई के काव्य में "श्याम" (कृष्ण) के बिना जग का खारा लगने की भावना को समझने के लिए हमें उनकी भक्ति की प्रकृति और दृष्टिकोण को ध्यान में रखना होगा। यहाँ विस्तार से समझाया गया है कि मीरा को श्याम के बिना जग क्यों खारा लगता है:

1. श्याम के प्रति अनन्य प्रेम

मीरा बाई का श्याम (कृष्ण) के प्रति प्रेम अत्यंत गहरा और अनन्य था। वे कृष्ण को अपने जीवन का केंद्र मानती थीं और उनके बिना जीवन को अधूरा समझती थीं। कृष्ण के बिना संसार की हर चीज उनके लिए अर्थहीन और अनुपयुक्त प्रतीत होती थी। उनका प्रेम इतना सशक्त था कि वे कृष्ण के बिना हर चीज को निरर्थक मानती थीं।

2. संसार की अस्थिरता और अवास्तविकता

मीरा की भक्ति में, श्याम के बिना संसार की सारी चीजें अस्थिर और झूठी लगती हैं। उन्होंने संसार की वास्तविकता और स्थिरता की कमी को महसूस किया और पाया कि श्याम की अनुपस्थिति में यह सब कुछ अवास्तविक और खारा लगता है। वे श्याम की भक्ति को जीवन की सबसे महत्वपूर्ण और स्थायी चीज मानती थीं, इसलिए उनके बिना संसार की हर चीज खारी और नीरस लगती है।

3. भक्ति का रसीलापन

मीरा का भक्ति भाव रसीला और प्रेमपूर्ण था। उनके लिए कृष्ण की उपस्थिति ही उस रसीलेपन और आनंद का स्रोत थी। जब कृष्ण उनके जीवन में नहीं होते, तो वे भक्ति की रसीलापन और सुख का अनुभव नहीं कर पाती थीं। इस कारण, श्याम के बिना संसार की सारी चीजें उनके लिए खारी और बेरंग हो जाती हैं।

4. विरोधाभास और विषमता

मीरा बाई की कविता में संसार की विषमताओं और विरोधाभासों का वर्णन भी मिलता है। वे महसूस करती हैं कि श्याम के बिना जीवन की विषमताएं और विरोधाभास अधिक स्पष्ट और असहनीय हो जाते हैं। श्याम के बिना, संसार की कड़वाहट और कठिनाइयाँ उनके लिए और भी बढ़ जाती हैं, जिससे संसार खारा और निराशाजनक लगता है।

5. आध्यात्मिक निर्भरता

मीरा का आध्यात्मिक जीवन श्याम की उपस्थिति पर निर्भर था। उन्होंने अपने जीवन को कृष्ण की भक्ति में पूरी तरह से समर्पित कर दिया था। उनके लिए कृष्ण का आना और उनके साथ समय बिताना, आध्यात्मिक शांति और संतोष का स्रोत था। इसलिए, श्याम के बिना, संसार के सभी सुख और समृद्धि फीके और अर्थहीन लगते थे।

निष्कर्ष

मीरा बाई की भक्ति की गहराई और कृष्ण के प्रति उनका अद्वितीय प्रेम यह कारण बनाते हैं कि श्याम के बिना उन्हें संसार खारा लगता है। उनके लिए, श्याम का प्रेम और उपस्थिति ही जीवन की सच्चाई और आनंद का स्रोत थे। श्याम के बिना, उनका अनुभव जीवन की कठोरता और निराशा को और भी बढ़ा देता था, जिससे उन्हें संसार का स्वाद खारा और अधूरा लगता था।

इकाई 11: मीरा की शिल्पगत और भाषागत विशेषताएँ

इस इकाई का अध्ययन करने के बाद विद्यार्थी निम्नलिखित में सक्षम होंगे:

1.        मीरा की शिल्पगत विशेषताएँ जानना

2.        मीरा की भाषागत विशेषताएँ समझना

प्रस्तावना

मीरा की कविता की सबसे महत्वपूर्ण शिल्पगत विशेषता निरलंकृत होना है, जिसे आधुनिक आलोचनात्मक शब्दावली में 'सपाटबयानी' कहा जाता है। मीरा के काव्य में अलंकारों का प्रयोग सीमित और नाममात्र का ही है। उनका काव्य आमतौर पर सीधा और सपाट होता है, जो उनके असहायता, प्रेमी की दृढ़ता, और पुरुषप्रधान समाज की समस्याओं को सरल और स्पष्ट रूप में प्रस्तुत करता है। इस प्रकार की अभिव्यक्ति में हृदयवेधक सरलता होती है, जैसे कि उनकी पंक्ति: “अंसुबन जल सींच-सींच प्रेमबेलि बोई।

मीरा की कविता में सीधे कथन के माध्यम से उनकी व्यथा और निरीहता की भावनाओं की गहरी अभिव्यक्ति होती है। उनके पदों में विरह-व्याकुलता का वर्णन इस प्रकार किया गया है कि वे हृदय में छिपे नहीं रह सकते और विवश चीत्कार की तरह बाहर जाते हैं। इस तरह के सीधे-सपाट अभिव्यक्ति में अलंकारों का कोई स्थान नहीं होता।

उदाहरण के लिए:

  • हो जी! हरि कित गए नहे लगाया!”
  • छोड़ मत जाज्यो जी महाराज।

इन सरल पंक्तियों में काव्यकौशल की कमी हो सकती है, लेकिन ये पंक्तियाँ पाठकों को गहरी संवेदना प्रदान करती हैं, इसका कारण भारतीय पाठक की नारी की असहाय स्थिति से परिचितता है।

शिल्पगत विशेषताएँ

1.        निरलंकृत कविता: मीरा की कविता शिल्पगत चतुराइयों से परे है। उनकी कविता आत्म-निवेदन की सहज और स्फूर्त अभिव्यक्ति है। मीरा ने कविताई में शास्त्रीय ज्ञान का उपयोग नहीं किया; उनकी कविता के प्रमुख तत्व सत्यता और सरलता हैं।

2.        रस और छंद: मीरा की कविता में मुख्यतः श्रृंगार और शान्त रस का प्राधान्य है। उनका श्रृंगार प्रेमी के उद्दीपन-विभाव के लिए नहीं है। कृष्ण का रूप-सौंदर्य, कृष्ण से प्रणय और उनकी प्रतीक्षा ही उनकी कविता के मुख्य विषय हैं। मीरा ने पदवद्ध रचना की है, जिसमें गेयता और संगीत का सुंदर मिश्रण है। उनके पद 97 रागों में गाए जा सकते हैं और वे संगीत के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।

