DHIN411 : हिंदी साहित्य का आदिकाल और भक्ति काल
इकाई-1:
हिंदी साहित्य का इतिहास
परिचय
हिंदी साहित्य का इतिहास कई कालखंडों में विभाजित किया गया है। इन कालखंडों का विभाजन विभिन्न आधारों पर किया जाता है, जैसे कि काव्य के प्रवृत्तियों के आधार पर, विकासवाद के आधार पर, या सामाजिक एवं सांस्कृतिक घटनाओं के आधार पर। इस इकाई में हिंदी साहित्य के काल विभाजन पर ध्यान केंद्रित किया गया है।
काल विभाजन के आधार
1.
कर्त्ता के आधार पर:
o प्रसाद युग: जिनमें कवि प्रसाद की प्रमुखता है।
o भारतेदु युग: भारतेदु हरिश्चंद्र की रचनाओं के आधार पर।
o ह्ववेंदा युग: इस युग में ह्ववेंदा की प्रमुखता है।
2.
प्रवृत्तियों के आधार पर:
o भक्तकाल: भक्तों की रचनाओं पर आधारित।
o सत्साहित्य: सत्साहित्य का योगदान।
o सूफी साहित्य: सूफियों की रचनाएँ।
o रातकाल: रात के समय की रचनाएँ।
o छायावाद: छायावादी काव्यधारा।
o प्रगतिवाद: प्रगतिवादी विचारधारा।
3.
विकासवाद के आधार पर:
o आदिकाल: प्राचीन काल का साहित्य।
o मध्यकाल: मध्यकालीन साहित्य।
o आधुनिक काल: आधुनिक काल का साहित्य।
4.
सामाजिक और सांस्कृतिक घटनाओं के आधार पर:
o राष्ट्राय धारा: राष्ट्रवादी विचारधारा।
o स्वातंत्र्योत्तर काल: स्वतंत्रता के बाद का काल।
o स्वच्छंदतावाद: स्वच्छंदतावादी प्रवृत्ति।
हिंदी साहित्य के प्रमुख इतिहासकारों द्वारा काल विभाजन
1.
गार्सा-द-तासा:
o इन्होंने काल विभाजन का कोई प्रयास नहीं किया।
2.
ग्रयर्सन:
o अपनी पुस्तक "द मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ इंडिया" में ग्यारह अध्यायों में काल विभाजन किया।
o इस विभाजन में वैज्ञानिकता का अभाव था और अध्यायों की संख्या अधिक थी, जिससे यह काल विभाजन उपयुक्त नहीं माना जाता।
3.
मश्रबधुओं का काल विभाजन:
o आरंभिक काल: 700 - 1343 ई.
o मध्यकाल:
§ पूर्व मध्यकाल: (1343 - 1500 ई.)
§ प्रौढ़ मध्यकाल: (1500 - 1700 ई.)
o अलंकृत काल:
§ पूर्व अलंकृत काल: (1700 - 1900 ई.)
§ उत्तर अलंकृत काल: (1900 ई. से अब तक)
4.
आचार्य रामचंद्र शुक्ल:
o वारगाथाकाल (संत साहित्य)
o भक्तकाल (भक्ति साहित्य)
o रातकाल (रात्री साहित्य)
o गद्यकाल (1900-1984 ई.)
5.
डॉ. रामकुमार वर्मा:
o साधकाल (750 - 1007 ई.)
o चारणकाल (1000 - 1375 ई.)
o भक्तकाल (1375 - 1700 ई.)
o रातकाल (1700 - 1900 ई.)
o आधुनिक काल (1900 - वर्तमान)
6.
डॉ. गणपत चंद्र गुप्त:
o प्रारंभिक काल (1184-1350 ई.)
o मध्यकाल:
§ पूर्व मध्यकाल (1350-1500 ई.)
§ उत्तर मध्यकाल (1500-1857 ई.)
o आधुनिक काल (1857-1965 ई.)
मश्रबधुओं के काल विभाजन की त्रुटियाँ
1.
नामकरण की असमानता:
o विभिन्न कालखंडों के नामकरण में एक समान पद्धति का अनुसरण नहीं किया गया।
2.
सुस्पष्ट आधार की कमी:
o काल विभाजन के आधार स्पष्ट नहीं हैं और कुछ आलोचकों ने इन विभाजनों को अनुचित माना है।
3.
इतिहास की सीमा:
o हिंदी साहित्य का प्रारंभ 700 ई. से मानकर अपभ्रंश की रचनाओं को शामिल किया गया, जबकि वास्तव में प्रारंभ 1000 ई. के आसपास हुआ था।
4.
असंगत कालखंड:
o पारवर्तन काल का विश्लेषण सही नहीं है और कालखंडों की संख्या अधिक है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल का काल विभाजन
1.
बारगाथाकाल:
o वारगाथाओं का प्रमुख समय।
2.
भक्तकाल:
o भक्ति साहित्य की प्रमुखता।
3.
रातकाल:
o रात्री साहित्य का प्रमुख समय।
4.
गद्यकाल:
o गद्य रचनाओं की प्रमुखता।
नोट: शुक्ल जी ने बारगाथाकाल में 'वारगाथा' को प्रधान मानकर इस काल का नाम रखा, भक्ति काल को भक्ति साहित्य की प्रधानता के आधार पर नामित किया और रातकाल में रात्री तत्व की प्रमुखता को स्वीकार किया।
प्रश्न
1.
मश्रबधुओं के काल विभाजन की त्रुटियाँ:
o नामकरण की असमानता, सुस्पष्ट आधार की कमी, इतिहास की सीमा, और असंगत कालखंड।
2.
शुक्लजी के काल विभाजन के दो आधार:
o प्रधान प्रवृत्ति और ग्रंथों का प्रसाद।
3.
विभिन्न कालखंडों के नामकरण पर टिप्पणी:
o कालखंडों का नामकरण प्रवृत्ति, सामाजिक और सांस्कृतिक घटनाओं के आधार पर किया गया, जिसमें कुछ कालखंडों के नामकरण की पद्धति असमान है।
अभ्यास- प्रश्न
मश्रवधुओं के काल विभाजन का त्राटयों से क्या तात्पर्य है? समझाइए।
मश्रवधुओं के काल विभाजन का त्राटयाँ (या त्रुटियाँ) निम्नलिखित हैं:
1.
कालखंडों के नामकरण में असमानता:
o मश्रवधुओं ने अपने काल विभाजन में विभिन्न कालखंडों के नामकरण में असमानता दिखाई है। उदाहरण के लिए, ‘आरंभक काल,’ ‘मध्यकाल,’ ‘अलंकृत काल,’ और ‘पारवर्तन काल’ जैसे नामों का प्रयोग किया गया, लेकिन इनका कोई सुस्पष्ट और संगठित आधार नहीं है। इन नामों का चयन अलग-अलग दृष्टिकोणों से किया गया है और इनका कोई स्पष्ट ऐतिहासिक या साहित्यिक परिप्रेक्ष्य नहीं है।
2.
सुस्पष्ट आधार की कमी:
o मश्रवधुओं द्वारा प्रस्तुत काल विभाजन में एक सुस्पष्ट आधार की कमी है। उदाहरण के लिए, उन्होंने 'आरंभक काल' के अंतर्गत पूर्वारंभक और उत्तरारंभक कालों को विभाजित किया, लेकिन यह विभाजन केवल सांस्कृतिक और साहित्यिक प्रवृत्तियों पर आधारित था, न कि किसी ऐतिहासिक या सामाजिक परिवर्तन पर।
3.
पारंपरिक दृष्टिकोण:
o मश्रवधुओं का काल विभाजन पारंपरिक दृष्टिकोण पर आधारित है और इसने इतिहासकारों और साहित्यकारों के बीच एकरूपता की कमी को बढ़ावा दिया। उदाहरण के लिए, ‘पारवर्तन काल’ और ‘वर्तमान काल’ के अंतर्गत आने वाली प्रवृत्तियाँ और रचनाएँ व्यापक साहित्यिक या ऐतिहासिक विश्लेषण के बिना शामिल की गई हैं।
4.
कालखंडों का वास्तविक प्रतिनिधित्व:
o मश्रवधुओं द्वारा दिए गए कालखंडों में वास्तविक साहित्यिक और ऐतिहासिक घटनाओं का सटीक प्रतिनिधित्व नहीं किया गया है। इससे यह समस्याग्रस्त हो जाता है कि कालखंडों की रचनात्मक और साहित्यिक प्रवृत्तियों को ठीक से समझा जा सके।
इन त्रुटियों की वजह से मश्रवधुओं का काल विभाजन इतिहासकारों और साहित्यकारों द्वारा आलोचनात्मक दृष्टिकोण से देखा गया है। उनका विभाजन अधिकतर सांस्कृतिक और साहित्यिक प्रवृत्तियों पर आधारित था, जबकि वास्तविक ऐतिहासिक घटनाओं और उनके प्रभावों का समावेश कम था। इस प्रकार, यह काल विभाजन इतिहास और साहित्य के समग्र परिप्रेक्ष्य को सही ढंग से व्यक्त करने में असमर्थ रहा है।
शुक्लजा के काल विभाजन के दो आधार क्या है? उल्लेख काजए।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के काल विभाजन के दो प्रमुख आधार निम्नलिखित हैं:
1.
प्रधान प्रवृत्ति (Principal Theme):
o आचार्य शुक्ल ने काल विभाजन का पहला आधार प्रधान प्रवृत्ति को माना है। इसका तात्पर्य है कि किसी भी कालखंड की विशेषता और उसके प्रमुख साहित्यिक प्रवृत्तियों को ध्यान में रखते हुए उसका नामकरण और विभाजन किया गया है। उदाहरण के लिए, उन्होंने "वारगाथाकाल" को इसलिए नामित किया क्योंकि इस काल में "वारगाथा" (गद्य की विशेष शैली) प्रमुख प्रवृत्ति थी। इसी प्रकार, "भक्तकाल" में भक्ति की प्रवृत्ति, "रातकाल" में रीतिकाव्य की प्रवृत्ति, और "आधुनिक काल" में गद्य साहित्य की प्रवृत्ति को प्रमुख माना गया है।
2.
ग्रंथों का प्रासंगिकता (Relevance of Texts):
o शुक्ल ने काल विभाजन का दूसरा आधार ग्रंथों का प्रासंगिकता तय किया है। इसका तात्पर्य है कि किसी भी कालखंड का नामकरण और विभाजन उस काल के प्रमुख ग्रंथों और रचनाओं के आधार पर किया गया है। उन्होंने प्रमुख ग्रंथों और साहित्यिक कृतियों के अध्ययन और उनके प्रभाव के आधार पर कालखंडों को परिभाषित किया। उदाहरण के लिए, "आधुनिक काल" के अंतर्गत वे गद्य साहित्य के विकास और प्रमुख गद्य रचनाओं को शामिल करते हैं।
इन दो आधारों का प्रयोग करके शुक्ल ने भारतीय साहित्य के विभिन्न कालखंडों को स्पष्ट और सुव्यवस्थित तरीके से वर्गीकृत किया है, जिससे साहित्य के विकास और प्रवृत्तियों को समझना आसान हो गया है।
विभिन्न कालखंडों के नामकरण पर साक्षात टिप्पणी: ॥लाखए।
विभिन्न कालखंडों के नामकरण पर साक्षात टिप्पणी:
1.
आदकाल (वारगाथाकाल):
o नामकरण पर टिप्पणी: आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने आदकाल को "वारगाथाकाल" नाम दिया है। इस काल में "वारगाथा" (गद्य की विशेष शैली) प्रमुख प्रवृत्ति थी। इस नामकरण के माध्यम से शुक्ल ने इस काल की साहित्यिक विशेषताओं को प्रमुखता दी है। आलोचकों का कहना है कि इस काल का नामकरण गद्य साहित्य की प्रमुखता को ध्यान में रखते हुए किया गया है। कुछ आलोचक इस नामकरण को उचित मानते हैं, जबकि कुछ इसे अति संकीर्ण मानते हैं, क्योंकि इस काल में अन्य साहित्यिक प्रवृत्तियाँ भी मौजूद थीं।
2.
पूर्व मध्यकाल (भक्तकाल):
o नामकरण पर टिप्पणी: "भक्तकाल" नामकरण से शुक्ल ने इस काल की भक्ति प्रवृत्ति को प्रमुखता दी है। इस काल में भक्ति काव्य और संत कवियों की रचनाएँ प्रमुख थीं। यह नामकरण भक्ति साहित्य के महत्व को दर्शाता है, लेकिन आलोचकों का कहना है कि इस काल में भक्ति के अलावा भी अन्य महत्वपूर्ण साहित्यिक प्रवृत्तियाँ थीं जो इस नामकरण में ध्यान में नहीं आईं।
3.
उत्तर मध्यकाल (रातकाल):
o नामकरण पर टिप्पणी: "रातकाल" नामकरण ने रीतिकाव्य की प्रवृत्ति को प्रमुखता दी है। शुक्ल ने इस काल को "रातकाल" नाम दिया क्योंकि इस काल की साहित्यिक कृतियाँ रीतिकाव्य पर आधारित थीं। हालांकि, आलोचकों का कहना है कि इस काल का नामकरण केवल एक प्रवृत्ति पर आधारित है और इस काल के अन्य साहित्यिक पहलुओं को समेटने में असमर्थ है।
4.
आधुनिक काल (गद्य काल):
o नामकरण पर टिप्पणी: "आधुनिक काल" को "गद्य काल" नाम देना इस काल में गद्य साहित्य के विकास और प्रचलन को दर्शाता है। शुक्ल ने गद्य साहित्य के प्रमुखता को स्वीकार किया और इसी के आधार पर इस काल का नामकरण किया। यह नामकरण इस काल की साहित्यिक प्रवृत्तियों को स्पष्ट करता है, लेकिन कुछ आलोचक इस नामकरण को केवल गद्य की प्रवृत्ति पर निर्भर मानते हैं, जबकि इस काल में अन्य महत्वपूर्ण साहित्यिक प्रवृत्तियाँ भी उभरकर सामने आई थीं।
सारांश में: आचार्य शुक्ल का काल विभाजन और नामकरण का तरीका साहित्यिक प्रवृत्तियों और प्रमुख ग्रंथों के आधार पर किया गया है। जबकि यह तरीका स्पष्ट और संगठित है, आलोचकों का कहना है कि यह नामकरण केवल प्रमुख प्रवृत्तियों को ध्यान में रखते हुए किया गया है और इस तरह का नामकरण साहित्य के समग्र परिप्रेक्ष्य को पूरी तरह से शामिल नहीं करता है।
इकाई-2:
हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में काल विभाजन एवं नामकरण की समस्या
परिचय
हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में काल विभाजन और नामकरण की समस्या एक महत्वपूर्ण चर्चा का विषय रही है। इस इकाई का अध्ययन करने के बाद, विद्यार्थी निम्नलिखित उद्देश्यों को समझने में सक्षम होंगे:
1.
हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में काल विभाजन की समस्या को समझना।
2.
विभिन्न विद्वानों द्वारा किए गए काल विभाजन के प्रयासों को समझना।
3.
हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की परंपरा में नामकरण की समस्या को समझना।
प्रस्तावना
हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में शुरुआती प्रयास, जैसे 'काव्यमाला' या 'भक्तमाला' की रचनाएँ, चाहे वह गार्सा द तासा या श्यामसुंदर सेगर के प्रयास हों, उनमे काल विभाजन का कोई विशेष प्रयास नहीं किया गया। यह प्रयास सबसे पहले जॉर्ज ग्रियर्सन ने किया, जिन्होंने पूरे साहित्य को दो कालों में विभाजित किया। किसी भी साहित्य के इतिहास में पहली समस्या काल विभाजन की होती है और दूसरी समस्या उन कालखंडों का सही नामकरण करने की होती है। कालखंडों का नाम किसी स्मारक या याद के आधार पर नहीं रखा जा सकता, बल्कि साहित्यिक प्रवृत्तियों के आधार पर रखा जाना चाहिए, जो तत्कालीन साहित्य के स्वरूप के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में काल विभाजन की समस्या
1.
काल विभाजन के शुरुआती प्रयास:
o हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में शुरुआती प्रयासों में काल विभाजन का कोई प्रयास नहीं किया गया था। जॉर्ज ग्रियर्सन ने पहली बार इस दिशा में पहल की और साहित्य को दो कालों में विभाजित किया।
o यह विभाजन व्यवस्थित नहीं था, क्योंकि इसमें कई कालखंड गैर साहित्यिक आधारों पर स्थापित किए गए थे, जैसे 'कृपणा के शासन में हिंदुस्तान', 'विक्टोरिया के शासन में हिंदुस्तान', '18वीं शताब्दी'; कुछ काल व्यक्ति विशेष पर आधारित थे, जैसे 'जायसी का प्रेम काव्य', 'तुलसीदास इत्यादि'।
2.