3.        अलंकार: मीरा की कविता में अलंकार कम मात्रा में होते हैं, क्योंकि वे अनुभूति की कवयित्री हैं। हालांकि, जहाँ अलंकार आए हैं, वे कविता को आभामय बना देते हैं। जैसे:

o    अंग खीण, व्याकुल भया मुख पिव पिव वाणी हो। ज्यूँ चातक घन कूँ रटे, मछरी ज्यूँ पाणी हो।

o    कुण्ड झलकाँ कपोल अलकाँ लहराई। मीनाँ तज सरवर ज्यों मकर मिलण थाई।

4.        भाषागत विशेषताएँ: मीरा की भाषा सरल और परिचित है, जो उनकी निरीहता को व्यक्त करने में सहायक है। उनकी पंक्तियाँ गद्यात्मक हैं और एक ठेठ गद्य की तरह निर्मित हैं। उनके काव्यकौशल का आधार उनके निरंतर काव्यास्वाद का सघन संस्कार है।

5.        ध्वनियोजना: मीरा की कविताओं में ध्वनियों की विशिष्टता है। उनकी पंक्तियाँ राजस्थानी ध्वनिप्रवृत्तियों के अनुकूल हैं, जिससे उनमें प्रवाह और स्मरणीयता बढ़ती है। उनके पदों में व्यंजन और स्वर दोनों की आवृत्ति होती है, जैसे:

o    मण थे परस हरि रे चरण। सुभग सीतल कंवल कोमल, जगत ज्वाला हरण।

मीरा की कविताओं की शिल्पगत और भाषागत विशेषताएँ उनकी सहजता, सरलता, और गहरी भावनात्मक अभिव्यक्ति को दर्शाती हैं। उनकी कविता में काव्यकौशल की बजाय आत्माभिव्यक्ति और संगीतात्मकता प्रमुख हैं।

अभ्यास-प्र श्न

'मीरा का काव्य भावों की सहज अभिव्यक्ति है।!

'मीरा का काव्य भावों की सहज अभिव्यक्ति है' इस विचार की विस्तृत व्याख्या:

सारांश:

मीरा की कविताएँ भावों की सहज और स्वाभाविक अभिव्यक्ति हैं। वे अपने भावनात्मक अनुभवों को अत्यंत सरल और सीधे तरीके से व्यक्त करती हैं, जिसमें किसी प्रकार की काव्य-चतुराई या अलंकरण की आवश्यकता नहीं होती। उनकी कविताएँ मुख्य रूप से निरलंकृत होती हैं और इनमें उनके आंतरिक अनुभवों की वास्तविकता प्रतिध्वनित होती है। मीरा की कविता की यह विशेषता उन्हें अन्य कवियों से अलग बनाती है।

विस्तार से:

1.        भावों की सहजता: मीरा की कविताएँ भावों की सहज अभिव्यक्ति की मिसाल हैं। उनके लेखन में भावनाएँ स्वाभाविक रूप से उभरती हैं, बिना किसी कृत्रिमता या अलंकरण के। उनका उद्देश्य अपने आंतरिक अनुभवों को सीधे और सरल भाषा में व्यक्त करना है, जिससे पाठक या श्रोता उनकी भावनाओं को गहराई से महसूस कर सके।

2.        निरलंकृत शैली: मीरा की कविताओं की एक प्रमुख विशेषता उनकी निरलंकृत शैली है। निरलंकृत काव्य का अर्थ है कि कविता में अलंकारों का प्रयोग नगण्य या बहुत सीमित होता है। मीरा की कविता में भी अलंकारों का प्रयोग केवल नाममात्र के लिए होता है, जबकि उनका मुख्य ध्यान सीधे भावनात्मक अभिव्यक्ति पर होता है। इस प्रकार की निरलंकृत शैली उनकी कविताओं को अधिक प्रभावशाली बनाती है, क्योंकि इसमें भावनाओं की सच्चाई और तीव्रता साफ नजर आती है।

3.        सीधी-सपाट अभिव्यक्ति: मीरा की कविता में पंक्तियाँ अक्सर सीधी और सपाट होती हैं। यह सीधेपन उनकी कविता को अत्यंत प्रभावशाली बनाता है। उदाहरण के लिए, उनके पदों में विरह-व्याकुलता की अभिव्यक्ति इतनी स्पष्ट होती है कि जैसे वह शब्दों के माध्यम से बाहर निकल कर सीधे हृदय तक पहुंच रही हो। उनकी पंक्तियाँ सच्चे अनुभवों की गहराई को दर्शाती हैं, जिससे पाठक या श्रोता के साथ गहरा भावनात्मक संबंध स्थापित होता है।

4.        व्यक्तिगत अनुभव और विश्वसनीयता: मीरा की कविता में उनकी व्यक्तिगत भावना और अनुभव की प्रामाणिकता विशेष महत्व रखती है। भारतीय पाठक और श्रोताओं के लिए, मीरा की कविताएँ उनके जीवन की वास्तविकता और उनकी असहाय स्थिति को दर्शाती हैं। इस कारण, उनकी कविता का प्रभाव बढ़ जाता है। उनकी कविताएँ केवल उनकी आत्माभिव्यक्ति हैं, बल्कि वे उन भावनाओं का भी प्रतिनिधित्व करती हैं जो व्यापक भारतीय समाज के अनुभवों से जुड़ी हुई हैं।

5.        शब्दावली और भाषा: मीरा की कविता की शब्दावली सरल और परिचित होती है। उनकी भाषा जनबोली की तरह होती है, जो गद्यात्मक और प्रवाहपूर्ण होती है। यह सरलता उनकी कविताओं को सहज और प्रभावशाली बनाती है। उनका काव्य कौशल आंशिक रूप से उनकी सहजता और निरंतर काव्यास्वाद के परिणामस्वरूप प्राप्त होता है।

6.        ध्वनियोजना: मीरा की कविताओं का सौंदर्य उनकी विशिष्ट ध्वनियोजना में भी छिपा होता है। उनकी पंक्तियाँ राजस्थानी ध्वनि प्रवृत्तियों के अनुकूल होती हैं, जिससे उनमें प्रवाह और स्मरणीयता बढ़ जाती है। उनके पदों में ध्वनियों का आवर्तन और अनुप्रास भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जो उनके काव्य को एक अद्वितीय स्वरूप प्रदान करते हैं।