मिश्रबंधुओं का प्रयास:
o काल विभाजन का अगला प्रयास मिश्रबंधुओं ने किया और मूलतः पांच कालखंडों को स्वीकार किया। फिर इन कालखंडों को दो-दो उपखंडों में विभाजित किया गया, जिससे कुल आठ कालखंड निर्धारित हुए:
1.
पूर्व आरंभिक काल (643-1286 ई.)
2.
उत्तर आरंभिक काल (1287-1387 ई.)
3.
पूर्व माध्यमिक काल (1388-1503 ई.)
4.
प्रौढ़ माध्यमिक काल (1504-1624 ई.)
5.
पूर्व अलंकरण काल (1624-1733 ई.)
6.
उत्तर अलंकरण काल (1734-1832 ई.)
7.
परिवर्तन काल (1833-1868 ई.)
8.
वर्तमान काल (1869-अद्यतन)
3.
आचार्य शुक्ल का प्रयास:
o आचार्य शुक्ल ने काल विभाजन का सबसे ठोस प्रयास किया और 900 वर्षों की परंपरा को चार कालों में विभाजित किया:
1.
वीरगाथा काल (1050-1375 ई.)
2.
भक्त काल (1375-1700 ई.)
3.
रीतिकाल (1700-1900 ई.)
4.
आधुनिक काल (1900 ई.-अद्यतन)
o यह विभाजन वैज्ञानिक था और जटिलताओं से मुक्त था। हालांकि, समस्या यह थी कि भक्त काल के अंत में रीतिकाल की प्रवृत्तियाँ दिखने लगती थीं और भारतेन्दु काल में भी रीतिकाल की छाप दिखाई देती थी।
हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में नामकरण की समस्या
1.
कालखंडों का नामकरण:
o साहित्यिक इतिहास में पहली समस्या काल विभाजन की होती है और दूसरी उन कालखंडों के सही नामकरण की।
o कालखंडों का नामकरण किसी स्मारक या याद के आधार पर नहीं किया जा सकता, बल्कि साहित्यिक प्रवृत्तियों के आधार पर किया जाना चाहिए, जो तत्कालीन साहित्य के स्वरूप के निर्धारण में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
2.
आधुनिक काल का नामकरण:
o आधुनिक काल के नामकरण में सबसे अधिक समस्या आई है। 150 वर्षों के आधुनिक काल को कैसे उपखंडों में विभाजित किया जाए, यह एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। साहित्यिक चेतना के तेजी से विकास के कारण काल-परिवर्तन अब 300-400 वर्षों के स्थान पर 8-10 वर्षों में हो जाता है।
3.
गद्य विधाओं का नामकरण:
o गद्य विधाओं का विभाजन अलग से किया गया, जो इस प्रकार है:
1.
उपन्यास: प्रेमचंद पूर्व युग, प्रेमचंद युग, प्रेमचंदोत्तर युग, स्वतंत्रयोत्तर युग
2.
कहानी: प्रेमचंद पूर्व युग, प्रेमचंद युग, नई कहानी, अकहानी, सहज कहानी, सक्रिय कहानी, समांतर कहानी, सचेतन कहानी, समकालीन कहानी
3.
नाटक: प्रसाद पूर्व युग, प्रसाद युग, प्रसादोत्तर युग
4.
आलोचना: शुक्ल पूर्व युग, शुक्ल युग, शुक्लोत्तर आलोचना, स्वच्छंदतावादी आलोचना, ऐतिहासिक आलोचना, मनोविश्लेषणात्मक आलोचना, नई समीक्षा, समकालीन समीक्षा
5.
निबंध: शुक्ल पूर्व युग, शुक्ल युग, शुक्लोत्तर युग
निष्कर्ष
हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की परंपरा ने काल विभाजन और नामकरण की समस्या का पर्याप्त समाधान किया है। हालांकि, कुछ विवाद अभी भी शेष हैं, लेकिन समय के साथ उनके भी सुलझ जाने की संभावना है। वर्तमान समय में आचार्य शुक्ल के मतों के समन्वय पर लगभग सहमति कायम हो चुकी है।
अभ्यास्र-प्रश्न
हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में काल विभाजन का समस्या से क्या अभिप्राय है? समझाइए।
हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में काल विभाजन की समस्या का अभिप्राय साहित्य को समयानुसार विभाजित करने से उत्पन्न होने वाली कठिनाइयों से है।
साहित्य के इतिहास को कालखंडों में बांटते समय निम्नलिखित समस्याएं उत्पन्न होती हैं:
1.
साहित्यिक प्रवृत्तियों का स्पष्ट विभाजन: साहित्यिक प्रवृत्तियों का स्पष्ट विभाजन करना कठिन होता है क्योंकि विभिन्न कालखंडों में साहित्यिक विचारधाराएं और प्रवृत्तियां एक-दूसरे के साथ मिलती-जुलती रहती हैं। किसी एक युग का प्रभाव दूसरे युग में भी दिखता है, जिससे यह तय करना कठिन हो जाता है कि एक युग कब समाप्त हुआ और दूसरा कब शुरू हुआ।
2.
साहित्य और समाज का संबंध: साहित्य समाज का प्रतिबिंब होता है। समाज में होने वाले परिवर्तन धीरे-धीरे साहित्य पर प्रभाव डालते हैं। इसलिए यह कहना मुश्किल है कि किसी विशिष्ट समय में समाज और साहित्य में एकदम से परिवर्तन हुआ।
3.
साहित्यिक कृतियों की बहुलता: हर काल में साहित्यिक कृतियों की एक बड़ी संख्या होती है, और हर लेखक की अपनी विशेष शैली होती है। इससे एक सामान्य प्रवृत्ति को पहचानना और उसे कालखंड में सीमित करना कठिन हो जाता है।
4.
इतिहासकारों के व्यक्तिगत दृष्टिकोण: विभिन्न साहित्यकारों और इतिहासकारों का काल विभाजन को लेकर अपना अलग-अलग दृष्टिकोण होता है। इससे एक मानक काल विभाजन तैयार करना कठिन हो जाता है।
5.
नई जानकारी और शोध: साहित्य के क्षेत्र में नए शोध और खोज के कारण पहले से तय किए गए काल विभाजन पर पुनर्विचार करना पड़ता है। यह काल विभाजन की प्रक्रिया को और जटिल बना देता है।
इन समस्याओं के बावजूद, साहित्य के अध्ययन और समझ को सरल बनाने के लिए साहित्य को कालखंडों में विभाजित करना आवश्यक होता है। इसके लिए साहित्यकारों और इतिहासकारों को अपनी समझदारी और अध्ययन के आधार पर उपयुक्त काल विभाजन करना पड़ता है।
हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन परपरा में नामकरण का समस्या को इसे विस्तारपूर्वक समझाइए।
हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की परंपरा में नामकरण की समस्या एक महत्वपूर्ण और जटिल मुद्दा है। यह समस्या तब उत्पन्न होती है जब साहित्य के विभिन्न कालखंडों को उपयुक्त नाम देने का प्रयास किया जाता है। इन नामकरण के साथ कई चुनौतियां और विवाद जुड़े होते हैं। आइए इसे विस्तारपूर्वक समझते हैं:
1. साहित्यिक प्रवृत्तियों का अद्वितीय नामकरण:
- हर कालखंड में विभिन्न साहित्यिक प्रवृत्तियां और रचनात्मक धाराएं होती हैं, जिनका एक ही नाम से प्रतिनिधित्व करना कठिन हो सकता है। उदाहरण के लिए, 'भक्ति काल' को भक्ति काव्य के नाम से जाना जाता है, लेकिन इस काल में सूफी साहित्य और प्रेम काव्य भी रचे गए थे। इन्हें एक ही नाम से पहचानने में समस्या उत्पन्न होती है।
2. भिन्न-भिन्न विद्वानों के मतभेद:
- साहित्यिक इतिहासकारों और विद्वानों के बीच नामकरण को लेकर अक्सर मतभेद होते हैं। एक विद्वान जिस काल को 'रीति काल' कह सकता है, दूसरा उसे 'श्रृंगार काल' कह सकता है। इस प्रकार के नामकरण में एकरूपता का अभाव होता है, जिससे पाठकों और शोधकर्ताओं में भ्रम पैदा होता है।
3. नामकरण के सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ:
- साहित्य के कालखंडों के नामकरण में सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कुछ नामकरण किसी विशेष विचारधारा या आंदोलन के प्रभाव में किए गए होते हैं, जिससे उनका व्यापक स्वीकार्यता प्राप्त करना मुश्किल हो जाता है। उदाहरण के लिए, 'आधुनिक काल' का नामकरण करते समय इसमें पश्चिमी विचारधाराओं का प्रभाव दिखता है, जिसे सभी साहित्यकारों ने समान रूप से स्वीकार नहीं किया।
4. समय के साथ नामकरण का पुनर्मूल्यांकन:
- समय के साथ नए शोध और अध्ययन के आधार पर कालखंडों के नामों का पुनर्मूल्यांकन करना पड़ता है। कभी-कभी पहले से प्रचलित नाम किसी नए नाम से प्रतिस्थापित किया जाता है, जिससे साहित्य के इतिहास की समझ में असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। उदाहरण के लिए, 'नवजागरण काल' को कभी-कभी 'पुनर्जागरण काल' के रूप में भी संबोधित किया जाता है।
5. विभिन्न साहित्यिक विधाओं का समावेश:
- हिंदी साहित्य के विभिन्न कालखंडों में अनेक साहित्यिक विधाएं (काव्य, नाटक, गद्य, आदि) विकसित हुई हैं। इन सभी को एक ही नाम के अंतर्गत समेटना कठिन होता है। उदाहरण के लिए, 'आधुनिक काल' के अंतर्गत काव्य, उपन्यास, नाटक, निबंध आदि सभी का समावेश किया गया है, लेकिन ये सभी विधाएं एक ही समय में समान रूप से विकसित नहीं हुईं।
6. भाषायी और क्षेत्रीय विविधता:
- हिंदी साहित्य का विस्तार विभिन्न भाषायी और क्षेत्रीय विविधताओं में होता है। अलग-अलग क्षेत्रों में साहित्यिक प्रवृत्तियां अलग-अलग समय पर विकसित हुईं, जिससे उन्हें एक ही नाम के अंतर्गत रखना मुश्किल हो जाता है। उदाहरण के लिए, हिंदी साहित्य के 'आधुनिक काल' में विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं का साहित्य भी शामिल है, जो समय और शैली में भिन्न हैं।
7. धार्मिक और दार्शनिक प्रभाव:
- हिंदी साहित्य के विभिन्न कालखंडों पर धार्मिक और दार्शनिक प्रभाव भी पड़ा है। उदाहरण के लिए, 'भक्ति काल' में विभिन्न धर्मों के संतों की रचनाओं को शामिल किया गया है। लेकिन यह नामकरण उनके दार्शनिक दृष्टिकोणों को पूरी तरह से नहीं दर्शाता, जिससे इसमें समावेशित साहित्य की पूरी पहचान को समझना कठिन हो जाता है।
निष्कर्ष:
नामकरण की समस्या हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में एक महत्वपूर्ण चुनौती है। यह समस्या न केवल साहित्यिक प्रवृत्तियों और विधाओं के विविधता के कारण उत्पन्न होती है, बल्कि विद्वानों के विचारों, सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों, और क्षेत्रीय भिन्नताओं के कारण भी जटिल होती है। इस समस्या को हल करने के लिए एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता होती है, जिसमें विभिन्न साहित्यिक धारणाओं और प्रवृत्तियों को सम्मानित तरीके से समाहित किया जा सके।
इकाई 3: आदिकालीन परस्थितियाँ
प्रस्तावना
साहित्य मानव-समाज के विभिन्न भावों और चिंतन की अभिव्यक्ति है। किसी विशेष काल के साहित्य के अध्ययन से उस काल के समाज, उसकी सोच, और उसकी परिस्थितियों को समझा जा सकता है। आदिकालीन साहित्य भी इस सिद्धांत से मुक्त नहीं है, और उस समय की राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक, साहित्यिक, और सांस्कृतिक परिस्थितियों का विश्लेषण करके इस साहित्य के विकास को समझा जा सकता है।
1. आदिकालीन साहित्य: परस्थितियाँ
1.1 राजनीतिक परिस्थितियाँ
इस काल की राजनीतिक परिस्थितियों में अशांति और युद्ध का बोलबाला था। सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद उत्तर भारत छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित हो गया। राजपूत राजाओं ने अपने-अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित किए थे, और अक्सर वे एक-दूसरे के खिलाफ युद्ध करते रहते थे। इस काल में विदेशी आक्रमणों का भी डर था, विशेषकर महमूद गज़नवी और मुहम्मद गोरी के आक्रमणों ने भारत को प्रभावित किया। राजपूत राजा आपस में संघर्षरत थे, जिससे विदेशी आक्रमणकारियों के खिलाफ वे एकजुट नहीं हो पाए।
1.2 धार्मिक परिस्थितियाँ
धार्मिक दृष्टि से, इस काल में विभिन्न धार्मिक मत-मतांतरों का विकास हुआ। राजपूत राजाओं के समय में शैव, जैन, और बौद्ध धर्म का प्रभाव देखा गया। धीरे-धीरे, शैव मत ने बौद्ध धर्म के प्रभाव को कम किया, और एक नया धार्मिक रूप, नाथ संप्रदाय, उभरकर सामने आया। नाथ संप्रदाय के प्रवर्तक गोरखनाथ ने योग और साधना पर जोर दिया, और धर्म के बाहरी आडंबरों का विरोध किया।
1.3 सामाजिक परिस्थितियाँ
राजनीतिक और धार्मिक अशांति के कारण समाज में विघटन बढ़ गया था। सामान्य जनता धार्मिक गुरुओं और साधु-संन्यासियों पर निर्भर हो गई थी, जो तंत्र-मंत्र और जप-तप के माध्यम से उनके संकटों को दूर करने का दावा करते थे। समाज में क्षत्रिय जाति का प्रभुत्व था, लेकिन वे आपसी स्पर्धा और संघर्ष में उलझे रहते थे। महिलाओं के प्रति सम्मान की भावना कम हो गई थी, और वे समाज में केवल भोग्या बनकर रह गई थीं। सती प्रथा और स्वयंबर जैसी प्रथाओं का प्रचलन था, जिससे समाज में संघर्ष और अशांति बनी रहती थी।
1.4 साहित्यिक परिस्थितियाँ
इस काल में साहित्यिक धारा तीन प्रमुख मार्गों में बंटी हुई थी: संस्कृत साहित्य, प्राकृत और अपभ्रंश में रचित साहित्य, और हिंदी साहित्य। संस्कृत में पुराणों, स्मृतियों, और ज्योतिष व काव्यशास्त्र पर ग्रंथ रचे गए। प्राकृत और अपभ्रंश भाषा में जैन कवियों और अन्य साहित्यकारों ने अपने साहित्य का सृजन किया। हिंदी साहित्य की भी शुरुआत इसी काल में हुई।
निष्कर्ष
आदिकालीन साहित्य और समाज की परस्थितियों का अध्ययन हमें उस समय के समाज, उसकी सोच, और उसकी चिंताओं को समझने में मदद करता है। यह काल संघर्ष, अशांति, और धार्मिक उथल-पुथल का था, जिसका प्रभाव साहित्य पर भी स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। साहित्यकारों ने इस अशांत वातावरण में भी साहित्य सृजन के माध्यम से अपनी भावनाओं और चिंतन को अभिव्यक्ति दी, जो आज भी अध्ययन के योग्य है।
अभ्यास- प्रश्न
आदिकाल में राजनीतिक ओर धार्मक परिस्थितियाँ का उल्लेख काजए॥
आदिकाल (800 ई. से 1200 ई.) के दौरान भारत में जो प्रमुख राजनीतिक और धार्मिक परिस्थितियाँ थीं, उन्होंने उस समय के साहित्य और समाज पर गहरा प्रभाव डाला। आइए इन्हें विस्तार से समझते हैं:
1. राजनैतिक परिस्थितियाँ:
- विभाजित राज्यों का युग: हर्षवर्धन की मृत्यु (647 ई.) के बाद उत्तर भारत छोटे-छोटे राज्यों में बंट गया था। गहड़वाल, परमार, चौहान, और चंदेल जैसे राजपूत राजवंशों ने स्वतंत्र राज्यों की स्थापना की। ये राज्य अक्सर आपस में युद्धरत रहते थे, जिससे उनकी शक्ति कमजोर हो गई।
- विदेशी आक्रमण: उत्तर-पश्चिम भारत पर विदेशी आक्रमणों का लगातार खतरा बना रहा। 10वीं शताब्दी में महमूद ग़ज़नवी और 12वीं शताब्दी में मुहम्मद गोरी ने भारत पर आक्रमण किया। इन आक्रमणों ने उत्तर और पश्चिमी भारत में अराजकता फैलाई और राजाओं की शक्ति को और कमजोर किया।
- राजपूत शासकों की कमजोरियाँ: राजपूत राजा परस्पर युद्धों में उलझे रहे, जिससे उनकी सामूहिक शक्ति कम हो गई। ये युद्ध आवश्यक नहीं थे; कई बार ये सिर्फ शौर्य प्रदर्शन के लिए किए जाते थे। इस राजनीतिक अस्थिरता ने देश को कमजोर बना दिया और विदेशी आक्रमणकारियों के लिए रास्ता खुला रखा।
2. धार्मिक परिस्थितियाँ:
- धार्मिक मतभेद और संघर्ष: इस काल में भारत में विभिन्न धार्मिक मत-मतांतरों का उदय हुआ। वैदिक और पौराणिक धर्मों के साथ-साथ बौद्ध धर्म भी अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए संघर्षरत था। राजपूत राजा मुख्य रूप से शैव मत के अनुयायी थे, जबकि कुछ राजा जैन और बौद्ध धर्म से प्रभावित थे।