निष्कर्ष:

मीरा की कविता भावों की सहज अभिव्यक्ति का एक आदर्श उदाहरण है। उनकी निरलंकृत शैली, सीधी पंक्तियाँ, और व्यक्तिगत अनुभव की प्रामाणिकता उनकी कविताओं को विशेष और प्रभावशाली बनाती हैं। उनकी कविताएँ केवल उनकी व्यक्तिगत भावनाओं को व्यक्त करती हैं, बल्कि वे उन भावनाओं को भी उजागर करती हैं जो व्यापक रूप से मानव अनुभव से जुड़ी होती हैं।

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'मीरा की कविता राजस्थानी ध्वनिप्रवृतियों के अनुकूल हैउदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए

मीरा की कविता और राजस्थानी ध्वनिप्रवृत्तियाँ

मीरा की कविता की ध्वनियोजना उनकी विशिष्ट ध्वनिप्रवृत्तियों के साथ पूरी तरह मेल खाती है। राजस्थानी भाषा और लोकधुनों का प्रभाव उनकी कविता में गहराई से महसूस किया जा सकता है। यहाँ कुछ उदाहरणों के माध्यम से इस ध्वनिप्रवृत्ति को स्पष्ट किया गया है:

1. उदाहरण: “पधारो म्हारे देस

पधारो म्हारे देस,

कन्हैया जी लव तुम

हम तो बुलाए हैं,

बांधो बिवाड़ा!

स्पष्टीकरण: यह पंक्ति मीरा की कविता में राजस्थानी लोकधुन और ध्वनिप्रवृत्तियों का आदर्श उदाहरण है।पधारो म्हारे देस” (मेरे देश में आइए) एक प्रकार की आमंत्रण की भावना को व्यक्त करती है। यह राजस्थानी लोकगीतों का हिस्सा है जहाँ ग्रामीण जन अपनी संस्कृति और परंपराओं के अनुसार अतिथियों का स्वागत करते हैं। इसमें प्रयुक्त भाषा और शैली भी स्थानीय ध्वनि का संकेत देती है, जैसे "बांधो बिवाड़ा" जो स्थानीय आचार-व्यवहार की ओर संकेत करता है।

2. उदाहरण: “मेरा तो सारा जग ही कन्हैया है

मेरा तो सारा जग ही कन्हैया है,

देस परदेश बिन तातै के।

स्पष्टीकरण: इस पंक्ति मेंसारा जगऔरदेस परदेशजैसे शब्द और ध्वनि प्रवृत्तियाँ राजस्थानी लोकगीतों की परंपरा को दर्शाती हैं।सारा जग ही कन्हैया हैमें "कन्हैया" शब्द का प्रयोग ब्रजभूमि के साथ जुड़ा हुआ है, जो राजस्थानी ध्वनि की भी झलक प्रस्तुत करता है। मीरा की कविता में ऐसे शब्द और मुहावरे स्थानीय ध्वनियों और सांस्कृतिक भावनाओं को उजागर करते हैं।

3. उदाहरण: “धन्यवाद म्हारो हरि रा

धन्यवाद म्हारो हरि रा,

कृपा करो साईं साईं।

स्पष्टीकरण: "धन्यवाद म्हारो हरि रा" मेंम्हारोऔरसाईंशब्द राजस्थानी भाषा की ध्वनियों को व्यक्त करते हैं। इस प्रकार के शब्द और वाक्यांश स्थानीय ध्वनि की पहचान को दर्शाते हैं और कविता को एक विशेष क्षेत्रीय पहचान देते हैं।

4. उदाहरण: “मै तो भई रानी मिरा

मै तो भई रानी मिरा,

आवो संग मोल,

राज धरने हरि आए।

स्पष्टीकरण: इस पंक्ति मेंभई रानी मिराजैसे शब्द औरराज धरनेराजस्थानी समाज की सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना को दर्शाते हैं। इन शब्दों में स्थानीय उच्चारण और सांस्कृतिक संदर्भ स्पष्ट रूप से प्रकट होते हैं। यह ध्वनिप्रवृत्ति मीरा की कविताओं को एक स्थानीय रंग देती है।

निष्कर्ष:

मीरा की कविताओं में राजस्थानी ध्वनिप्रवृत्तियों का गहरा प्रभाव है। उनके काव्य में प्रयुक्त भाषा, शब्दावली, और उच्चारण स्थानीय लोकधुन और सांस्कृतिक परंपराओं से जुड़ी होती हैं। इस प्रकार, उनकी कविताएँ केवल भावनात्मक अभिव्यक्ति ही नहीं, बल्कि राजस्थानी सांस्कृतिक और ध्वनि की भी अभिव्यक्ति होती हैं।

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मीरा के काव्य की शिल्पगत विशेषताएँ का वर्णन करें।

मीरा के काव्य की शिल्पगत विशेषताएँ उनकी कविताओं की सौंदर्यता और प्रभावशीलता को दर्शाती हैं। उनकी रचनाएँ प्रायः भावुकता, भक्तिरस और धार्मिकता से परिपूर्ण होती हैं। मीरा के काव्य की शिल्पगत विशेषताओं का वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है:

1. रचनात्मक और भावनात्मक अभिव्यक्ति

मीरा की कविताएँ मुख्यतः उनकी भक्ति और प्रेम भावनाओं की अभिव्यक्ति हैं। वे अपनी कविताओं में भगवान श्री कृष्ण के प्रति अपने गहरे प्रेम और भक्ति को व्यक्त करती हैं। इन कविताओं में भावनाओं का तीव्र और सूक्ष्म वर्णन होता है, जो पाठक को उनके व्यक्तिगत और आध्यात्मिक अनुभव से जोड़ता है।

2. लोकधुनों और भजन की शैलियाँ

मीरा के काव्य में लोकधुनों और भजन की शैलियाँ प्रमुख हैं। उनकी कविताएँ अक्सर लोकगीतों की धुनों पर आधारित होती हैं, जो उन्हें साधारण और लोकप्रिय बनाती हैं। इसमें उनकी कविता की लयबद्धता और संगीतात्मकता को ध्यान में रखते हुए लिखा गया है।

3. सरल और सहज भाषा

मीरा की कविताओं में भाषा सरल और सहज होती है, जिससे उनके भाव और विचार आसानी से समझे जा सकते हैं। वे राजस्थानी और हिंदी के लोकभाषा का प्रयोग करती हैं, जिससे उनकी कविताएँ जनसाधारण में आसानी से प्रचलित हो सकें।

4. छंद और राग

मीरा की कविताओं में विभिन्न छंदों और रागों का प्रयोग किया गया है। उनकी कविताओं में काव्य छंदों की विविधता देखने को मिलती है, जैसे की "पद" और "भजन" छंद। ये छंद उनकी कविताओं को एक विशिष्ट लय और गहराई प्रदान करते हैं।

5. चित्रण और अलंकरण

मीरा की कविताओं में चित्रण और अलंकरण का भी विशेष महत्व है। वे अपनी कविताओं में दृश्यात्मक और संवेदनात्मक चित्रण करती हैं, जैसे कि कृष्ण के प्रेम में रंग-बिरंगे चित्रों की कल्पना। इस प्रकार, वे कविता को एक चित्रात्मक रूप देती हैं, जो पाठक की कल्पना को उत्तेजित करता है।

6. रूपक और उपमा

मीरा के काव्य में रूपक और उपमा का प्रयोग भी देखा जाता है। वे अपने कविताओं में भावनाओं और विचारों को प्रकट करने के लिए विभिन्न उपमाओं और रूपकों का उपयोग करती हैं, जिससे उनकी कविताएँ अधिक प्रभावशाली और अर्थपूर्ण बन जाती हैं। उदाहरण के लिए, वे कृष्ण को अपने प्रियतम के रूप में चित्रित करती हैं, जिससे प्रेम और भक्ति की गहराई प्रकट होती है।

7. प्रकृति और सांस्कृतिक प्रतीक

मीरा की कविताओं में प्रकृति और सांस्कृतिक प्रतीकों का भी प्रयोग होता है। वे प्रकृति के विभिन्न तत्वों जैसे फूल, चाँद, और बादल का उपयोग भावनात्मक और आध्यात्मिक अनुभवों को व्यक्त करने के लिए करती हैं। इसके अलावा, वे सांस्कृतिक प्रतीकों का भी उपयोग करती हैं, जो उनके समय और स्थान की संस्कृति से जुड़े होते हैं।

8. नारीवादी दृष्टिकोण

मीरा की कविताएँ नारीवादी दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने अपनी कविताओं में नारी के स्वाभिमान और आत्म-निर्भरता को प्रकट किया है, और पारंपरिक सामाजिक मान्यताओं के खिलाफ अपनी आवाज उठाई है।

निष्कर्ष

मीरा के काव्य की शिल्पगत विशेषताएँ उनकी रचनाओं को अद्वितीय और प्रभावशाली बनाती हैं। उनकी सरल भाषा, लोकधुनों का प्रयोग, भावनात्मक चित्रण, और सांस्कृतिक प्रतीक उनकी कविताओं को एक विशिष्ट सांस्कृतिक और साहित्यिक मूल्य प्रदान करते हैं। उनकी कविताएँ केवल धार्मिक भक्ति की अभिव्यक्ति हैं, बल्कि मानव भावनाओं की गहराई और विविधता को भी दर्शाती हैं।

इकाई 12: मारा मुक्तावला: भाव पक्ष एवं कला पक्ष

प्रस्तावना:

आत्मलीन कवि की भावनाओं का प्रकटीकरण उस समय होता है जब उनके हृदय की संवेदनाएँ अत्यंत गहन होती हैं। इस दशा में, कवि की वाणी अक्सर मौन हो जाती है और भावनाओं का स्वरूप शब्दों के रूप में व्यक्त होने की कोशिश की जाती है। इस प्रक्रिया को 'शब्द-योग' कहा जा सकता है। कवि की घनीभूत अनुभूति और तीव्र मनोवेग उस समय उसे आत्मलीन कर देते हैं, जिससे वह अपनी भावनाओं को शब्दों के माध्यम से व्यक्त करने के लिए प्रेरित होता है। मीरा के काव्य में भाव-पक्ष का प्रधान स्थान है, जिससे पांडित्य का अभाव देखने को मिलता है। उनका काव्य हार्दिक भावनाओं का सहज प्रकाशन है।

मीरा के काव्य का भाव-पक्ष

1.        आत्मानुभूति:

o    कवि की आत्मानुभूति किसी विशिष्ट क्षण या परिस्थिति से जागृत होती है, जो कवि के संवेदनशील हृदय का गुण है। इस आत्मानुभूति से कवि की भावनाएँ तरंगित होती हैं और यह काव्य का सूक्ष्म प्राण बन जाती है।

2.        भावजागृति:

o    आत्मानुभूति से कवि के प्राणों में स्पन्दन होता है, जिससे भावोर्मियाँ जागृत होती हैं और कवि की भावुकता को बल मिलता है। यह अनुभूति कल्पनाशक्ति द्वारा और भी बलवती हो जाती है, जिससे कवि भाव-लोक में विचरण करने लगता है।

3.        भावदशा की चरम परिणति:

o    मनोवेगों के उद्धेलन से जागृत भाव कवि को भाव दशा में ले जाते हैं, जहाँ वह भावविभोर और आत्मलीन हो जाता है।

4.        भानानुरूप शब्दों की योजना:

o    भाव-जगत की प्रक्रियाएँ अंतर्मन के विभिन्न स्तरों का प्रकाशन करती हैं। भाव-योग से शब्द-योग का समन्वय काव्य की अमूर्त भावना को मूर्त रूप में व्यक्त करता है। इस दशा में, शब्द भावों का अनुसरण करते हैं और गीत काव्य में संगीतात्मक गुण स्वतः जाते हैं।

5.        भाव-दशा का उतार-चढ़ाव:

o    काव्य में भाव-प्रवाह हमेशा समतल नहीं होता। वह एक सूक्ष्म केन्द्र से उठकर कवि की सम्पूर्ण चेतना पर छा जाता है और भावोर्मियाँ मनोवेगों को उठाती और बढ़ाती हैं।

6.        अनुभूति की संतुलित पूर्णाभिव्यक्ति पर गीत का अंत:

o    जब भाव शब्द, अर्थ, छन्द, स्वर, ताल, लय आदि गुणों के साथ पूर्णतः अभिव्यक्त हो जाते हैं, तब गीत का अंत होता है।