- शैव और नाथ सम्प्रदाय का उदय: धीरे-धीरे शैव मत ने बौद्ध धर्म के प्रभाव को ग्रहण किया और एक नए रूप में नाथ सम्प्रदाय का उदय हुआ। इस सम्प्रदाय का नेतृत्व गोरखनाथ ने किया, जिन्होंने योग और साधना पर विशेष बल दिया।
- सिद्ध सम्प्रदाय: इस काल में सिद्धों का भी प्रभाव बढ़ा, जिन्होंने तंत्र-मंत्र, जादू-टोना और चमत्कार प्रदर्शन के माध्यम से आम जनता पर अपना प्रभाव जमाया। यह धार्मिक प्रवृत्ति धर्म के वास्तविक आदर्शों से हटकर अंधविश्वास और आचारहीनता की ओर बढ़ी।
- धार्मिक अशांति: इस समय धार्मिक दृष्टि से समाज अत्यंत दूषित हो चुका था। धर्म के मूलभूत सिद्धांतों का ह्रास हो गया था और उसमें विकृतियाँ आ गई थीं। जनता धार्मिक भ्रम और अस्थिरता से जूझ रही थी। इस्लाम का आगमन भी इसी काल में हुआ, लेकिन इस समय तक यह धर्म अपने पैर नहीं जमा पाया था।
सारांश: आदिकाल में राजनैतिक और धार्मिक परिस्थितियाँ अत्यंत जटिल और अशांत थीं। राजाओं के बीच निरंतर युद्ध और विदेशी आक्रमणों ने समाज को अस्थिर बना दिया था। धार्मिक दृष्टि से भी यह काल विवादास्पद था, जहां विभिन्न मत-मतांतरों के बीच संघर्ष चल रहा था और जनता धार्मिक भ्रम में फंसी हुई थी। इन परिस्थितियों का प्रभाव साहित्य और समाज पर गहराई से पड़ा, जिसे उस समय के साहित्यिक कृतियों में देखा जा सकता है।
आदिकाल में सामाजक साहित्यिक परिस्थितियों का वर्णन काजए।
आदिकाल (800 ई. से 1200 ई.) भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण कालखंड है। इस समय के सामाजिक और साहित्यिक परिस्थितियों का गहरा प्रभाव उस समय के समाज और साहित्य पर पड़ा। आइए, इन दोनों पहलुओं को विस्तार से समझते हैं:
1. सामाजिक परिस्थितियाँ:
- जाति प्रथा का प्रभुत्व: आदिकाल में भारतीय समाज जाति प्रथा पर आधारित था। समाज चार प्रमुख वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) में बँटा हुआ था। इस काल में जाति प्रथा कठोर हो गई थी, और प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जाति के अनुसार कर्तव्यों और अधिकारों का पालन करना पड़ता था।
- नारी की स्थिति: महिलाओं की स्थिति इस समय कमजोर थी। उन्हें शिक्षा और समाज में उच्च स्थान प्राप्त नहीं था। सती प्रथा, बाल विवाह और पर्दा प्रथा जैसी कुरीतियाँ इस समय समाज में प्रचलित थीं। हालांकि, कुछ राजघरानों में महिलाओं को सम्मानजनक स्थान भी प्राप्त था, लेकिन आम जनता के बीच उनकी स्थिति निम्न थी।
- ग्रामीण जीवन: अधिकतर समाज कृषि पर निर्भर था, और ग्रामीण जीवन ही मुख्य था। गांव आत्मनिर्भर इकाई थे, जहां लोगों की जरूरतें स्थानीय रूप से ही पूरी होती थीं। सामाजिक जीवन में धार्मिक अनुष्ठानों, त्योहारों और मेलों का महत्वपूर्ण स्थान था।
- धार्मिक अनुष्ठान और कर्मकांड: धार्मिक अनुष्ठान और कर्मकांड इस काल के समाज का अभिन्न हिस्सा थे। हर सामाजिक और व्यक्तिगत कार्य धार्मिक अनुष्ठानों से जुड़ा हुआ था। यज्ञ, हवन, तीर्थयात्रा आदि का महत्व अधिक था। धर्म की इस प्रकार की कठोरता ने समाज को एक ढाँचे में बांध रखा था।
- समाज में अशांति और असुरक्षा: इस काल में लगातार युद्ध और विदेशी आक्रमणों के कारण समाज में असुरक्षा का माहौल था। राजाओं के बीच आपसी संघर्ष, विद्रोह, और आक्रमणों ने सामान्य जनजीवन को प्रभावित किया। लोग अपने जीवन और संपत्ति की सुरक्षा के लिए हमेशा चिंतित रहते थे।
2. साहित्यिक परिस्थितियाँ:
- धार्मिक साहित्य का विकास: आदिकाल में साहित्य का प्रमुख भाग धार्मिक था। इस समय के अधिकांश साहित्य में धार्मिक कथाएँ, पौराणिक कथाएँ, और धर्मग्रंथों की व्याख्याएँ मिलती हैं। इस काल का साहित्य संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और प्रारंभिक हिंदी में लिखा गया।
- वीरगाथा काल: आदिकाल को वीरगाथा काल के नाम से भी जाना जाता है। इस समय का साहित्य मुख्यतः राजाओं और योद्धाओं की वीरता, शौर्य, और पराक्रम का वर्णन करता है। पृथ्वीराज रासो जैसे महाकाव्य इसी काल के उदाहरण हैं, जो राजपूत राजाओं के शौर्य की गाथाएँ गाते हैं। चंदबरदाई द्वारा रचित "पृथ्वीराज रासो" इस काल का प्रमुख काव्य है।
- लोक साहित्य: इस काल में लोक साहित्य का भी विकास हुआ। लोक गीत, लोक कथाएँ और कथनकाएं आम जनता के बीच प्रचलित थीं। ये साहित्यिक रूप मौखिक परंपराओं के माध्यम से पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे थे। इनमें समाज के विभिन्न वर्गों की कहानियाँ, उनके संघर्ष और उनके जीवन का वर्णन मिलता है।
- भक्ति साहित्य की प्रारंभिक झलक: यद्यपि भक्ति आंदोलन का उभार आदिकाल के बाद हुआ, लेकिन इस काल में भक्ति भावना के कुछ संकेत मिलने लगे थे। कुछ कवियों और संतों ने धार्मिक भक्ति को अपनी रचनाओं का आधार बनाया, जिसमें भगवान के प्रति समर्पण और प्रेम की भावना व्यक्त की गई।
सारांश: आदिकाल के सामाजिक और साहित्यिक परिस्थितियाँ एक दूसरे से गहरे जुड़े हुए थे। जाति प्रथा, धार्मिक अनुष्ठान, और ग्रामीण जीवन के ढांचे ने समाज को एक विशेष दिशा में बांधा हुआ था। साहित्यिक दृष्टि से यह काल वीरगाथाओं, धार्मिक साहित्य, और लोक साहित्य का काल था। इन दोनों पहलुओं का समग्र प्रभाव आदिकाल के साहित्यिक और सांस्कृतिक धरोहर पर पड़ा, जिसने भारतीय समाज की धारा को आगे बढ़ाया।
सांस्कृतिक परिस्थितियाँ पर साक्षप्त 1टप्पणा ललाखए॥
आदिकाल की सांस्कृतिक परिस्थितियाँ मुख्यतः धर्म, लोक परंपराओं, और सामाजिक रीति-रिवाजों से प्रभावित थीं। इस समय में धार्मिक अनुष्ठान, यज्ञ, हवन और कर्मकांडों का समाज में गहरा प्रभाव था। कला, संगीत, और नृत्य भी धार्मिक उद्देश्यों के साथ जुड़े हुए थे। लोकगीत, लोकनृत्य, और लोककथाएँ समाज में सांस्कृतिक जीवन का अभिन्न हिस्सा थीं। धार्मिक स्थलों, मंदिरों, और तीर्थयात्राओं का सांस्कृतिक महत्व था। कुल मिलाकर, आदिकाल की संस्कृति धर्म और लोक जीवन की जड़ों में बसी हुई थी, जिसने समाज को एकरूपता और संरचना प्रदान की।
इकाई
4: विस्तृत विवरण और व्याख्या
परिचय
आदिकालीन साहित्यिक परंपरा एक विशेष कालखंड का प्रतिनिधित्व करती है, जिसमें जैन, सिद्ध, नाथ और रासों साहित्य का उभरना और प्रसार हुआ। इस अवधि में इन साहित्यिक धाराओं का जनता के बीच व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ। इस इकाई में, हम इन सभी साहित्यिक परंपराओं के विभिन्न पहलुओं को विस्तार से समझेंगे।
अध्ययन के पश्चात् छात्र निम्नलिखित सीखने में सक्षम होंगे:
- आदिकालीन साहित्यिक परंपरा के बारे में गहन जानकारी प्राप्त करेंगे।
- सिद्ध साहित्य तथा जैन साहित्य की विशेषताओं को समझेंगे।
- नाथ साहित्य और रासों साहित्य के संदर्भ में विस्तृत ज्ञान अर्जित करेंगे।
1. प्रस्तावना
आदिकालीन साहित्यिक परंपरा को सिद्ध, जैन, नाथ और रासों साहित्य के विकास और प्रसार का महत्वपूर्ण काल माना जाता है। इस काल में विभिन्न साहित्यिक धारा, जो प्रमुखतः धर्म और सामाजिक चेतना से प्रेरित थीं, जन-भाषा में लिखी गईं। सिद्धों ने बौद्ध धर्म के वज्रयान तत्व का प्रचार करने के लिए साहित्य रचना की, जबकि जैन साधुओं ने अपने धर्म के प्रसार के लिए हिंदी काव्य का सहारा लिया। नाथ पंथ की रचनाएँ और रासों काव्य भी इसी काल में विकसित हुए।
2. सिद्ध साहित्य
2.1 परिचय
सिद्ध साहित्य का मुख्य उद्देश्य बौद्ध धर्म के वज्रयान तत्व का प्रचार करना था। सिद्ध कवियों ने जन-भाषा में साहित्य की रचना की। राहुल सांकृत्यायन ने चौरासी सिद्धों का उल्लेख किया है, जिनमें से सिद्ध सरहपा से यह साहित्य प्रारंभ होता है। प्रमुख सिद्ध कवियों में सरहपा, शबरपा, लुइपा, डोम्भपा, कण्हपा और कुक्करपा शामिल हैं। इनके साहित्य में पाखंड और आडंबर का विरोध, सहज योग मार्ग का प्रचार, और समाज में व्याप्त कुरीतियों का विरोध देखने को मिलता है।
2.2 प्रमुख सिद्ध कवि और उनके काव्य
1.
सरहपा:
o सरहपा, जिन्हें सरहपाद, सरोजवज, और राहुलभद्र के नाम से भी जाना जाता है, एक प्रमुख सिद्ध कवि थे। उनका जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था। उनकी रचनाओं में "दोहाकोश" प्रसिद्ध है, जिसमें उन्होंने पाखंड और आडंबर का विरोध किया और गुरु-सेवा को महत्व दिया।
o उदाहरण:
"नाद न बदु न राव न शाश मण्डल,
1चअयाअ सहाबे मूकला।"
2.
शबरपा:
o शबरपा का जन्म क्षत्रिय कुल में हुआ और सरहपा से उन्होंने ज्ञान प्राप्त किया। उन्होंने "चर्यापद" नामक पुस्तक की रचना की, जिसमें माया-मोह का विरोध और सहज जीवन का समर्थन किया गया है।
o उदाहरण:
"होर ये मोर तइला बाड़ा खसमे समदुला,
पुकड़ए सेरे कपासु फुटला।"
3.
लुइपा:
o लुइपा का जन्म कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी साधना का प्रभाव इतना गहरा था कि तत्कालीन राजा और मंत्रि भी उनके शिष्य बन गए। उनके साहित्य में रहस्य-भावना प्रमुख थी।
o उदाहरण:
"क्राआ तरुवर पच 7वडाल, चचल चाए पह़ठो काल।"
4.
डोम्भपा:
o डोम्भपा का जन्म मगध के क्षत्रिय वंश में हुआ था। उनके द्वारा रचित कई ग्रंथों में "डोम्ब-गातका" और "योगचर्या" प्रमुख हैं।
o उदाहरण:
"गगा जउना माझेरे बहर नाइ,
वाह ब्रड़ला माताय पोड़आला ले पार करई।"
5.
कण्हपा:
o कण्हपा का जन्म कर्नाटक के ब्राह्मण वंश में हुआ था। उन्होंने नाथ पंथ की रचनाओं में रहस्यात्मक भावनाओं को उभारा।
o उदाहरण:
"आगम वेअ पुराणे, पाडत मान बहात।"
6.
कुक्करपा:
o कुक्करपा का जन्म कपिलवस्तु के ब्राह्मण कुल में हुआ था। उनके गुरु चर्पटाया थे, और वे सहज जीवन के समर्थक थे।
o उदाहरण:
"हाउ 1नवासा खम्ण भतारे, मोहोर 1वरगोआ कहण न जाइ।"
3. जैन साहित्य
3.1 परिचय
जैन साहित्य का विकास पश्चिमी भारत में हुआ। जैन साधुओं ने अपने धर्म के प्रचार के लिए हिंदी काव्य का सहारा लिया। जैन साहित्य में प्रमुख रूप से आचार, रास, फागु और चारित शैलियों का प्रयोग हुआ। "रास" शैली जैन साहित्य का सबसे लोकप्रिय रूप थी, जिसमें जैन तीर्थंकरों के जीवन-चरित और वैष्णव अवतारों की कथाएँ पद्यबद्ध की गईं।
3.2 प्रमुख जैन साहित्य
- आचार शैली: इसमें घटनाओं के स्थान पर उपदेशात्मकता को प्रमुखता दी गई है।
- रास शैली: जैन साहित्य में रास शैली का व्यापक रूप से प्रयोग हुआ। जैन साधु "रास" की पद्यबद्ध रचनाएँ करते थे और रात में मठों में इसका गायन किया जाता था।
3.3 रास काव्य का महत्व
रास काव्य जैन साहित्य का सबसे महत्वपूर्ण और लोकप्रिय रूप था। लोक जीवन में कृष्ण की लीलाओं को "रास" के रूप में प्रस्तुत किया गया। जैन साधुओं ने इस शैली का प्रयोग जैन तीर्थंकरों के जीवन-चरित को प्रस्तुत करने में किया, जिससे यह शैली जनता के बीच व्यापक रूप से लोकप्रिय हो गई।
उपसंहार: सिद्ध और जैन साहित्य ने आदिकालीन हिंदी साहित्य को समृद्ध किया। इस साहित्य ने न केवल धार्मिक और सामाजिक चेतना को उभारा, बल्कि काव्य की प्रवृत्तियों को भी नई दिशा दी। इन साहित्यिक परंपराओं का प्रभाव भक्तिकाल तक चलता रहा, और इनका योगदान हिंदी साहित्य में अविस्मरणीय है।
नाथ-साहित्य का विस्तृत विवरण
1. नाथ-साहित्य का परिचय
नाथ-साहित्य की उत्पत्ति का प्रारंभ आदिकाल में नाथपंथियों की हठयोग साधना से हुआ। नाथपंथ को प्राचीन परंपरा का एक महत्वपूर्ण अंग माना जाता है, जो भोगप्रधान वाममार्गी साधना के रूप में विकसित हुआ। राहुल सांकृत्यायन ने इसे एक पंथ के रूप में मान्यता दी है, और इस पंथ के प्रमुख संत मत्स्येंद्रनाथ (मत्स्यनाथ) और गोरखनाथ थे। डॉ. रामकुमार वर्मा ने नाथ-पंथ के चरमोत्कर्ष को बारहवीं से चौदहवीं शताब्दी के बीच माना है। उनका मानना है कि नाथ-पंथ से भक्ति काल के संत-मत का विकास हुआ था, और इसके प्रमुख काव्य उदाहरण भी उपलब्ध हैं।
2. नाथ-पंथ और सिद्ध-संप्रदाय
नाथ-पंथ और सिद्ध-संप्रदाय के नाम भिन्न होते हुए भी, ये दोनों एक ही परंपरा से जुड़े हुए थे। डॉ. हजाराप्रसाद द्विवेदी के अनुसार, नाथ-पंथ, सिद्ध-मत, योग-मत, अवधूत-मत इत्यादि सभी एक ही परंपरा के नाम थे। मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ ने सिद्धों के अनुयायी होते हुए भी नाथ-पंथ का विरोध किया था, जिससे दोनों मार्गों में भिन्नता उत्पन्न हुई। सिद्ध-पंथ भोग प्रधान था, जबकि नाथ-पंथ ने योग और साधना पर बल दिया।
3. गोरखनाथ का योगदान
गोरखनाथ नाथ-साहित्य के प्रमुख रचनाकार माने जाते हैं। वे मत्स्येंद्रनाथ के शिष्य थे, लेकिन उन्होंने सिद्धों के मार्ग का विरोध किया। गोरखनाथ का समय विभिन्न विद्वानों के अनुसार भिन्न-भिन्न माना जाता है: राहुल सांकृत्यायन ने 845 ई. माना, जबकि डॉ. रामकुमार वर्मा ने बारहवीं शताब्दी का समय स्वीकार किया। गोरखनाथ ने कई ग्रंथों की रचना की, जिनकी संख्या चालीस के आसपास मानी जाती है। डॉ. पाटाबर दत्त बड़थ्वाल ने उनकी बारह रचनाओं की पहचान की है।
4. गोरखनाथ की रचनाएँ और उनका प्रभाव
गोरखनाथ ने अपने ग्रंथों में हठयोग, शून्य समाधि, प्राण साधना, और वैराग्य के विभिन्न पहलुओं का वर्णन किया है। उनके ग्रंथों में शाक्त, बौद्ध, जैन और वैष्णव योगमार्गों के अंश भी शामिल हैं। गोरखनाथ के साहित्य ने भक्ति काल में कई प्रवृत्तियों को जन्म दिया। उनकी रचनाएँ भक्ति और ज्ञान मार्ग के बीच के काव्य रूप को दर्शाती हैं।
5. अन्य नाथ-काव्य
नाथ-साहित्य के विकास में अन्य काव्यकारों ने भी योगदान दिया, जैसे चौरगानाथ, गोपाचार्य, चुणकरनाथ, मरठरा, जलध्रापाव आदि। इन काव्यों में उपदेशात्मकता और खंडन-मंडन की प्रवृत्तियाँ प्रमुख थीं। ये काव्य गोरखनाथ के भावों का अनुकरण करते हुए लिखे गए थे।
6. बासलदेव रासो
“बासलदेव रासो” एक महत्वपूर्ण काव्य ग्रंथ है जिसे नरपात नाल्ह काब ने 1155 ई. में लिखा। यह काव्य गेय था और इसके रूप में समय के साथ परिवर्तन हुआ। इस काव्य का रचना काल भी विभिन्न विद्वानों द्वारा अलग-अलग माना गया है। डॉ. मोतीलाल मेनारया और डॉ. माताप्रसाद गुप्त ने इसके प्राचीनता पर विभिन्न मत व्यक्त किए हैं, लेकिन यह मान्यता है कि यह चौदहवीं शताब्दी में लिखा गया था।
बिंदुवार सारांश
1.