मीरा के प्रत्येक पद में गीति-सृष्टि की ये प्रक्रियाएं पाई जाती हैं, अतः मीरा का कोई भी पद इन कसौटियों पर कसा जा सकता है।

मीरा के काव्य का मूलभूत भाव-तत्व और विश्लेषण

मीरा के काव्य में प्रेम और भक्ति के तत्व प्रमुख हैं। उनके काव्य को दो रूपों में विभक्त किया जा सकता है:

1.        प्रेम-प्रधान गीतिकाव्य:

o    प्रेम की व्यापकता ने मीरा के प्रेम-प्रधान गीति-काव्य को अलौकिक कृष्ण प्रेम तक फैला दिया है। इसमें संयोग और वियोग दोनों पक्षों का वर्णन मिलता है, लेकिन वियोग पक्ष अधिक प्रबल है।

2.        भक्ति-परक गीति काव्य:

o    मीरा का काव्य भक्ति और ईश्वरीय प्रेम पर आधारित है। इसमें भक्त के दैन्य, प्रभु-शरणागति, और उद्धार के लिए प्रार्थनाएँ पाई जाती हैं। मीरा की भक्ति कृष्ण के प्रति माधुर्य भाव से प्रेरित है।

मीरा के काव्य का कला पक्ष

1.        रसात्मकता और श्रृंगार:

o    मीरा के काव्य में रसात्मकता की गहराई है, जिसमें भक्तिभाव और शुद्ध श्रृंगार दोनों तत्व पाये जाते हैं। वियोग श्रृंगार के दशाओं का भी सजीव चित्रण किया गया है।

2.        अलंकार:

o    मीरा के पदों में उपमा और रूपक अलंकार का प्रयोग मिलता है। उन्होंने असंगति और विरोधाभास जैसे अलंकारों का भी उपयोग किया है।

3.        भाषा-शैली:

o    मीरा के पदों में राजस्थानी और ब्रजभाषा का प्रयोग प्रमुख है, साथ ही गुजराती, बांग्ला, पंजाबी, और फारसी शब्द भी शामिल हैं। इन भाषाओं की मिश्रित शैली ने पदों को विशेष गेयात्मकता प्रदान की है।

सारांश

मीरा प्रेममक्ति की उपासिका थीं, और उनके काव्य में प्रेम और भक्ति के तत्व सर्वोपरि हैं। उनके काव्य को प्रेम-प्रधान और भक्ति-परक गीति काव्य के रूप में विभक्त किया जा सकता है। मीरा के काव्य में प्रेम के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का अभिव्यंजन मिलता है, और कला पक्ष में रसात्मकता, श्रृंगार, और अलंकार की विशेषताएँ पाई जाती हैं।

स्व-मूल्यांकन:

1.        मीरा के काव्य-पदों में गीति-सृष्टि की प्रमुख प्रक्रियाएं पाई जाती हैं।

2.        प्रेम-भाव के दो पक्ष होते हैं - संयोग पक्ष और वियोग पक्ष।

3.        मीरा का काव्य मुख्यतः अभिधाप्रधान है।

4.        मीरा सगुणोपासिका कृष्ण-भक्तिन हैं और कृष्ण को पति रूप में मानती हैं।

 

अभ्यास-प्र श्न

"मीरा ने अपने काव्य में अपमा और रूपक अलंकार का बहुधा प्रयोग किया है।' उदाहरण सहित स्पष्ट करें।

मीरा बाई की कविताओं में अपमा (अनलाइकनेस) और रूपक (मेटाफर) अलंकारों का उपयोग उनकी भावनाओं और विचारों को सशक्त और प्रभावशाली बनाने के लिए किया गया है।

1. अपमा (अनलाइकनेस): अपमा अलंकार का प्रयोग तब किया जाता है जब किसी वस्तु या व्यक्ति की तुलना किसी अन्य वस्तु या व्यक्ति से की जाती है, जिसमें तुलना की जाती है और साथ ही गुणों में भिन्नता भी होती है।

उदाहरण: मीरा की एक कविता में लिखा है: "मोर मुकुट लगे, मीरा की काया पे।"

यहाँ मोर के मुकुट की तुलना मीरा की काया से की गई है, यह दर्शाता है कि मीरा की सुंदरता और दिव्यता मोर के मुकुट से भी अधिक है।

2. रूपक (मेटाफर): रूपक अलंकार का उपयोग तब किया जाता है जब किसी वस्तु या व्यक्ति के गुणों को किसी अन्य वस्तु या व्यक्ति के गुणों से सीधे तुलना की जाती है, बिना "जैसे" या "की तरह" शब्दों का उपयोग किए बिना।

उदाहरण: मीरा की कविता में लिखा है: "प्यारा पिया, पिया मोरा, सब जग कीनाथ।"

यहाँ "प्यारा पिया" के रूप में भगवान कृष्ण की उपमा दी गई है। "पिया" शब्द सीधे भगवान कृष्ण की पहचान को दर्शाता है, बिना किसी वास्तविक तुलना के।

इन अलंकारों के माध्यम से मीरा बाई ने अपने भावनात्मक अनुभवों और आध्यात्मिक समर्पण को गहराई से प्रस्तुत किया है।

मीरा का काव्य प्रेम-प्रधान गीति-काव्य है। विवेचन करें।

मीरा बाई का काव्य प्रेम-प्रधान गीति-काव्य है, जिसमें उनके प्रेम और भक्ति की गहराई और उत्कृष्टता को अभिव्यक्त किया गया है। मीरा का काव्य उनके आध्यात्मिक प्रेम, भक्तिरस, और संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का एक अद्वितीय रूप है। निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से इस विषय पर विवेचन किया जा सकता है:

1. भक्ति और प्रेम की अभिव्यक्ति:

मीरा बाई का काव्य मुख्य रूप से भगवान कृष्ण के प्रति उनकी गहरी भक्ति और प्रेम को व्यक्त करता है। उनके गीतों में कृष्ण के प्रति उनकी अत्यधिक समर्पण और प्रेम को सुंदर और भावुक ढंग से व्यक्त किया गया है। वे कृष्ण को अपने जीवन के केंद्र में मानती हैं और उनकी पूजा में अपने पूरे अस्तित्व को समर्पित करती हैं।

उदाहरण: "मैं तो तोरे रंग रचाए, पिया मोरा, रंग रंगाई।"