नाथ-साहित्य का प्रारंभ: नाथ-पंथ का आरंभ आदिकाल में नाथपंथियों की हठयोग साधना से हुआ। यह भोगप्रधान वाममार्गी साधना के रूप में विकसित हुआ।
2.
नाथ-पंथ और सिद्ध-संप्रदाय: नाथ-पंथ और सिद्ध-संप्रदाय भिन्न नाम होते हुए भी एक ही परंपरा के अंग थे। नाथ-पंथ ने योग और साधना पर जोर दिया, जबकि सिद्ध-पंथ भोग प्रधान था।
3.
गोरखनाथ का योगदान: गोरखनाथ नाथ-साहित्य के प्रमुख रचनाकार हैं। उनके समय की पहचान विभिन्न विद्वानों द्वारा की गई है। उन्होंने कई महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की।
4.
गोरखनाथ की रचनाएँ: गोरखनाथ ने हठयोग, प्राण साधना, और वैराग्य पर अपने ग्रंथों में विस्तृत वर्णन किया है। उनकी रचनाएँ भक्ति और ज्ञान मार्ग के बीच के काव्य रूप को दर्शाती हैं।
5.
अन्य नाथ-काव्य: अन्य नाथ काव्यकारों ने भी नाथ-साहित्य में योगदान दिया, जिनकी रचनाएँ गोरखनाथ के भावों का अनुकरण करती हैं।
6.
बासलदेव रासो: “बासलदेव रासो” एक महत्वपूर्ण गेय काव्य ग्रंथ है, जिसका रचना काल और रूप में परिवर्तन पर विभिन्न मत हैं।
इस प्रकार, नाथ-साहित्य की परंपरा और इसके प्रमुख ग्रंथों का अध्ययन नाथ-पंथ की विशेषताओं और उनके साहित्यिक योगदान को समझने में सहायक होता है।
अभ्यास-प्रश्न
सद्ध- साहित्य के मुख्य [सद्धों के वषय मे उल्लेख काजए।
सद्ध-साहित्य एक महत्वपूर्ण साहित्यिक धारा है जो विशेष रूप से भक्ति आंदोलन के दौरान विकसित हुई। इसके अंतर्गत आने वाले प्रमुख सद्ध और उनके साहित्य का विवरण निम्नलिखित है:
1. सद्ध साहित्य की विशेषताएँ
- आध्यात्मिक और भक्ति विचारधारा: सद्ध-साहित्य में आत्मा की शुद्धता, ईश्वर की भक्ति, और मोक्ष की प्राप्ति पर बल दिया गया।
- साधना और योग: इसमें हठयोग और ध्यान की विधियों को प्रमुखता दी गई।
- सामाजिक सुधार: सद्ध-साहित्य में जातिवाद और सामाजिक भेदभाव के खिलाफ विचार व्यक्त किए गए।
2. मुख्य सद्ध और उनके योगदान
1.
मत्स्येद्रनाथ (मछंदरनाथ)
o जीवनकाल: 8वीं-9वीं सदी
o योग्यता: वे नाथ पंथ के प्रमुख गुरु माने जाते हैं। उनका साहित्य हठयोग और तंत्र-मंत्र पर आधारित है।
o मुख्य काव्य: उनका साहित्य विभिन्न ध्यान विधियों और साधना से संबंधित था।
2.
गोरखनाथ (गोरखनाथ)
o जीवनकाल: 9वीं-10वीं सदी
o योग्यता: गोरखनाथ नाथ पंथ के एक प्रमुख संत और योगी थे। उन्होंने हठयोग को महत्वपूर्ण बनाया और इसका प्रचार किया।
o मुख्य काव्य: उनके प्रमुख ग्रंथों में 'गोरख बानी', 'गोरख बोध', और 'सप्तवार' शामिल हैं। इन ग्रंथों में योग और ध्यान की विधियों का विस्तृत वर्णन है।
3.
चौरगानाथ
o जीवनकाल: 13वीं सदी
o योग्यता: वे नाथ पंथ के एक प्रमुख कवि थे और उनके काव्य में सामाजिक सुधार और ध्यान की विधियों का वर्णन है।
o मुख्य काव्य: उनके काव्य में उपदेशात्मकता और तात्त्विक विचार प्रमुख हैं।
4.
गोपाचार्य
o जीवनकाल: 13वीं सदी
o योग्यता: गोपाचार्य ने भक्ति और योग पर आधारित कविताएँ लिखीं। उनका साहित्य गोरखनाथ के विचारों का अनुसरण करता है।
o मुख्य काव्य: उनके काव्य में गुरु-महत्मा, योग, और साधना पर बल दिया गया है।
5.
चुणकरनाथ
o जीवनकाल: 14वीं सदी
o योग्यता: चुणकरनाथ ने गोरखनाथ के विचारों को अपनाया और उनका प्रचार किया। उनके काव्य में ध्यान और योग की विधियाँ वर्णित हैं।
o मुख्य काव्य: उनके ग्रंथ उपदेशात्मक होते हैं और योग के विभिन्न पहलुओं को दर्शाते हैं।
6.
मरठरा
o जीवनकाल: 14वीं सदी
o योग्यता: मरठरा ने भी गोरखनाथ के विचारों का प्रचार किया और उनके काव्य में योग और ध्यान की विधियों का वर्णन किया।
o मुख्य काव्य: उनके साहित्य में साधना और ध्यान की विधियाँ प्रमुख हैं।
7.
जलध्रापाव
o जीवनकाल: 15वीं सदी
o योग्यता: जलध्रापाव ने नाथ पंथ के सिद्धांतों को अपने साहित्य में जगह दी और योग के महत्व को बताया।
o मुख्य काव्य: उनके ग्रंथों में ध्यान और साधना की विधियों का विस्तार से वर्णन है।
3. सद्ध-साहित्य का प्रभाव
- भक्ति आंदोलन: सद्ध-साहित्य ने भक्ति आंदोलन को सशक्त किया और धार्मिक भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाई।
- योग और साधना: हठयोग और ध्यान की विधियों का प्रचार किया गया, जिससे समाज में आध्यात्मिक जागरूकता बढ़ी।
- सामाजिक सुधार: जातिवाद और सामाजिक भेदभाव को समाप्त करने के लिए विचार दिए गए।
सद्ध-साहित्य की यह विशेषताएँ और मुख्य सद्ध इसके महत्व को दर्शाते हैं और यह दर्शाते हैं कि कैसे भक्ति और योग की धाराओं ने भारतीय समाज को प्रभावित किया।
जैन- साहित्य से क्या तात्पर्य हे? की विचारधारा से बताइए॥
जैन-साहित्य (Jain Literature) वह साहित्यिक धारा है जो जैन धर्म की विचारधारा, धर्मशास्त्र, और परंपराओं को प्रतिबिंबित करती है। यह साहित्य जैन धर्म के पंथ, उसके अनुयायियों, और उनके धार्मिक ग्रंथों पर आधारित होता है। जैन-साहित्य की विशेषताएँ और मुख्य पहलू निम्नलिखित हैं:
1. जैन धर्म का परिचय
जैन धर्म एक प्राचीन भारतीय धर्म है, जिसकी स्थापना महावीर (वर्धमान) द्वारा की गई मानी जाती है। यह धर्म अहिंसा, अपरिग्रह (निरattachment), और आत्म-संयम पर जोर देता है। जैन धर्म के अनुसार, जीवात्मा का परम उद्देश्य मोक्ष (निर्वाण) प्राप्त करना होता है, जो केवल आत्म-संयम और आत्म-शुद्धि द्वारा संभव है।
2. जैन-साहित्य की विशेषताएँ
- धार्मिक और दार्शनिक विषय: जैन-साहित्य में अहिंसा, आत्म-शुद्धि, और तपस्या जैसे विषयों पर गहराई से विचार किया गया है। इसमें कर्म, पुनर्जन्म, और मोक्ष के सिद्धांतों पर भी ध्यान दिया गया है।
- ग्रंथों का विविधता: जैन-साहित्य में विभिन्न प्रकार के ग्रंथ शामिल हैं, जैसे:
- आगम ग्रंथ: ये जैन धर्म के प्रमुख धार्मिक ग्रंथ हैं जो जैन सिद्धांतों, उपदेशों, और धर्मशास्त्रों को समेटे हुए हैं।
- प्रकृति और उपनिषद ग्रंथ: इन ग्रंथों में जैन दर्शन और तत्त्वज्ञान का विश्लेषण किया गया है।
- काव्य और नाट्य साहित्य: जैन-साहित्य में कई काव्य और नाट्य ग्रंथ भी शामिल हैं, जो जैन धर्म के आदर्शों और महापुरुषों की जीवन-गाथाओं को वर्णित करते हैं।
- भाषा और शैली: जैन-साहित्य की भाषा प्रायः संस्कृत, प्राकृत, और अपभ्रंश होती है। इन भाषाओं में लिखे गए ग्रंथ जैन धर्म के विचारों को स्पष्टता और गहराई से व्यक्त करते हैं।
3. प्रमुख जैन-साहित्यिक ग्रंथ
1.
आगम ग्रंथ
o सूत्र: ये ग्रंथ जैन धर्म के मूल सिद्धांतों और धार्मिक अनुशासन को प्रस्तुत करते हैं।
o उपदेश: इनमें जैन धर्म के आचार-विचार, तत्त्वज्ञान, और साधना की विधियों का वर्णन होता है।
2.
भगवती सूत्र
o विवरण: यह ग्रंथ जैन धर्म के महत्वपूर्ण धार्मिक ग्रंथों में से एक है, जिसमें जैन धर्म के तत्त्वज्ञान और आचार-विचार की विस्तार से चर्चा की गई है।
3.
उत्तराध्ययन सूत्र
o विवरण: यह ग्रंथ जैन धर्म के धार्मिक और दार्शनिक सिद्धांतों को प्रस्तुत करता है और इसमें आत्मा, कर्म, और मोक्ष के सिद्धांतों पर चर्चा की गई है।
4.
पंचमहाप्राणी
o विवरण: यह ग्रंथ जैन धर्म के पंच महाप्राणियों (महावीर, शीतलनाथ, आदि) की जीवन-गाथाओं और उनके शिक्षाओं को प्रस्तुत करता है।
5.
जैन काव्य और नाट्य साहित्य
o काव्य: जैन काव्य ग्रंथों में जैन धर्म के महापुरुषों की कहानियाँ, उपदेश, और धार्मिक विषयों पर आधारित कविताएँ होती हैं।
o नाट्य: जैन नाट्य साहित्य में धार्मिक और दार्शनिक नाटकों का वर्णन होता है, जो जैन धर्म के आदर्शों को प्रस्तुत करते हैं।
4. जैन-साहित्य का प्रभाव
- धार्मिक शिक्षा: जैन-साहित्य जैन धर्म के अनुयायियों को धार्मिक शिक्षा और प्रेरणा प्रदान करता है, जिससे वे अपने जीवन को अधिक आध्यात्मिक बना सकें।
- सांस्कृतिक संरक्षण: यह साहित्य जैन धर्म की सांस्कृतिक धरोहर और परंपराओं को संरक्षित करता है, जिससे आने वाली पीढ़ियाँ भी जैन धर्म के आदर्शों और मूल्यों से अवगत हो सकें।
- दर्शन और नैतिकता: जैन-साहित्य में नैतिक और दार्शनिक विचारों का समावेश होता है, जो समाज में नैतिकता और सच्चाई की भावना को प्रोत्साहित करते हैं।
निष्कर्ष
जैन-साहित्य जैन धर्म की धार्मिक, दार्शनिक, और सांस्कृतिक धरोहर को प्रदर्शित करता है। इसके ग्रंथ जैन धर्म के तत्त्वज्ञान, आचार-विचार, और साधना विधियों को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करते हैं और जैन धर्म की अनुशासनिक और आध्यात्मिक परंपराओं को संरक्षित करते हैं।
रासो- साहित्य से क्या आभप्राय है? ॥वस्तार से उल्लेख काजए।
रासो-साहित्य (Raso Literature) भारतीय साहित्य की एक महत्वपूर्ण और विशिष्ट धारा है, जो विशेषकर प्राचीन काव्य और ऐतिहासिक महाकाव्यों की एक शैली को दर्शाती है। यह साहित्य प्रायः शौर्य, वीरता, और ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित होता है। इसका नाम "रासो" शब्द से आया है, जो संस्कृत के 'रास' (कहानी या वर्णन) से संबंधित है।
रासो-साहित्य की विशेषताएँ
1.
ऐतिहासिक और वीरगाथाएँ:
o रासो-साहित्य में ऐतिहासिक घटनाओं और वीरगाथाओं का वर्णन प्रमुख रूप से किया जाता है। इसमें विशेषकर राजा, योद्धा, और उनके शौर्य की कथाएँ शामिल होती हैं।
o यह साहित्य ऐतिहासिक व्यक्तित्वों के युद्ध, विजय, और संघर्षों को नाटकीय और काव्यात्मक रूप में प्रस्तुत करता है।
2.
काव्यात्मक शैली:
o रासो-साहित्य काव्यात्मक शैली में लिखा जाता है, जिसमें भव्य वर्णन, अलंकरण, और छंदों का उपयोग होता है।
o इसमें काव्यात्मकता और लयबद्धता को बनाए रखने के लिए विशेष छंद और रचनात्मक शिल्प का प्रयोग किया जाता है।
3.
लोककथाएँ और जनसाधारण के अनुभव:
o इस साहित्य में लोककथाएँ, जनसाधारण की अनुभूतियाँ, और सांस्कृतिक परंपराओं का भी समावेश होता है।
o यह साहित्य जनता की सांस्कृतिक और सामाजिक धारणाओं को प्रस्तुत करता है।
4.
धार्मिक और धार्मिक तत्व:
o रासो-साहित्य में धार्मिक और धार्मिक पौराणिक कथाओं का भी समावेश हो सकता है, विशेषकर उन संदर्भों में जहाँ धार्मिक कथाएँ ऐतिहासिक घटनाओं से जुड़ी होती हैं।
प्रमुख रासो-ग्रंथ
1.
पृथ्वीराज रासो:
o लेखक: चंदबरदाई
o यह ग्रंथ पृथ्वीराज चौहान के शौर्य और उनके युद्धों की गाथा को प्रस्तुत करता है। इसमें पृथ्वीराज चौहान की वीरता, उनके युद्ध और उनके राज्य की घटनाओं का वर्णन किया गया है।
2.
रतनसेन रासो:
o लेखक: आचार्य चंद्रकांत
o यह ग्रंथ रतनसेन नामक राजा की गाथा को प्रस्तुत करता है और उसमें राजा की वीरता और उसकी ऐतिहासिक महत्वता का वर्णन है।
3.
कृष्ण रासो:
o लेखक: नंददास
o यह ग्रंथ कृष्ण भगवान की गाथा को प्रस्तुत करता है, जिसमें कृष्ण के जीवन की प्रमुख घटनाओं और उनके वीरता की कहानियाँ शामिल हैं।
रासो-साहित्य का महत्व
1.
साहित्यिक धरोहर:
o रासो-साहित्य भारतीय साहित्य की समृद्ध धरोहर को प्रस्तुत करता है और ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है।
2.
इतिहास और संस्कृति का अध्ययन:
o यह साहित्य इतिहासकारों और शोधकर्ताओं के लिए एक महत्वपूर्ण स्रोत होता है, जो प्राचीन भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक, और राजनीतिक स्थितियों को जानने में सहायक होता है।
3.
सांस्कृतिक जागरूकता:
o रासो-साहित्य भारतीय सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परंपराओं को संरक्षित और प्रचारित करता है, जिससे आने वाली पीढ़ियाँ अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ी रह सकती हैं।
निष्कर्ष
रासो-साहित्य भारतीय साहित्य की एक महत्वपूर्ण धारा है जो ऐतिहासिक घटनाओं, वीरगाथाओं, और काव्यात्मक शिल्प को प्रस्तुत करती है। इसमें ऐतिहासिक व्यक्तित्वों की वीरता, युद्धों की गाथाएँ, और सांस्कृतिक परंपराओं का वर्णन होता है। यह साहित्य भारतीय सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहर को संरक्षित करता है और प्राचीन भारतीय जीवन की झलक प्रदान करता है।
इकाई-5:
आदकालीन साहित्य परंपरा:
खुसरो
+ चंदबरदाई
प्रस्तावना
इस इकाई का उद्देश्य आदकालीन साहित्य की प्रमुख हस्तियों अमीर खुसरो और चंदबरदाई के काव्य योगदान को समझना है। इनकी रचनाएँ भारतीय साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं, जो न केवल उनके काल की सामाजिक और राजनीतिक स्थिति को उजागर करती हैं, बल्कि भाषा, संस्कृति, और प्रेम के अद्भुत रूपों का भी चित्रण करती हैं।
5.1 अमीर खुसरो का काव्य
अमीर खुसरो का परिचय अमीर खुसरो (1253-1325 ई.) भारतीय साहित्य के एक प्रमुख कवि थे, जिनका जन्म उत्तर प्रदेश के एटा जिले में हुआ था। उनका परिवार मध्य एशिया से भारत में आया था। वे दिल्ली सल्तनत के दरबार में एक प्रमुख कवि और संगीतज्ञ रहे। खुसरो ने फारसी और हिंदी दोनों भाषाओं में रचनाएँ कीं और भारतीय लोक साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया।
अमीर खुसरो के प्रमुख काव्य
1.
मतला-उल-अनवार:
o समय: 1298 ई.
o वर्णन: यह काव्य फारसी काव्य "नजामा" के उत्तर में लिखा गया है। इसमें खुसरो ने अपने इकलौते बेटे को उपदेश दिया है और उन्हें जीवन की महत्वपूर्ण सीखें प्रदान की हैं। इसमें बेटे को मेहनत करने और सच्चाई का पालन करने की सलाह दी गई है।
2.
जवाहर व खुसरो:
o समय: 1298 ई.
o वर्णन: इस काव्य में खुसरो ने प्रेम की भावना को अत्यंत सुंदरता से व्यक्त किया है। इसमें खुसरो ने प्रेम की गहराई और उसकी निरंतरता को रेखांकित किया है।
3.
मजनूँ व लैला:
o समय: 1299 ई.
o वर्णन: यह काव्य लैला-मजनूँ की प्रेम कहानी पर आधारित है। इसमें 2660 पद हैं, और प्रत्येक पद प्रेम की गहराई और भावनाओं का समर्पण करता है। यह काव्य अपनी कलात्मकता और भावनात्मक गहराई के लिए प्रसिद्ध है।
4.
आइने-आस्कदरा:
o समय: 1299 ई.
o वर्णन: इस काव्य में खुसरो ने नजामा के "सकदरनामा" का उत्तर दिया है। इसमें उन्होंने रोजा-रोटा, कला, और धार्मिकता की बात की है। इस काव्य के माध्यम से खुसरो ने सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन की महत्वपूर्ण बातें साझा की हैं।
5.
हशव-बाहश्त:
o समय: 1301 ई.
o वर्णन: यह काव्य फारसी का श्रेष्ठ काव्य माना जाता है। इसमें खुसरो ने ईरान के बहराम गोर और एक चाना हसाना की प्रेम गाथा का चित्रण किया है। इसमें खुसरो ने व्यक्तिगत दर्द और भावनाओं को व्यक्त किया है।
उदाहरण
1.
दोहा:
o प्रेम के उलटे धार और उसकी गहराई का वर्णन।
o जीवन की सच्चाई और प्रेम के वास्तविक स्वरूप पर ध्यान केंद्रित किया गया है।
2.
पद:
o प्रेम, श्रृंगार और भावनात्मक गहराई का अद्वितीय चित्रण।
o खुसरो ने प्रेम की जटिलताओं और उसकी सौंदर्यता को व्यक्त किया है।
3.
गजल:
o प्रेम की भावनाओं और रात की अंधेरी रातों का चित्रण।
o खुसरो ने प्रेम और उसके इंतजार की पीड़ा को सुंदरता से व्यक्त किया है।
5.2 चंदबरदाई का जीवन परिचय
चंदबरदाई का परिचय चंदबरदाई (1149-1200 ई.) एक हिंदू ब्राह्मण कवि थे, जिन्होंने पृथ्वीराज चौहान के दरबार में कवि के रूप में सेवाएँ दीं। उन्होंने पृथ्वीराज चौहान की सैन्य और राजनीतिक गतिविधियों का समर्थन किया और कई युद्धों में उनका साथ दिया।
चंदबरदाई की प्रमुख रचनाएँ
1.
पृथ्वीराज रासो:
o वर्णन: यह काव्य चंदबरदाई की प्रमुख रचना है। इसमें पृथ्वीराज चौहान के शासन और व्यक्तित्व का विस्तृत वर्णन है। यह ग्रंथ ब्रज भाषा में लिखा गया है और इसमें दस हजार से अधिक पद हैं। इसमें पृथ्वीराज चौहान के पराक्रम और उनके व्यक्तित्व की तारीफ की गई है।
उदाहरण
1.
पद:
o सुंदरता, कला और नायिका के गुणों का चित्रण।
o यह रचना प्रेम और सुंदरता के आदर्श मानकों को प्रस्तुत करती है।
5.3 विद्यापति का काव्य
विद्यापति का परिचय विद्यापति (14वीं शताब्दी) मैथिली भाषा के प्रमुख कवि थे। उनके काव्य में भक्ति, प्रेम और श्रृंगार रस का सुंदर मिश्रण मिलता है। उन्होंने अपनी रचनाओं में मध्यकालीन समाज और संस्कृति की झलक प्रस्तुत की है।
विद्यापति की प्रमुख रचनाएँ
1.
पदावली और काव्य:
o वर्णन: विद्यापति की रचनाएँ भक्ति और श्रृंगार रस में पगी हुई हैं। उनकी कविताओं में मैथिली भाषा का उत्कृष्ट प्रयोग और सांस्कृतिक प्रतिबिंब देखने को मिलता है।
उदाहरण
1.
पद:
o प्रेम और भक्ति की गहराई को व्यक्त करने वाले पद।
o सामाजिक और धार्मिक जीवन की छवि प्रस्तुत करते हुए।
इस इकाई के अध्ययन से विद्यार्थियों को अमीर खुसरो, चंदबरदाई, और विद्यापति की रचनाओं और उनके साहित्यिक योगदान को समझने में सहायता मिलेगी। इन काव्यों के माध्यम से मध्यकालीन भारतीय साहित्य और संस्कृति की गहराई को महसूस किया जा सकता है।
अभ्यास-प्रश्न
अमीर खुसरो के प्रमुख कृत्यों का परिचय दें।
अमीर खुसरो के प्रमुख कृत्यों का परिचय
1. मतला-उल-अनवार
रचना काल: 698 हिजरी (1298 ई.)
विशेषता: यह काव्य खुसरो की प्रमुख काव्य-रचनाओं में से एक है। इसमें खुसरो ने नजामा के "मखजनुल असरार" का जवाब दिया है। इस काव्य में खुसरो ने अपने एकलौते बेटे की सूरत की तारीफ की है। इस रचना में खुसरो ने अपने बेटे को महत्वपूर्ण उपदेश भी दिए हैं जैसे कि चर्खा न छोड़ना और इधर-उधर न झाँकना।
2. ज्ञारा व खुसरो
रचना काल: 698 हिजरी (1298 ई.)
विशेषता: यह काव्य नजामा के खुसरो और शारा का जवाब है। इसमें प्रेम का पार को ताब्रतर बनाने का प्रयास किया गया है। इस काव्य में खुसरो ने बड़े बेटे की तारीफ की है और इसमें भावात्मक तन्मयता की प्रधानता है। इस रचना के बारे में फैजा ने उल्लेख किया है कि ऐसा मसनवा सौ वर्षों में अन्य किसी ने नहीं लिखा। हालांकि, डा. असद अला के अनुसार, यह रचना अब उपलब्ध नहीं है और इसका पता लगाना चाहिए।
3. मजनूँ व लैला
रचना काल: 699 हिजरी (1299 ई.)
विशेषता: यह काव्य प्रेम और श्रृंगार की भावनाओं का चित्रण करता है। इसमें 2660 पद हैं, और प्रत्येक शेर गागर में सागर के समान है। इसमें लैला-मजनूँ की प्रेमकथा का चित्रण है, जिसमें मजनूँ का लैला के बारे में भावनात्मक और मर्मस्पर्शी वर्णन किया गया है। इस पुस्तक को प्रकाशित किया गया है और इसमें कलात्मक विशेषताएँ अन्य मसनवियों की तुलना में अद्वितीय हैं।
4. आइने-आसकदर या आसकदर नामा
रचना काल: 699 हिजरी (1299 ई.)
विशेषता: इस काव्य में आसकदर नामक नजामा के "सकदरनामा" का जवाब दिया गया है। इसमें सकदरे आजम और खाकाने चान की लड़ाई का वर्णन किया गया है। इस काव्य में खुसरो ने अपने छोटे बेटे की तारीफ की है और रोजा-रोटा कमाने, कुबते बाजू के रोटे को प्राथमिकता देने, कला सीखने, मजहब के प्रति पाबंद रहने और सच बोलने का महत्व बताया है। खुसरो ने इस रचना के माध्यम से यह दिखाया कि वे भी गनजामा की तरह प्रेमरस प्रधान मसनवा लिख सकते हैं।
5. हश्व-बाहश्त
रचना काल: 701 हिजरी (1301 ई.)
विशेषता: यह फारसा का सर्वश्रेष्ठ काव्य माना जाता है। इसमें ईरान के बहराम गोर और एक चाना हसाना के काल्पनिक प्रेम-गाथा का मार्मिक चित्रण है। इसमें खुसरो ने अपने व्यक्तिगत दर्द को भी उजागर किया है और यह काव्य भारत से संबंधित बातें कम करता है। मौलाना शबला ने इसे खुसरो की लेखन कला की चरमोत्कर्ष बताया है। इस काव्य में घटनाओं का चित्रण फारसी के किसी भी अन्य मसनवे की तुलना में उत्कृष्ट है।
उपसंहार
अमीर खुसरो की काव्य-रचनाएँ उनके समय की सामाजिक, सांस्कृतिक और भावनात्मक स्थिति को दर्शाती हैं। उनकी रचनाओं में प्रेम, श्रृंगार, और सामाजिक दृष्टिकोण की गहरी समझ और अद्वितीयता देखने को मिलती है। उनके काव्य साहित्य ने न केवल फारसी साहित्य को समृद्ध किया, बल्कि भारतीय साहित्य पर भी गहरा प्रभाव डाला।
“ससन परस खसु अम्बर रे देखल धान देह नव जलधर-तर चमकए रे जान बजुरा-देह उपरोक्त पाक्तयों का व्याख्या काजए।
यह पंक्ति अमीर खुसरो की कविता से है, जिसमें उन्होंने अपनी रचनात्मकता और वर्णनात्मक कला का अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किया है। यहाँ पंक्ति का व्याख्या इस प्रकार किया जा सकता है:
पंक्ति:
“ससन परस खसु अम्बर रे देखल धान देह नव जलधर-तर चमकए रे जान बजुरा-देह उपरोक्त”
व्याख्या:
1.
ससन परस खसु अम्बर रे:
इसमें "ससन" का तात्पर्य चाँद से है और "अम्बर" से तात्पर्य आकाश से है। इसका अर्थ है कि चाँद ने आकाश से संपर्क किया है, या फिर चाँद का आकाश में चमकना।
2.
देखल धान देह नव जलधर-तर चमकए रे:
"धान देह" से तात्पर्य है कि कुछ स्वर्णिम या चमकदार वस्त्र का वर्णन हो रहा है। "जलधर-तर चमकए" का अर्थ है पानी की बूँदों की तरह चमकना, जो एक विशिष्ट प्रकार की चमक को दर्शाता है। यहाँ पर, चाँद या आकाश की चमक की तुलना धान के समान चमकदार वस्त्र से की गई है।
3.
जान बजुरा-देह उपरोक्त:
"जान बजुरा-देह" का अर्थ है सुंदर शरीर या रूप। इस पंक्ति में यह संकेत किया गया है कि यह चमक या सौंदर्य इतना अद्भुत है कि यह सुंदरता या रूप के उच्चतम मानकों से मेल खाता है।
कुल मिलाकर:
यह पंक्ति एक रूपक (metaphor) का उपयोग करके चाँद की चमक को सुंदरता के उच्चतम मानक के रूप में प्रस्तुत करती है। इसमें चाँद के आकाश में चमकने की तुलना सोने के धान से की गई है और यह सौंदर्य और चमक की तुलना एक आदर्श रूप से की गई है। खुसरो ने इस कविता में इस अद्वितीय और मनोहक दृश्य को प्रस्तुत करके अपनी कला और कल्पना की गहराई को उजागर किया है।
अब्दुल रहाम का जाबन पारिचय दाजए॥
अब्दुल रहाम (Abdul Rahim) एक प्रसिद्ध हिंदी और फारसी कवि थे, जिनका पूरा नाम अब्दुल रहाम खान खानान था। वे मुग़ल साम्राज्य के काल में एक प्रमुख साहित्यकार और कवि के रूप में प्रसिद्ध हुए। उनके जीवन और कृतियों का पारिचय निम्नलिखित है:
जीवन परिचय:
- जन्म: अब्दुल रहाम का जन्म 1556 ई. में हुआ था। वे अकबर के दरबार के प्रमुख कवि और राजकर्मी थे।
- पिता: उनके पिता, अब्दुल रहाम खान, एक प्रसिद्ध सैन्य अधिकारी थे और मुग़ल साम्राज्य में उच्च पद पर थे।
- शिक्षा और प्रभाव: अब्दुल रहाम ने अपनी शिक्षा और संस्कार अपने परिवार से प्राप्त किए। उन्हें हिंदी, फारसी, और संस्कृत साहित्य का गहरा ज्ञान था, जो उनकी कविताओं और लेखनी में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है।
साहित्यिक कार्य:
- भक्ति कविताएँ: अब्दुल रहाम की कविताएँ मुख्य रूप से हिंदी और फारसी में लिखी गईं और वे भक्ति, प्रेम, और दार्शनिकता से भरपूर थीं। उनके काव्य में वे भारतीय संस्कृति और भारतीय भाषाओं की समृद्धि को प्रदर्शित करते हैं।
- प्रसिद्ध काव्य रचनाएँ: उनके प्रमुख काव्य रचनाओं में 'दीवान-ए-रहीम' (Rahiim's collection
of poetry) शामिल हैं। इन रचनाओं में भक्ति, प्रेम, और जीवन के विविध पहलुओं का चित्रण मिलता है।
- साहित्यिक शैली: उनकी कविता शैली में आस्था, सादगी, और जीवन के गहरे अनुभवों की अभिव्यक्ति होती है। उनके काव्य में हिंदी और फारसी के शब्दों का संगम देखने को मिलता है, जिससे उनकी कविताएँ बहुभाषीय और बहुसांस्कृतिक होती हैं।
विशेषताएँ:
- ज्ञान और शिक्षा: अब्दुल रहाम ने अपने समय के अन्य प्रमुख कवियों और लेखकों के साथ साहित्यिक विमर्श में भाग लिया और उन्होंने अपने ज्ञान और समझ को अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रस्तुत किया।
- दर्शन और उपदेश: उनकी कविताओं में दार्शनिक विचार और जीवन के गूढ़ सत्य का वर्णन मिलता है, जो उन्हें एक प्रमुख विचारक और लेखक बनाता है।
अब्दुल रहाम का साहित्यिक योगदान भारतीय साहित्य और संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा है। उनकी कविताओं में भारतीय जीवन और दर्शन का सुंदर चित्रण मिलता है, जो आज भी पाठकों और विद्वानों द्वारा सराहा जाता है।
इकाई-6:
आदिकालीन साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ
उद्देश्य:
इस इकाई के अध्ययन के पश्चात् विद्यार्थी निम्नलिखित बातें जानने में सक्षम होंगे:
- आदिकालीन साहित्य की प्रमुख विशेषताओं को पहचानने में।
- आदिकाल में रासो साहित्य की रचना की जानकारी प्राप्त करने में।
- ग्रंथों में पाई जाने वाली विभिन्न छंदों, भाषाओं और अलंकारों के स्वाभाविक समावेश को समझने में।
प्रस्तावना:
आदिकालीन साहित्य की प्रवृत्तियों को तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। आदिकाल मुख्यतः रासो साहित्य की रचना का युग था। रासो ग्रंथों में अनेक ग्रंथ समय के साथ परिवर्तित और परिष्कृत हुए, किन्तु उनका मूल रूप आदिकाल में ही रचा गया, यह प्रमाणित हो चुका है। इसलिए यह कहना उचित होगा कि रासो साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ ही आदिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ मानी जा सकती हैं।
6.1 आदिकालीन साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ/विशेषताएँ
6.1.1. काव्य ग्रंथों में ऐतिहासिकता, युद्ध वर्णन में सजगता और प्रमाणिकता में संदेह:
1.