यहाँ मीरा अपने प्रेम को एक रंग के रूप में प्रस्तुत करती हैं, जो कृष्ण के प्रति उनके गहरे प्रेम को दर्शाता है।

2. प्रेम का तात्त्विक स्वरूप:

मीरा का प्रेम केवल शारीरिक या भौतिक प्रेम नहीं है, बल्कि यह एक गहन और दिव्य प्रेम है। उनके काव्य में प्रेम और भक्ति का तात्त्विक स्वरूप दर्शाया गया है, जिसमें प्रेम को एक साधना और ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

उदाहरण: "गोपियाँ गाकर गाए, सब रस मणि लाए।"

यहाँ मीरा कृष्ण की दिव्यता और उनके प्रेम के रस को दर्शाते हुए गोपियों की स्तुति करती हैं।

3. साधारण जीवन और प्रेम की एकता:

मीरा का काव्य साधारण जीवन की बातों को ईश्वर के प्रेम के साथ जोड़ता है। उनके गीतों में सामान्य जीवन की कठिनाइयाँ और सामाजिक बाधाएँ कृष्ण के प्रेम के लिए एक रास्ता बन जाती हैं। मीरा ने अपने जीवन की परेशानियों और सामाजिक समस्याओं को कृष्ण के प्रति अपनी भक्ति के माध्यम से अभिव्यक्त किया।

उदाहरण: "माता पिता की बात मानूंगी, पिया के संग ही जाऊंगी।"

यहाँ मीरा अपने पारंपरिक सामाजिक बंधनों से मुक्त होकर कृष्ण के प्रेम में पूर्ण रूप से समर्पित हो जाती हैं।

4. रूपक और प्रतीकवाद:

मीरा के काव्य में प्रेम के प्रतीकात्मक और रूपक प्रयोग से उनके भावनात्मक गहराई को दर्शाया गया है। वे अपने गीतों में प्रेम के प्रतीक के रूप में कृष्ण को प्रस्तुत करती हैं, जिससे उनका प्रेम एक आध्यात्मिक और दिव्य रूप ले लेता है।

उदाहरण: "कृष्णा के चरणों की धूल, मीरा का मन चहकता।"

यहाँ कृष्ण के चरणों की धूल के माध्यम से मीरा ने प्रेम के उच्चतम स्तर को दर्शाया है।

5. संवेदनात्मकता और सहजता:

मीरा का काव्य अपनी सहजता और संवेदनात्मकता के लिए जाना जाता है। उनकी कविताओं में प्रेम की गहराई और सरलता एक अद्वितीय आकर्षण पैदा करती है। उनके गीतों में भावनाओं की प्रामाणिकता और गहराई स्पष्ट होती है।

उदाहरण: "रात गवाई सोरठी, दिन लवले सोर।"

यहाँ मीरा की प्रेम की भावनाएँ रात और दिन के माध्यम से सरल और स्वाभाविक ढंग से व्यक्त की गई हैं।

निष्कर्ष:

मीरा बाई का काव्य प्रेम-प्रधान गीति-काव्य है, जिसमें उनके प्रेम और भक्ति की गहराई, साधारण जीवन की एकता, और प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति प्रमुख रूप से दर्शायी जाती है। उनकी कविताएँ केवल भक्ति का माध्यम नहीं हैं, बल्कि एक गहन और दिव्य प्रेम की अभिव्यक्ति भी हैं जो भक्ति और प्रेम के आदर्श रूप को प्रस्तुत करती हैं।

इकाई 13: मारा मुक्तावला: भाषा-शैला

प्रस्तावना

मीरा बाई का काव्य तीव्र भावानुभूति और भावमय अभिव्यक्ति का अद्वितीय उदाहरण है। उनके काव्य में भाषा या अलंकारों को सजाने-संवारने का कोई विशेष प्रयास नहीं देखा जाता। मीरा का प्रमुख उद्देश्य भावानुभूति को व्यक्त करना था, और यही कारण है कि उनकी अभिव्यक्ति सशक्त और प्रभावी बन गई। उनके काव्य में स्वाभाविक रूप से कुछ अलंकार जैसे रूपक, उत्प्रक्षा और उपमा का प्रयोग हुआ है, लेकिन अलंकारों की योजना स्वाभाविक और सहज रूप से प्रकट हुई है।

मीरा के काव्य में अलंकार योजना

1.        रूपक और सांगरूपक: मीरा की पंक्तियाँ रूपक से अलंकृत हैं, जिनमें 'मूर्त-अमूर्त' की योजना बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत की गई है।

o    उदाहरण:

§  "दीपक जोऊं ज्ञान का चढ़ूँ अगम अटारी हो, 'सील संतोष की कंसर घोली प्रेम-प्रीत पिचकारी रे।"

§  "प्रेम भटी को मैं मद पीयो छकी फिसूँ दिनराती।"

o    यहाँ 'दीपक' और 'प्रेम भटी' रूपक के रूप में उपयोग किए गए हैं, जो ज्ञान और प्रेम के प्रतीक हैं।

2.        उत्प्रक्षा और उपमा:

o    उत्प्रक्षा: मीरा के काव्य में उत्प्रक्षा का प्रयोग विशेष रूप से देखा गया है।

§  उदाहरण:

§  "कुडल झलकां कपोल अलकाँ लहराई। मीन तज सरवर ज्याूँ मकर मिलण आई॥"

o    उपमा: उपमा का प्रयोग भी उनके काव्य में मिलता है।

§  उदाहरण:

§  "अंग खीन व्याकुल भया मुख पिव पिब बाणी हो। ज्यों चातक घन कौर रटै, मछरी बिन पानी हो!"