ऐतिहासिकता का अभाव:
o रासो साहित्य के चरित्र नायक ऐतिहासिक व्यक्तित्व हैं, किन्तु इन काव्य ग्रंथों में ऐतिहासिकता का पालन नहीं किया गया है। इन ग्रंथों में तथ्य की अपेक्षा कल्पना अधिक है, जिसके परिणामस्वरूप ऐतिहासिक भ्रांतियाँ उत्पन्न हुईं। इन ग्रंथों के रचनाकारों ने जो वर्णन किए हैं, वे तत्कालीन इतिहास से मेल नहीं खाते। ऐतिहासिक चरित्रों को लेकर लिखे गए काव्य ग्रंथों में जिस सावधानी की अपेक्षा होती है, उससे ये ग्रंथ विमुख रहे हैं।
2.
युद्ध वर्णन में सजगता:
o रासो ग्रंथों में किए गए युद्ध वर्णन सजग प्रतीत होते हैं। जहाँ-जहाँ युद्ध वर्णन के प्रसंग हैं, वहाँ ऐसा प्रतीत होता है जैसे कवि युद्ध का आँखों देखा हाल सुना रहे हैं। चारण कवि कलम के ही नहीं, तलवार के भी धनी थे, और युद्ध के दृश्यों को उन्होंने अपनी आँखों से देखा था। अतः युद्ध वर्णन में जो कुछ भी कहा गया है, वह उनका अपना वास्तविक अनुभव है।
3.
प्रमाणिकता में संदेह:
o आदिकाल के अधिकांश रासो काव्यों की प्रमाणिकता संदिग्ध है। पृथ्वीराज रासो, जिसे इस काल की प्रमुख रचना बताया गया है, भी अप्रमाणिक मानी गई है। खुमान रासो और परमाल रासो की प्रमाणिकता भी संदिग्ध है। मूल काव्य की रचना में अन्य लोगों ने कब और कितना संशोधन किया है, यह निर्धारित करना कठिन है।
6.1.2. रासो काव्य ग्रंथों में वीर एवं श्रृंगार रस की प्रधानता, आश्रयदाताओं की प्रशंसा, संकुचित राष्ट्रवादिता और कल्पना की प्रचुरता:
1.
वीर एवं श्रृंगार रस की प्रधानता:
o रासो ग्रंथों में यद्यपि सभी रसों का समावेश हुआ है, किन्तु वीर एवं श्रृंगार रस की प्रधानता इनमें विशेष रूप से दिखाई देती है। युद्धों का वर्णन होने से वीर रस का संयोग इनमें स्वाभाविक रूप से हो गया है। युद्ध, शौर्य-प्रदर्शन के लिए और सुंदर राजकुमारियों से विवाह करने के उद्देश्य से लड़े जाते थे, अतः श्रृंगार रस के भावपूर्ण वर्णनों का समावेश भी इन काव्य ग्रंथों में हो गया है।
2.
आश्रयदाताओं की प्रशंसा:
o रासो ग्रंथों के रचयिता चारण कहलाते थे और अपने आश्रयदाता राजाओं की प्रशंसा में काव्य रचना करना अपना परम कर्तव्य मानते थे। अपने चरित्र नायक की श्रेष्ठता एवं प्रताप का वर्णन अतिशयोक्ति के साथ करना इन चारणों की प्रमुख विशेषता थी। दरबारी काव्य होने के कारण इन काव्यों ने आश्रयदाता के शौर्य, यश, और वैभव का काल्पनिक एवं अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया है।
3.
संकुचित राष्ट्रवादिता:
o इस काल में युद्ध का वर्णन तो बहुत हुआ, परंतु स्वदेशाभिमान एवं राष्ट्रवादिता का अभाव था। देश छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था, और इन छोटे-छोटे राज्यों के शासक परस्पर कलह और संघर्ष में लगे रहते थे। वे अपने छोटे-छोटे राज्यों को ही राष्ट्र समझते थे, अतः उनमें संपूर्ण भारत को एक राष्ट्र के रूप में देखने का दृष्टिकोण नहीं था।
4.
कल्पना की प्रचुरता:
o चारण काव्यों की रचनाएँ तथ्यपरक न होकर कल्पना प्रधान हैं। इन रचनाओं में ऐतिहासिक पात्र तो हैं, परंतु इतिहास नाममात्र को है। कवियों ने कल्पना का सहारा लेते हुए घटनाओं, नामावलियों एवं तथ्यों का भी कल्पना से निर्माण किया है। वस्तुतः इन रासो काव्यों में संभावना और कल्पना पर अधिक बल दिया गया है, तथ्यों पर कम।
इस प्रकार आदिकालीन साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ तत्कालीन परिस्थितियों और सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश के आधार पर विकसित हुईं, जो मुख्यतः रासो साहित्य के माध्यम से अभिव्यक्त हुईं।
अभ्यास प्रश्न
आदिकालीन साहित्य के प्रमुख प्रवृत्तियाँ का उल्लेख काजए।
आदिकालीन साहित्य के प्रमुख प्रवृत्तियाँ इस प्रकार से हैं:
1. रासो साहित्य की प्रमुखता:
- आदिकाल में मुख्य रूप से रासो साहित्य का विकास हुआ। ये साहित्य वीरगाथा काल के रूप में भी जाना जाता है।
- रासो ग्रंथों में इतिहास, शौर्य, युद्ध और वीरता का वर्णन प्रमुखता से मिलता है।
- इनमें ऐतिहासिक घटनाओं के साथ काल्पनिक वर्णन भी देखने को मिलता है।
2. इतिहासिकता का अभाव:
- रासो साहित्य में ऐतिहासिकता की कमी है। ग्रंथों में अधिकतर वर्णन कल्पना पर आधारित हैं।
- वास्तविक घटनाओं और व्यक्तियों का वर्णन होते हुए भी, साहित्य में इतिहास के तथ्य पूर्ण रूप से संगत नहीं होते।
3. युद्ध और वीरता का वर्णन:
- रासो ग्रंथों में युद्धों का अत्यंत विस्तार से और सजीव वर्णन मिलता है। इन ग्रंथों में युद्ध के दृश्य और वीर योद्धाओं का उत्साह वर्णित किया गया है।
- युद्ध के दौरान वीरों की मनोभावनाओं और शौर्य को विशेष रूप से उजागर किया गया है।
4. प्रशंसात्मक साहित्य:
- रासो ग्रंथों के लेखक अपने आश्रयदाताओं की प्रशंसा में रचनाएँ करते थे। ये साहित्य राजाओं और योद्धाओं की वीरता और गुणों का गुणगान करता है।
- चारण काव्य का मुख्य उद्देश्य अपने संरक्षक का गुणगान करना और उनके शौर्य का वर्णन करना था।
5. राष्ट्रवाद की कमी:
- इस काल में राष्ट्रवाद का अभाव था। साहित्य में किसी बड़े राष्ट्र या देश के प्रति प्रेम और एकता की भावना दिखाई नहीं देती।
- शासक और उनके राज्य सीमित थे, और उन्हें राष्ट्र के रूप में देखने की दृष्टि नहीं थी। इस कारण, साहित्य में राष्ट्रभाव की जगह व्यक्तिगत शौर्य और वीरता की प्रशंसा अधिक मिलती है।
6. काल्पनिकता का प्राधान्य:
- रासो साहित्य में कल्पना का अधिक प्रचलन है। ग्रंथों में घटनाओं और चरित्रों का काल्पनिक रूप से वर्णन किया गया है।
- साहित्यिक कृतियों में तथ्यात्मकता के बजाय काल्पनिकता पर अधिक जोर दिया गया है, जिससे घटनाओं और व्यक्तियों का चित्रण अतिशयोक्तिपूर्ण होता है।
7. भाषा और शैली:
- आदिकालीन साहित्य अपभ्रंश भाषा में लिखा गया था, जो उस समय की सामान्य भाषा थी।
- इस काल के साहित्य में छंदों, अलंकारों और भाषा की विविधता देखी जाती है, जो साहित्य को जीवंत और प्रभावी बनाती है।
आदिकालीन साहित्य में ये प्रमुख प्रवृत्तियाँ परिलक्षित होती हैं, जो उस समय की सामाजिक, राजनीतिक, और सांस्कृतिक परिस्थितियों को प्रतिबिंबित करती हैं।
आदिकाल में प्रमुख रूप से रासो साहित्य का रचना हुई, उल्लेख काजए॥।
आदिकाल, जिसे वीरगाथा काल या रासो काल भी कहा जाता है, में प्रमुख रूप से रासो साहित्य की रचना हुई। इस साहित्य में वीरता, युद्ध, शौर्य, और ऐतिहासिक घटनाओं का वर्णन प्रमुख रूप से मिलता है। रासो साहित्य में राजा-महाराजाओं, योद्धाओं, और वीरांगनाओं के साहसिक कार्यों को महाकाव्य शैली में प्रस्तुत किया गया है।
रासो साहित्य की विशेषताएँ:
1.
वीरगाथाओं का वर्णन: रासो साहित्य मुख्य रूप से वीरगाथाओं का वर्णन करता है। इसमें वीर योद्धाओं की युद्धक्षेत्र में वीरता, उनके पराक्रम, और शौर्य का विस्तार से वर्णन किया गया है।
2.
इतिहास और कल्पना का मिश्रण: रासो साहित्य में ऐतिहासिक घटनाओं के साथ-साथ कल्पना का भी मिश्रण होता है। इसमें वर्णित घटनाएँ पूरी तरह से ऐतिहासिक नहीं होतीं, बल्कि उनमें कवियों की कल्पना और अतिशयोक्ति का भी समावेश होता है।
3.
राजपूत वीरों की कहानियाँ: रासो साहित्य में मुख्य रूप से राजपूत वीरों की कहानियाँ और उनकी वीरता का गुणगान किया गया है। इनमें उनकी शौर्यगाथाएँ, युद्धकला, और आत्मबलिदान का वर्णन किया गया है।
4.
भाषा और शैली: रासो साहित्य में प्राचीन हिंदी या अपभ्रंश भाषा का प्रयोग हुआ है। इसकी शैली महाकाव्यात्मक होती है, जिसमें छंदों का प्रयोग प्रमुख रूप से किया गया है।
प्रमुख रासो काव्य और कवि:
1.
पृथ्वीराज रासो: यह रासो काव्य सबसे प्रसिद्ध है, जिसे चंदबरदाई ने रचा था। इसमें पृथ्वीराज चौहान की वीरता, उनके युद्धों, और उनके जीवन की घटनाओं का वर्णन किया गया है।
2.
हम्मीर रासो: यह काव्य हम्मीर देव चौहान के शौर्य और युद्धकौशल का वर्णन करता है। इसे जयनक कवि ने लिखा था।
3.
आल्हा खंड: यह एक प्रसिद्ध रासो काव्य है, जिसमें आल्हा और ऊदल की वीरता का वर्णन है। यह काव्य बुंदेलखंड क्षेत्र में बहुत लोकप्रिय है।
4.
बीसलदेव रासो: इस काव्य में चौहान राजा बीसलदेव की वीरता और उनके शासनकाल का वर्णन किया गया है। इसके लेखक नरपति नाल्ह हैं।
रासो साहित्य का महत्व:
रासो साहित्य ने हिंदी साहित्य के वीरगाथा काल को समृद्ध किया। इसने उस समय के समाज की वीरता, सांस्कृतिक धरोहर, और राजपूतों के शौर्य को जनमानस में जीवित रखा। इन काव्यों के माध्यम से समाज में वीरता, साहस, और देशभक्ति की भावना का प्रसार हुआ।
इस प्रकार, आदिकाल में रासो साहित्य ने भारतीय साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान बनाया और वीरगाथा काल को ऐतिहासिक रूप से महत्त्वपूर्ण बना दिया।
रासो ग्रथों से क्या तात्पर्य है? की विशेषताएँ:काजए॥
रासो ग्रंथों से तात्पर्य उन काव्य रचनाओं से है, जो हिंदी साहित्य के आदिकाल (वीरगाथा काल) में लिखी गई थीं और जिनमें मुख्यतः वीरगाथाओं का वर्णन होता है। इन ग्रंथों को रासो कहा जाता है क्योंकि वे राजाओं, योद्धाओं, और वीरांगनाओं की वीरता, शौर्य, और युद्ध कौशल का गान करते हैं। ये ग्रंथ महाकाव्य शैली में लिखे गए हैं और उनमें ऐतिहासिक घटनाओं, राजपूतों की वीरता, और युद्ध की कहानियों का वर्णन मिलता है।
रासो ग्रंथों की विशेषताएँ:
1.
वीरता और शौर्य का वर्णन: रासो ग्रंथों में राजपूत वीरों की वीरता, युद्धकला, और शौर्य का विस्तार से वर्णन होता है। इनमें युद्ध की स्थिति, वीरों की बहादुरी, और उनकी विजय या बलिदान का चित्रण प्रमुख होता है।
2.
इतिहास और कल्पना का मिश्रण: रासो ग्रंथों में ऐतिहासिक घटनाओं के साथ-साथ कवियों की कल्पना का भी समावेश होता है। ये ग्रंथ इतिहास और किंवदंतियों का मिश्रण होते हैं, जिसमें कवियों ने अतिशयोक्ति और कल्पना का प्रयोग किया है।
3.
महाकाव्यात्मक शैली: रासो ग्रंथ महाकाव्य शैली में लिखे गए हैं, जिसमें लंबी और विस्तृत कविताएँ, छंदबद्ध भाषा, और वीर रस का प्रमुखता से प्रयोग होता है। इन ग्रंथों में वर्णनात्मक और गाथात्मक शैली का समन्वय होता है।
4.
राजपूत संस्कृति का प्रदर्शन: रासो ग्रंथों में उस समय की राजपूत संस्कृति, उनके जीवन, युद्ध की परंपराओं, और सामाजिक व्यवस्था का चित्रण मिलता है। इसमें राजपूतों के आदर्शों, जैसे साहस, निष्ठा, और बलिदान को महत्त्व दिया गया है।
5.
भाषा और छंद: रासो ग्रंथों की भाषा अपभ्रंश और प्रारंभिक हिंदी होती है। इसमें कवित्त, दोहा, सोरठा, छप्पय आदि छंदों का प्रयोग किया गया है। इन छंदों में वीर रस प्रधान होता है, जो पाठकों में उत्साह और प्रेरणा उत्पन्न करता है।
प्रमुख रासो ग्रंथ और उनके रचनाकार:
1.
पृथ्वीराज रासो: यह सबसे प्रसिद्ध रासो ग्रंथ है, जिसे चंदबरदाई ने रचा था। इसमें दिल्ली के राजा पृथ्वीराज चौहान की वीरता और उनके युद्धों का वर्णन किया गया है।
2.
हम्मीर रासो: इस ग्रंथ में रणथंभौर के राजा हम्मीर देव चौहान की वीरता और उनके संघर्षों का वर्णन किया गया है। इसे जयनक कवि ने लिखा था।
3.
आल्हा खंड: यह बुंदेलखंड के वीर आल्हा और ऊदल की वीरता की गाथा है। इसे जगनिक नामक कवि ने लिखा था और यह रासो शैली का एक प्रमुख उदाहरण है।
4.
बीसलदेव रासो: इस ग्रंथ में चौहान वंश के राजा बीसलदेव की वीरता और उनके शासनकाल का वर्णन किया गया है। इसे नरपति नाल्ह नामक कवि ने रचा था।
रासो ग्रंथों का साहित्यिक और सांस्कृतिक महत्त्व:
रासो ग्रंथों ने हिंदी साहित्य में वीरगाथा काल को महत्त्वपूर्ण स्थान दिलाया। इन ग्रंथों ने न केवल वीरता और शौर्य को साहित्य में अमर कर दिया, बल्कि उस समय की राजपूत संस्कृति, उनकी परंपराओं, और जीवन शैली को भी संरक्षित किया।
रासो ग्रंथों के माध्यम से समाज में वीरता, साहस, और देशभक्ति की भावना का प्रसार हुआ। इन ग्रंथों ने उस समय के समाज के आदर्शों और मूल्यों को भी उजागर किया, जिससे वे साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में अमूल्य धरोहर बन गए।
इकाई-7:
आदिकालीन साहित्य का परवर्ती काव्य पर प्रभाव
प्रस्तावना:
- आदिकालीन साहित्य का परवर्ती काव्य पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है। यह काल लगभग सन् 1050 से 1375 तक का माना जाता है। आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने इसे 'आदिकाल' का नाम दिया था। इस काल के प्रमुख साहित्यिक प्रकारों में सिद्ध साहित्य, जैन साहित्य, नाथ साहित्य, लोकक साहित्य, और रासो साहित्य शामिल हैं। इन सभी का परवर्ती काव्यों पर गहरा प्रभाव दिखाई देता है।
7.1 आदिकालीन साहित्य का प्रभाव और परवर्ती काव्य पर इसका प्रभाव:
- आदिकाल के बाद जिस काव्यधारा का विकास हुआ, उसे भक्तिकाल कहा गया। भक्तिकाल को चार भागों में विभाजित किया गया है: निर्गुण काव्यधारा, सूफी काव्यधारा, राम काव्यधारा, और कृष्ण काव्यधारा।
- आदिकालीन साहित्य का सबसे अधिक प्रभाव भक्तिकालीन कवियों पर पड़ा, विशेषकर कबीर के काव्य में। निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से यह प्रभाव स्पष्ट होता है:
1.
सिद्धों के उलटवासियों का प्रभाव कबीर के उलटबांसियों में देखा जा सकता है।
2.
सिद्धों के साहित्य का आरंभिक बाज कबीर के काव्य में मिलता है।
3.
कबीर ने जाति-पाति का खंडन और बाह्य आडम्बरों का विरोध सिद्धों से प्रेरित होकर किया।
4.
कबीर के काव्य में गुरु का महत्त्व भी सिद्धों से प्रभावित है।
5.
नाथ पंथ का प्रभाव भी कबीर और उनके समकालीनों पर पड़ा है।
6.
सदाचरण का महत्व भी आदिकालीन साहित्य से लिया गया है।
7.
कबीर द्वारा प्रयुक्त हठयोग का शब्दावली नाथ पंथ से ली गई है।
7.2 आदिकालीन साहित्य के प्रमुख प्रकार:
1.
सिद्ध साहित्य:
o सिद्धों का साहित्य सहजता, निर्दोषिता, और ईमानदारी के लिए जाना जाता है। उनका कथन बिना लाग-लपेट के स्पष्ट और प्रभावी होता था। उनका प्रभाव कबीर और संत कवियों के साहित्य पर देखा जा सकता है।
2.
नाथ साहित्य:
o नाथ साहित्य के संस्थापक माने जाने वाले गोरखनाथ ने हठयोग का प्रचार किया। उनके साहित्य में गुरु महिमा, इंद्रिय निग्रह, प्राण साधना, वैराग्य, आदि का वर्णन मिलता है। गोरखनाथ ने सिद्ध मार्ग का विरोध किया और नाथ पंथ को स्थापित किया।
3.
जैन साहित्य:
o जैन साधुओं ने रास काव्य की एक प्रभावशाली शैली विकसित की। जैन साहित्य में उपदेशात्मकता को प्राथमिकता दी गई और उनके काव्यों में धार्मिक और नैतिक विषयों का समावेश किया गया।
4.
रासो साहित्य:
o रासो काव्यों में राजाओं के चारित्र का वर्णन होता था, और यह वर्णन उनके उत्तराधिकारियों द्वारा आगे बढ़ाया जाता था। यह साहित्य मुख्य रूप से वीरगाथा काव्य के रूप में विकसित हुआ और इसमें आदिकालीन राजाओं का वर्णन मिलता है।
स्व-मूल्याकन प्रश्न:
1.
आदिकाल के बाद जिस काव्यधारा का विकास हुआ उसे भक्तिकाल कहा जाता है।
2.
निर्गुण काव्यधारा के प्रमुख कवि कबीर थे।
3.
सिद्ध साहित्य का आरंभिक बाज सिद्धों में ही मिलता है।
4.
कौन अपनी अनुभूतियों को सहजता से व्यक्त कर सकते थे? सिद्ध
सारांश:
- आदिकालीन साहित्य ने परवर्ती साहित्य पर गहरा प्रभाव डाला। कबीर और संत साहित्य में आदिकाल के सिद्ध, नाथ और जैन साहित्य का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। आदिकालीन साहित्य ने नई सामाजिक चेतना को जन्म दिया, जिसने जाति और वर्ण के शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाई।
यह इकाई आदिकालीन साहित्य के प्रभाव और उसके महत्व को स्पष्ट रूप से बताती है, जिससे विद्यार्थी इसके महत्व को गहराई से समझ सकते हैं।
अभ्यास प्रश्न
आदिकालीन साहित्य का प्रारभ और परवर्ता काव्य पर प्रभाव से क्या तात्पर्य है? वर्णन काजए॥
आदिकाल, जिसे वीरगाथा काल भी कहा जाता है, हिंदी साहित्य के इतिहास का प्रारंभिक काल है। इस काल को 10वीं से 14वीं शताब्दी के बीच माना जाता है। आदिकाल का साहित्य वीर-रस प्रधान था, और इस काल के प्रमुख कवियों ने राजाओं और योद्धाओं के वीरता के गुणगान में काव्य रचना की। इस समय का साहित्य मुख्यतः राजाओं के दरबार में प्रस्तुत होता था और उनकी वीरता, साहस, और शौर्य की कथाओं को केंद्र में रखकर रचा जाता था।
आदिकालीन साहित्य का प्रारंभ:
आदिकालीन साहित्य का प्रारंभ भारतीय संस्कृति में विभिन्न परिवर्तनों के साथ हुआ। इस समय समाज में युद्ध और सत्ता संघर्ष का बोलबाला था। राजपूत राजाओं के बीच सत्ता और प्रतिष्ठा के लिए हो रहे संघर्षों ने वीरगाथा साहित्य को प्रेरित किया। इस साहित्य में तत्कालीन समाज की वीरता और उत्साह को दर्शाया गया।
परवर्ती काव्य पर प्रभाव:
आदिकालीन साहित्य का परवर्ती काव्य पर गहरा प्रभाव पड़ा। इस काल की वीरगाथाएं और उनकी भावनाएं आगे चलकर भक्ति काल और रीतिकाल के कवियों पर भी प्रभाव डालती हैं। आदिकाल में जो वीरता और शक्ति का गुणगान किया गया, वह आगे चलकर भक्तिकाल में भगवान की महिमा के गुणगान के रूप में बदल गया। आदिकाल के योद्धा नायक, परवर्ती काव्य में आदर्श नायकों के रूप में देखे जाते रहे।
भक्ति काल के संतों और कवियों ने भी अपने काव्य में वीरता और साहस का वर्णन भगवान के प्रति समर्पण और भक्ति के रूप में किया। इसी प्रकार, रीतिकाल के कवियों ने भी आदिकाल के शौर्य और वीरता का प्रभाव अपने काव्यों में व्यक्त किया, हालांकि उन्होंने इसे श्रृंगार रस के साथ मिश्रित किया।
इस प्रकार, आदिकालीन साहित्य ने हिंदी साहित्य की परवर्ती धाराओं पर गहरा प्रभाव डाला, जो कि भावनाओं, शैली और काव्य के रूपों में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
आदिकालीन साहित्य के अतर्गत आने वाले को साहित्य वस्तार से वर्णन काजए॥
आदिकालीन साहित्य, जिसे वीरगाथा काल भी कहा जाता है, हिंदी साहित्य के प्रारंभिक चरण का प्रतिनिधित्व करता है। यह काल 10वीं शताब्दी से 14वीं शताब्दी तक माना जाता है। इस समय का साहित्य वीरगाथाओं, धार्मिक रचनाओं, और कुछ हद तक लोकगीतों पर आधारित था। आदिकालीन साहित्य मुख्यतः राजाओं, योद्धाओं, और उनकी वीरता की कहानियों पर केंद्रित था। इस समय के साहित्य में भारतीय समाज, संस्कृति, और धार्मिक विचारधाराओं का गहरा प्रभाव देखा जा सकता है।
आदिकालीन साहित्य के प्रमुख रूप:
1.
वीरगाथा काव्य:
o आदिकाल का सबसे प्रमुख साहित्यिक रूप वीरगाथा काव्य है। इस काव्य में राजाओं और योद्धाओं की वीरता, युद्ध कौशल, और शौर्य का वर्णन होता था। ये कविताएं राजपूत दरबारों में रची जाती थीं और शासकों के बल, साहस और महानता की कहानियों को गाने के लिए बनाई जाती थीं। प्रमुख वीरगाथाएं राजस्थान, गुजरात, और उत्तर भारत के राजाओं और योद्धाओं के इर्द-गिर्द बुनी गईं।
o प्रमुख रचनाएं: पृथ्वीराज रासो (चंदबरदाई द्वारा), परमाल रासो, हम्मीर रासो आदि। इन रासों में राजपूत योद्धाओं की वीरता का गुणगान किया गया है। उदाहरण के लिए, पृथ्वीराज रासो पृथ्वीराज चौहान की वीरता और शौर्य की गाथा है।
2.
धार्मिक साहित्य:
o इस समय के धार्मिक साहित्य में वैष्णव, शैव, और शाक्त धर्म के तत्व देखने को मिलते हैं। ये साहित्यिक रचनाएं मुख्यतः देवताओं की महिमा और धार्मिक उपदेशों पर आधारित थीं। यह साहित्य समाज में धर्म और नैतिकता के प्रचार के लिए रचा गया था।
o प्रमुख रचनाएं: सिद्धों और नाथों का साहित्य (जैसे गोरखनाथ की रचनाएं), जैन और बौद्ध साहित्य की कुछ कृतियां भी इस काल में रची गईं।
3.
लोकसाहित्य:
o आदिकाल में लोकसाहित्य का भी महत्वपूर्ण स्थान था। यह साहित्य लोकगीतों, लोककथाओं, और लोकनाट्यों के रूप में था। इस साहित्य में समाज की सरल भावनाओं, रीतियों, और परंपराओं का वर्णन किया गया था। लोकसाहित्य का प्रभाव बाद के साहित्यिक कालों में भी देखा जा सकता है।
o प्रमुख रचनाएं: लोकगीत, लोकगाथाएं, और लोकनाट्य।
4.
ऐतिहासिक साहित्य:
o इस समय का साहित्य केवल काव्यात्मक नहीं था, बल्कि ऐतिहासिक तथ्यों पर भी आधारित था। राजाओं और उनके शासनकाल का वर्णन ऐतिहासिक दृष्टिकोण से किया गया था, जिससे यह साहित्य इतिहास के अध्ययन के लिए भी महत्वपूर्ण बन गया।
o प्रमुख रचनाएं: चंदबरदाई का 'पृथ्वीराज रासो' एक ऐतिहासिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें पृथ्वीराज चौहान के शासन और उनके युद्धों का वर्णन है।
आदिकालीन साहित्य के विशेषताएँ:
1.
वीरता और शौर्य का वर्णन:
o इस काल के साहित्य में वीरता और शौर्य का गुणगान प्रमुखता से किया गया है। यह साहित्य राजपूत नायकों की वीरता और उनके द्वारा किए गए बलिदानों की कहानियों को प्रस्तुत करता है।
2.
धार्मिकता और नैतिकता:
o धार्मिक साहित्य के रूप में इस काल में धार्मिक और नैतिक शिक्षा पर भी ध्यान दिया गया। यह साहित्य समाज को नैतिक और धार्मिक पथ पर चलने के लिए प्रेरित करता था।
3.
संस्कृत और प्राकृत भाषाओं का प्रभाव:
o आदिकालीन साहित्य पर संस्कृत और प्राकृत भाषाओं का गहरा प्रभाव था। हालांकि, इस काल के अंत में हिंदी भाषा का विकास भी प्रारंभ हुआ।
4.
काव्यात्मक शैली:
o इस काल का साहित्य मुख्यतः काव्यात्मक था। छंद, रस, अलंकार आदि का प्रयोग किया गया, जिससे रचनाएं सजीव और प्रभावशाली बन सकें।
आदिकालीन साहित्य ने हिंदी साहित्य की नींव रखी और बाद के साहित्यिक कालों के लिए मार्ग प्रशस्त किया। यह साहित्य भारतीय संस्कृति, समाज, और धार्मिक विचारधाराओं का प्रतीक है, और इसकी रचनाएं आज भी हिंदी साहित्य के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं।
इकाई-8:
पूर्व मध्यकाल
(भक्तिकाल)
: पारिस्थितियाँ
इस इकाई के अध्ययन के पश्चात् विद्यार्थी योग्य होंगे:
1.
पूर्व मध्यकाल की पारिस्थितियों को समझने में सक्षम होंगे।
2.
भक्ति आंदोलन के उदय के कारणों को समझने में सक्षम होंगे।
3.
सामाजिक परिवेश को समझने में सक्षम होंगे।
4.