§  "हरि बिन मथुरा ऐसी लागै शशि बिनु रैन अँधेरी।"

3.        अतिशयोक्ति और विरोधाभास:

o    मीरा ने बहुत अधिक अतिशयोक्ति का प्रयोग नहीं किया, लेकिन कुछ विरह-वर्णन में पारंपरिक अतिशयोक्ति का प्रयोग किया है।

§  उदाहरण:

§  "गिणतां गिणतां घिस गईं म्हारी आंगलियां री रेख"

§  "छप्पन कोटि जणा पथ्ार्याँ दूल्हो श्री बजनाथ!"

o    विरोधाभास का प्रयोग स्वाभाविक रूप से कहीं-कहीं देखने को मिलता है।

§  उदाहरण:

§  "बिन करताल पखावज बाजै अनहद की झनकार रे।"

मीरा के काव्य में भाषा का प्रभाव

1.        भाषा की सरलता और स्पष्टता:

o    मीरा ने अपने काव्य में भाषा की सुंदरता और शब्दों की विशेषता पर अधिक ध्यान नहीं दिया। उनकी भाषा स्वाभाविक और सरल है।

o    अनुप्रास और नाद-सौंदर्य की छटा अन्य ब्रज कवियों की तरह उनके काव्य में नहीं है।

2.        लाक्षणिक प्रयोग और मुहावरे:

o    मीरा के काव्य में लाक्षणिक प्रयोग और मुहावरों का स्वाभाविक समावेश है।

§  उदाहरण:

§  "बाट जोवां", "हाथ बिकाणी", "रंग राँचा", "करेजो खाय"

o    लोकोक्तियों का प्रयोग भी अपेक्षाकृत कम है।

3.        प्रतीक और विशेषताएँ:

o    मीरा ने नाथ-संत परंपरा से प्राप्त कुछ प्रतीकों का प्रयोग किया है।

§  उदाहरण:

§  "चलो अगम के देस, वहाँ भरा प्रेम-हीज, हंस केल्यां करै"

§  "पंच रंग चोला पहर सखी मैं झिरमिट खेलन जाती"

मीरा की काव्य भाषा का स्वरूप

1.        भाषाई मिश्रण:

o    मीरा की भाषा राजस्थानी-मिश्रित ब्रज भाषा है, जिसमें मातृभाषा पश्चिमी राजस्थानी के शब्दों का प्रयोग किया गया है।

o    तदूभव शब्दों का प्रायः प्रयोग हुआ है, जबकि तत्सम शब्दों का कम उपयोग हुआ है।

2.        विदेशी शब्दों का प्रयोग:

o    मीरा की भाषा में विदेशी शब्दों का प्रयोग कम है, और उन्होंने इन्हें हिंदी की ध्वनियों में ढालकर ही प्रयोग किया है।

§  उदाहरण:

§  अरबी शब्द: 'अरजी', 'कीमत'

§  फारसी शब्द: 'दरद', 'नेबाज'

3.        माधुर्य और प्रसाद गुण:

o    मीरा की भाषा में माधुर्य और प्रसाद गुण की विशेषता है, हालांकि सूर और नंददास जैसे कृष्ण कवियों की तुलना में यह माधुर्य कम दिखाई देता है।

o    मीरा के पदों में अनुभूति की गहराई और भाव-प्रवणता स्पष्ट है, लेकिन कलात्मकता में वे अन्य कवियों से पीछे हैं।

निष्कर्ष

मीरा बाई का काव्य भाषा की साधारणा और भावमय अभिव्यक्ति का एक सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करता है। उनकी काव्य भाषा में सरलता, स्वाभाविकता, और भावनात्मक गहराई की विशेषताएँ हैं। जबकि उनके काव्य में कलात्मकता की कमी है, भाव-प्रवणता और अनुभूति की प्रगाढ़ता उन्हें एक अनूठा स्थान प्रदान करती है।

अभ्यास-प्र श्न

मीरा की काव्य-भाषा पर प्रकाश डालिए।

मीरा बाई की काव्य-भाषा उनकी कविताओं की एक महत्वपूर्ण विशेषता है, जो उनके भावनात्मक और भक्ति-पंथ के दृष्टिकोण को स्पष्ट करती है। मीरा की भाषा सरल, भावप्रधान और विशुद्ध भावनाओं की अभिव्यक्ति करती है। उनकी काव्य-भाषा पर प्रकाश डालते हुए निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार किया जा सकता है:

1. भाषाई मिश्रण

  • राजस्थानी-मिश्रित ब्रज भाषा: मीरा की भाषा मुख्यतः राजस्थानी और ब्रज भाषा का मिश्रण है। उन्होंने अपनी मातृभाषा पश्चिमी राजस्थानी के साथ साहित्यिक ब्रज भाषा के शब्दों का प्रयोग किया है। यह मिश्रण उनके काव्य को एक विशेष स्थानीय रंग और सरलता प्रदान करता है।
  • तदूभव और तत्सम शब्द: मीरा की भाषा में तदूभव शब्दों का प्रायः प्रयोग हुआ है, जबकि तत्सम शब्दों का बहुत कम प्रयोग देखने को मिलता है। तदूभव शब्द उनकी भाषा को सहज और आम बोलचाल की भाषा बनाते हैं।

2. साधारण और स्पष्ट भाषा

  • सरलता और स्पष्टता: मीरा ने अपनी काव्य-भाषा में किसी प्रकार की अलंकरण या जटिलता से बचते हुए सरल और स्पष्ट भाषा का प्रयोग किया है। उनके पदों में अत्यधिक बारीकियों या जटिल शब्दों का प्रयोग नहीं है, जिससे उनके भाव और विचार सीधे पाठक तक पहुंचते हैं।
  • अनुप्रास और नाद-सौंदर्य की कमी: मीरा के काव्य में अनुप्रास और नाद-सौंदर्य की छटा अन्य ब्रज कवियों की तुलना में कम है। उनकी भाषा में भाव-प्रवाह और सीधे अभिव्यक्ति को अधिक महत्व दिया गया है।

3. लाक्षणिक प्रयोग और मुहावरे

  • लाक्षणिक प्रयोग: मीरा के काव्य में लाक्षणिक प्रयोग और मुहावरे स्वाभाविक रूप से शामिल हैं। उन्होंने आम बोलचाल की भाषा में लाक्षणिकता को समाहित किया है, जिससे उनकी कविताएँ अधिक प्रभावशाली और अर्थपूर्ण बन जाती हैं।
    • उदाहरण:
      • "बाट जोवां", "हाथ बिकाणी", "रंग राँचा", "करेजो खाय"
  • लोकोक्तियों का प्रयोग: मीरा ने कम लोकोक्तियों का प्रयोग किया है। उनकी भाषा में लोकसाहित्य के तत्व कम दिखाई देते हैं, लेकिन उनकी अभिव्यक्ति में लोक जीवन के अनुभवों का संकेत मिलता है।

4. विदेशी शब्दों का प्रयोग

  • अरबी और फारसी शब्द: मीरा की भाषा में कुछ विदेशी शब्दों का प्रयोग हुआ है, लेकिन ये शब्द हिंदी की ध्वनियों में ढाले गए हैं। इस प्रकार, उन्होंने विदेशी शब्दों को हिंदी की ध्वनियों में ढालकर अपनाया है।
    • उदाहरण:
      • अरबी शब्द: 'अरजी', 'कीमत'
      • फारसी शब्द: 'दरद', 'नेबाज'

5. भावमय अभिव्यक्ति

  • माधुर्य और भाव-प्रवणता: मीरा की काव्य-भाषा में भावनाओं की गहराई और माधुर्य की विशेषता है। उनकी कविताओं में भावान्विति और आत्माभिव्यक्ति का उत्कर्ष देखने को मिलता है। यद्यपि उनकी भाषा में कलात्मकता की कमी है, भावनात्मक गहराई और अभिव्यक्ति की प्रगाढ़ता उनके पदों को विशेष बनाती है।
  • सरल और सहज अभिव्यक्ति: मीरा की भाषा सहज और प्राकृतिक है, जो उनके भावनात्मक अनुभवों को सरल और सीधे शब्दों में प्रस्तुत करती है। उनके पदों में गहरी अनुभूति और भावनात्मक सच्चाई के कारण उनकी भाषा में एक विशिष्ट प्रभाव और आकर्षण है।

निष्कर्ष

मीरा बाई की काव्य-भाषा उनकी भक्ति और भावनात्मक अभिव्यक्ति की उत्कृष्टता को दर्शाती है। उनकी भाषा सरल, स्पष्ट और सहज है, जो सीधे पाठक के हृदय तक पहुंचती है। उनकी काव्य-भाषा में तदूभव शब्दों का प्रमुख स्थान है, और विदेशी शब्दों का प्रयोग भी हिंदी की ध्वनियों में ढाला गया है। मीरा की कविता में भाव-प्रवणता और अनुभूति की गहराई उनकी भाषा की प्रमुख विशेषता है।

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मीरा बाई की काव्य भाषा पर कई क्षेत्रीय भाषाओं का प्रभाव है। उदाहरण सहित समझाइण |

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मीरा बाई की काव्य-भाषा पर विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। मीरा ने अपनी कविताओं में राजस्थानी और ब्रज भाषा का मिश्रण किया, जिससे उनके पदों में एक विशिष्ट क्षेत्रीय पहचान बनी। निम्नलिखित बिंदुओं में उदाहरण सहित मीरा की काव्य भाषा पर क्षेत्रीय भाषाओं के प्रभाव को समझाया गया है:

1. राजस्थानी भाषा का प्रभाव

मीरा बाई की काव्य-भाषा में राजस्थानी भाषा का स्पष्ट प्रभाव देखा जाता है, विशेष रूप से पश्चिमी राजस्थानी के शब्द और भावनात्मक विशेषताएँ। मीरा की मातृभाषा राजस्थानी थी, और इस भाषा की संरचना, शब्दावली, और भावनात्मक अभिव्यक्ति उनके काव्य में समाहित है।

  • उदाहरण:
    • "ज्यों चातक घन कौर रटै, मछरी बिन पानी हो!"
      (
      इस पंक्ति में 'चातक' और 'मछरी' जैसे शब्द राजस्थानी क्षेत्रीय शब्दावली को दर्शाते हैं, जहाँ चातक एक पक्षी और मछरी का उल्लेख भावनात्मक और स्थानीय संदर्भ को स्पष्ट करता है।)
    • "बिन करताल पखावज बाजै अनहद की झनकार रे।"
      (
      इस पंक्ति में 'करताल' और 'पखावज' जैसे शब्द राजस्थानी संगीत वाद्यों को सूचित करते हैं, जो राजस्थानी सांस्कृतिक प्रभाव को दिखाते हैं।)

2. ब्रज भाषा का प्रभाव

ब्रज भाषा का प्रभाव मीरा की काव्य-भाषा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ब्रज भाषा की मिठास और उसकी लयबद्धता मीरा के काव्य में साफ देखी जा सकती है, जो उनकी भक्ति और प्रेम की भावनाओं को प्रभावी रूप से व्यक्त करती है।

  • उदाहरण:
    • "सावन मैं उमग्यो मेरो मनवा, भनक सुनी हरि आवन की"
      (
      इस पंक्ति में 'सावन', 'मनवा', और 'हरि' जैसे ब्रज शब्दों का प्रयोग मीरा के ब्रज भाषा के प्रभाव को दर्शाता है, जो कि रचनात्मकता और भावनात्मक अभिव्यक्ति में सहयोगी है।)
    • "हरि बिन मथुरा ऐसी लागै शशि बिनु रैन अँधेरी।"
      (
      यह पंक्ति ब्रज भाषा की गहराई और उसकी सूक्ष्मता को दर्शाती है, जहाँ 'मथुरा' और 'शशि' जैसे शब्द ब्रज क्षेत्र के सांस्कृतिक संदर्भ को स्पष्ट करते हैं।)

3. अन्य क्षेत्रीय भाषाओं का प्रभाव

मीरा के काव्य में अन्य क्षेत्रीय भाषाओं का प्रभाव भी देखा जा सकता है, जैसे कि हिंदी के विभिन्न रूप और लोक भाषाएँ, जो उनके काव्य को स्थानीय रंग और विविधता प्रदान करती हैं।

  • उदाहरण:
    • "अंग खीन व्याकुल भया मुख पिव पिब बाणी हो।"
      (
      इस पंक्ति में 'अंग', 'खीन', और 'मुख' जैसे शब्द हिंदी के विभिन्न रूपों को दर्शाते हैं, जो मीरा की काव्य भाषा में स्थानिक प्रभाव को स्पष्ट करते हैं।)

निष्कर्ष

मीरा बाई की काव्य-भाषा में राजस्थानी और ब्रज भाषाओं का प्रभाव स्पष्ट है, जो उनकी कविता में स्थानीय रंग और सांस्कृतिक पहचान को दर्शाता है। राजस्थानी शब्दावली और ब्रज भाषा की मिठास उनके पदों को एक विशिष्ट क्षेत्रीय स्वरूप देती है। मीरा ने इन भाषाओं का उपयोग भावनात्मक और भक्ति संबंधी अभिव्यक्ति को प्रभावी बनाने के लिए किया, जिससे उनके पद स्थानीय जीवन और सांस्कृतिक संदर्भों के साथ गहरे जुड़े हुए हैं।

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