तत्कालीन समाज में भक्ति के महत्व को समझ सकेंगे।
प्रस्तावना
भक्तिकाल का परिप्रेक्ष्य
हिंदी साहित्य में भक्तिकाल उस समय को संदर्भित करता है, जब मुख्यतः भगवत धर्म के प्रचार और प्रसार के परिणामस्वरूप भक्ति आंदोलन की शुरुआत हुई थी। इस आंदोलन की लोक-प्रचलित भाषा के माध्यम से भक्ति की भावना की अभिव्यक्ति हुई, जिसके परिणामस्वरूप भक्ति विषयक साहित्य का विस्तार हुआ। भक्ति भावना केवल वैष्णव धर्म तक सीमित नहीं थी, बल्कि शैव, शाक्त, बौद्ध, और जैन संप्रदाय भी इससे प्रभावित हुए। भक्ति काल का वर्णन करने से पहले, भक्ति भावना की परंपरा और सामाजिक परिवेश का संक्षिप्त परिचय प्राप्त करना आवश्यक है।
8.1 पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल)
भक्ति का उदय
भारत के धार्मिक इतिहास में भक्ति मार्ग का विशेष स्थान है। हालांकि, वैदिक युग तक इसके अस्तित्व का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता है। प्रारंभिक काल में धर्मानुष्ठान यज्ञ और कर्मकांड के माध्यम से होते थे, और लोग प्रकृति की शक्तियों को देवता के रूप में कल्पित करके उन्हें प्रसन्न रखने के लिए यज्ञ आदि करते थे। श्रद्धा और भक्ति का आरंभ इसी यज्ञीय परंपरा से हुआ, जो धीरे-धीरे बहुदेववाद से एकदेववाद में परिवर्तित हो गया। भक्ति का प्रसार वैदिक धर्म की सीमाओं से बाहर हुआ और समय के साथ यह एक व्यापक धार्मिक आंदोलन बन गया।
सामाजिक परिवेश
भक्ति भावना का विकास आर्यों की वैदिक परंपरा के प्रभाव से हुआ। आर्यों के भारत में आने के बाद, उन्हें यहाँ की यक्ष, किन्नर, गंधर्व, असुर, राक्षस जैसी जातियों की नागर संस्कृति का परिचय मिला। इस सांस्कृतिक आदान-प्रदान से भारतीय संस्कृति का विकास हुआ, जिसके अंतर्गत भक्ति परंपरा का प्रसार हुआ। दक्षिण भारत में भी द्रविड़ संस्कृति की गर्भित भक्ति परंपरा का उदय हुआ था, जो कालांतर में उत्तर भारत में भी लोकप्रिय हो गई।
भक्ति साहित्य
भक्ति साहित्य के संदर्भ में, श्वेताश्वतर उपनिषद में सबसे पहले 'भक्ति' शब्द का उल्लेख मिलता है। वैदिक काल में आर्यों की धार्मिक विचारधारा में भक्ति का उदय हुआ। समय के साथ, भक्ति का प्रवाह एकदेववाद की ओर बढ़ा और भक्ति की भावना उपासना से विकसित होकर भगवान के ऐश्वर्य में भाग लेने की व्यापक अवधारणा में परिणत हुई।
भक्तिकाल की विशेषताएँ
भक्तिकाल को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने 1318 से 1643 ईस्वी तक निर्धारित किया है। इस अवधि में भक्तिकाव्य की परंपरा का विकास हुआ, जिसमें वैष्णवेतर रचनाओं को भी शामिल किया गया। भक्तिकाल में रचित साहित्य में भक्ति भावना का प्रमुख स्थान रहा। इस अवधि में भक्ति काव्य का प्रवाह अनवरत रहा, जिसमें भावना के नवोन्मेष की अपेक्षा अनुकरण का अधिक स्थान रहा।
8.1.2 पारिस्थितियाँ
राजनैतिक परिवेश
पूर्व मध्यकाल का आरंभ दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक (1325-1351)
के शासनकाल में हुआ। उसने अपने राज्य विस्तार के लिए देवगिरी को राजधानी बनाने का प्रयास किया, जिसे दौलताबाद नाम दिया गया। इस निर्णय के कारण दिल्ली क्षेत्र एकदम उजाड़ हो गया। तुगलक ने तांबे के सिक्के चलाए और चीन पर आक्रमण की योजना बनाई। उसने मिस्र के खलीफा से धार्मिक स्वीकृति प्राप्त की। मुहम्मद बिन तुगलक एक विद्वान, व्यसनी और पक्षपात-रहित सुल्तान था, जो अपने शासन में विद्वानों को संरक्षण देता था।
धार्मिक और सांस्कृतिक परिवेश
तुगलक के बाद के शासकों के समय में धार्मिक सहिष्णुता और भक्ति भावना का विकास हुआ। इस काल में सामाजिक और धार्मिक परिवेश में व्यापक परिवर्तन हुए, जिन्होंने भक्ति आंदोलन को प्रेरित किया। तुगलक के बाद की परिस्थितियों ने भक्ति साहित्य और धर्म के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस काल में विद्वानों और संतों ने धार्मिक सहिष्णुता और एकता का प्रचार किया, जिसने भक्ति आंदोलन को एक व्यापक सामाजिक आंदोलन के रूप में स्थापित किया।
इस प्रकार, भक्तिकाल के उदय और विकास को समझने के लिए इस इकाई का अध्ययन महत्वपूर्ण है, जो हमें तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक, और सांस्कृतिक परिस्थितियों का विस्तृत परिचय देता है।
समाजिक संरचना और जातीय तत्त्वों का प्रभाव
वर्ण और जातियाँ:
भारतीय समाज का ताना-बाना वर्णों और जातियों के आधार पर बना हुआ है। इस समाज में विभिन्न जातियों और वर्णों के बीच समय-समय पर संघर्ष होते रहे हैं। विभिन्न मानव-माडल, धर्म, आस्थाएँ, रीति-रिवाज, और आचार-व्यवहार के कारण संघर्ष का यह सिलसिला जारी रहा। हालांकि, काल के साथ समाज में सामंजस्य और समन्वय की भावना भी विकसित हुई है।
इतिहास में जातीय संघर्ष:
इतिहास में जातीय तत्वों को आत्मसात करना आसान नहीं रहा। दोनों पक्षों के बीच सामाजिक भेदभाव, जुगुप्सा, और अपवित्रता का भेदभाव बलवान हो गया। इस संघर्ष को कम करने के प्रयास किए गए, जिनका प्रभाव लंबे समय तक रहा है। ऋग्वेदकाल से लेकर उपनिषद काल तक ऐसे विचारों का विकास हुआ, जो समाज के सामंजस्य को बढ़ावा देने वाले थे।
प्राचीन काल में जातीय प्रभाव:
प्राचीन काल में विभिन्न जातियाँ जैसे ब्राह्मण, आर्य, नाग, यक्ष, देव, और असुर आदि समाज में समाहित हो गई थीं। इसके बाद शकों, हूणों, यवनों, तुर्कों और पठानों का आगमन हुआ। इस समय, मुस्लिम आक्रमणकारियों ने हिन्दू समाज को "हदू" कहकर संबोधित किया।
धर्म परिवर्तन और सामाजिक स्थिति:
मुस्लिम आक्रमणकारियों ने हिन्दू धर्म को बदलने के प्रयास किए, लेकिन अधिकांश मामलों में धर्म परिवर्तन स्वार्थ या बलात्कारी कारणों से हुआ। इस समय हिन्दू समाज में धर्म परिवर्तन के उदाहरण आम थे। धर्म परिवर्तन का शास्त्राय व्यवस्था नहीं थी, जिससे संघर्ष बढ़ गया।
जातीय व्यवस्था और सामाजिक प्रभाव:
हिन्दू समाज में वर्णाश्रम धर्म का पालन नहीं हो पाने के कारण जातियों की संख्या बढ़ गई और जातियों के बीच आत्मायता कम हो गई। दास प्रथा, छुआछूत, और सामाजिक भेदभाव आम थे। मुसलमानों के आगमन के बाद भी समाज में भेदभाव और सामाजिक समस्याएँ बनी रहीं।
मुस्लिम समाज की स्थिति:
मुस्लिम समाज में भी भेदभाव था। मुस्लिम समाज में जातियों का भेदभाव बना रहा और सभी मुस्लिम समाज एक जैसी स्थिति में नहीं थे। विभिन्न मुस्लिम समुदायों में अलग-अलग विशेषताएँ थीं, जैसे शेख, मुग़ल, पठान और सैयद।
धार्मिक और सामाजिक व्यवस्था:
मुगलों के शासनकाल में समाज में विभिन्न वर्गों में विभाजन हुआ। अमीर और सम्राटों के बीच वैभव का प्रदर्शन आम था, जबकि गरीब वर्गों की स्थिति दयनीय थी। इस समय, समाज में पाखंड और झूठी धार्मिकता भी देखने को मिली।
सामाजिक सुधार और पुनरुत्थान:
समाज में सुधार के प्रयास लगातार चलते रहे। गुप्त काल में धार्मिक पुनरुत्थान हुआ और ब्राह्मणवाद को प्रोत्साहन मिला। इस काल में देवी-देवताओं और देवालयों की स्थापना की गई और समाज में धार्मिक व्यवस्था को पुनर्जीवित किया गया।
वर्तमान स्थिति:
समाज में समय-समय पर विदेशी जातियों के आगमन से संघर्ष होते रहे हैं। हालांकि, इन संघर्षों से उबरते हुए, भारतीय समाज ने नवजागरण का रास्ता अपनाया और सामंजस्य साधने का प्रयास किया।
निष्कर्ष:
भारतीय समाज की विविधता और जातीय तत्त्वों के बावजूद, समाज ने समय के साथ सामंजस्य और समन्वय की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। इस प्रक्रिया में, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से सुधार और पुनरुत्थान की दिशा में निरंतर प्रयास किए गए हैं।
अभ्यास प्रश्न
पूर्व-मध्यकाल में गुजरात, जौनपुर, बगाल और बहमना राज्यों का स्थात का वर्णन काजए।
पूर्व-मध्यकाल में गुजरात, जौनपुर, बगाल और बहमना राज्यों का महत्व और उनकी स्थिति भारतीय इतिहास में विशेष रही है। इन राज्यों का वर्णन निम्नलिखित है:
1. गुजरात
- स्थिति: गुजरात, पश्चिमी भारत का एक प्रमुख राज्य था। यह अरबी सागर के तट पर स्थित था और इसके सीमाओं में वर्तमान का गुजरात राज्य शामिल था।
- इतिहास: गुजरात के क्षेत्र पर विभिन्न समय पर कई राजवंशों का शासन रहा। 8वीं से 12वीं शताब्दी तक, चावड़ा और सोलंकी (चालुक्य) वंश के राजाओं ने यहाँ शासन किया। 13वीं शताब्दी में, सुलतानate शासन के तहत गुजरात को एक महत्वपूर्ण क्षेत्रीय सत्ता के रूप में देखा गया।
- सांस्कृतिक और आर्थिक स्थिति: गुजरात का बंदरगाह व्यापार और समुद्री संपर्क के लिए महत्वपूर्ण था। यहाँ की व्यापारिक गतिविधियाँ, जैसे कि रेशम और मसालों का व्यापार, इसे आर्थिक रूप से समृद्ध बना रही थी।
2. जौनपुर
- स्थिति: जौनपुर, उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्से में स्थित था। यह क्षेत्र गंगा और यमुना नदियों के बीच था।
- इतिहास: जौनपुर का राज्य 14वीं और 15वीं शताब्दी में महत्वपूर्ण था। इसे फिरोज़ शाह तुगलक के एक मंत्री, मलिक सरवर द्वारा स्थापित किया गया था। इसके बाद शर्की वंश (शर्की सुलतानate) के तहत यह क्षेत्र प्रसिद्ध हुआ।
- सांस्कृतिक और शैक्षिक स्थिति: जौनपुर एक महत्वपूर्ण शैक्षिक और सांस्कृतिक केंद्र था। यहाँ के शर्की सुलतानate के शासन के दौरान, कई मदरसे और मस्जिदें स्थापित की गईं, जो इसकी धार्मिक और सांस्कृतिक समृद्धि का प्रतीक थीं।
3. बगाल (बंगाल)
- स्थिति: बगाल, या बंगाल, पूर्वी भारत का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र था। यह क्षेत्र वर्तमान पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश का हिस्सा था।
- इतिहास: मध्यकालीन बंगाल में विभिन्न मुस्लिम सुलतानates का शासन था, जैसे कि बंगाल सुलतानate। इसके बाद, बंगाल में तुगलक वंश और सिकंदर लोधी के शासन के तहत महत्वपूर्ण बदलाव हुए।
- सांस्कृतिक और आर्थिक स्थिति: बंगाल व्यापार और संस्कृति के लिए महत्वपूर्ण था। यहाँ का व्यापारिक नेटवर्क और समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा ने इसे एक प्रमुख क्षेत्रीय शक्ति बना दिया।
4. बहमना
- स्थिति: बहमना, दक्षिण भारत का एक महत्वपूर्ण राज्य था, जो मुख्यतः वर्तमान कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के हिस्सों में स्थित था।
- इतिहास: बहमना वंश, जो कि बहमनी सुलतानate का हिस्सा था, 14वीं सदी में स्थापित हुआ। इसका शासन दक्षिण भारत के महत्वपूर्ण भागों में था और इस वंश के अंतर्गत कई महत्वपूर्ण शहर और किले बने।
- सांस्कृतिक और प्रशासनिक स्थिति: बहमनी सुलतानate के तहत, कला, साहित्य और वास्तुकला में कई महत्वपूर्ण योगदान हुए। इस वंश ने अपने शासनकाल में दक्षिण भारत की राजनीति और समाज को प्रभावित किया।
ये सभी राज्य मध्यकालीन भारत के इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और उनके सांस्कृतिक, आर्थिक, और राजनीतिक योगदान आज भी प्रासंगिक हैं।
सूर-वश और मुगल-वश का विशेषताएँ का निष्कर्ष साहत उल्लेख काजए।
सूर-वश और मुगल-वश भारत के इतिहास में दो महत्वपूर्ण राजवंश थे। इन दोनों वंशों की विशेषताएँ और उनका ऐतिहासिक योगदान इस प्रकार है:
सूर-वश
विशेषताएँ:
1.
स्थापना और संस्थापक: सूर-वश की स्थापना 1540 में शेरशाह सूरी द्वारा की गई। शेरशाह सूरी ने अफगान वंश का नेतृत्व करते हुए दिल्ली पर कब्जा किया और दिल्ली सुलतानate की स्थापना की।
2.
प्रशासनिक सुधार: शेरशाह सूरी ने एक प्रभावी और कठोर प्रशासनिक ढांचा स्थापित किया। उन्होंने "डाकघरों का नेटवर्क" (उप-डाक प्रणाली) और "रैयतवाड़ी व्यवस्था" (कृषक की भूमि पर प्रशासन) जैसे सुधार किए। इसके अलावा, उन्होंने "सिक्का प्रणाली" और "सड़क और इन्फ्रास्ट्रक्चर" में भी महत्वपूर्ण सुधार किए।
3.
सैन्य और रणनीति: शेरशाह सूरी ने एक मजबूत और अनुशासित सेना बनाई। उन्होंने युद्ध की रणनीति में नई तकनीकों और विधियों को अपनाया।
4.
सांस्कृतिक योगदान: सूर-वश के शासनकाल में कला और साहित्य में कई योगदान हुए, लेकिन यह वंश शेरशाह सूरी की मृत्यु के बाद ज्यादा लंबे समय तक स्थिर नहीं रह सका।
निष्कर्ष:
सूर-वश ने भारत में प्रशासनिक और सैन्य सुधारों की शुरुआत की और एक मजबूत शासन प्रणाली की नींव रखी। हालांकि, यह वंश शेरशाह सूरी की मृत्यु के बाद टूट गया और मुगलों के लिए रास्ता साफ हो गया।
मुगल-वश
विशेषताएँ:
1.
स्थापना और संस्थापक: मुगल-वश की स्थापना बाबर द्वारा 1526 में की गई। बाबर ने पानीपत की पहली लड़ाई में इब्राहीम लोदी को हराया और दिल्ली पर कब्जा किया।
2.
सांस्कृतिक और वास्तुकला में योगदान: मुगलों ने भारतीय संस्कृति और वास्तुकला पर गहरा प्रभाव डाला। ताज महल, लाल किला, और फतेहपुर सीकरी जैसे ऐतिहासिक स्मारक उनकी वास्तुकला की उत्कृष्टता को दर्शाते हैं।
3.
प्रशासनिक सुधार: अकबर के शासनकाल में, "मंसबदारी प्रणाली" और "जजिया कर" जैसे प्रशासनिक सुधार किए गए। अकबर ने धार्मिक सहिष्णुता और एकीकृत प्रशासन की नीति अपनाई।
4.
सैन्य और रणनीति: मुगलों ने एक पेशेवर और संगठित सेना की स्थापना की। उन्होंने आधुनिक युद्ध रणनीतियों को अपनाया और भारतीय उपमहाद्वीप में लंबे समय तक सत्ता कायम रखी।
निष्कर्ष:
मुगल-वश ने भारत में राजनीतिक स्थिरता और सांस्कृतिक समृद्धि की एक नई दिशा प्रदान की। उन्होंने भारतीय समाज और संस्कृति पर गहरा प्रभाव डाला और एक विशाल और स्थायी साम्राज्य की नींव रखी।
इन दोनों वंशों का इतिहास भारत के राजनीतिक और सांस्कृतिक परिदृश्य को समझने में सहायक है। सूर-वश ने प्रशासनिक सुधारों की नींव रखी, जबकि मुगलों ने भारत के राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन को गहराई से प्रभावित किया।
भक्ति आंदोलन के उदय के कारण क्या थे? का संक्षिप्त विवरण ॥लाखए।
भक्ति आंदोलन भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण धार्मिक और सामाजिक आंदोलन था, जो मध्यकालीन भारत में उभरा। इसके उदय के कारण विभिन्न धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कारकों के मिश्रण से जुड़े थे। यहाँ पर सात प्रमुख कारणों का संक्षिप्त विवरण है:
1.
धार्मिक असंतोष:
o सामाजिक और धार्मिक असमानताएँ: जाति व्यवस्था और सामाजिक भेदभाव ने लोगों को धार्मिक असंतोष की ओर प्रवृत्त किया। भक्ति आंदोलन ने जाति और धर्म की संकीर्णता को चुनौती दी।
o पारंपरिक धर्म में विकृति: ब्राह्मणवादी धार्मिक प्रथाओं और अनावश्यक अनुष्ठानों के प्रति असंतोष बढ़ा, जिससे लोग सरल और व्यक्तिगत भक्ति की ओर उन्मुख हुए।
2.
सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव:
o संत परंपरा: भक्ति आंदोलन ने संतों और उनके विचारों को प्रोत्साहित किया। संतों ने समाज में सुधार और व्यक्तिगत भक्ति के महत्व को बताया।
o लोक भाषा में भक्ति: भक्ति आंदोलन ने संस्कृत की जगह स्थानीय भाषाओं का उपयोग करके धार्मिक विचारों को आम जनता तक पहुँचाया। इससे धार्मिक विचारों की अधिक पहुँच और प्रभावशीलता बढ़ी।
3.
वाणिज्यिक और शहरीकरण का प्रभाव:
o वाणिज्यिक विकास: व्यापार और वाणिज्यिक गतिविधियों ने लोगों के बीच संपर्क और संवाद को बढ़ावा दिया, जिससे भक्ति विचारों का प्रसार हुआ।
o शहरीकरण: शहरीकरण के साथ सामाजिक संरचनाएँ बदल गईं, और लोगों ने नए धार्मिक और सामाजिक विचारों को अपनाना शुरू किया।
4.
राजनीतिक परिवर्तन:
o इस्लामी प्रभाव: मुस्लिम शासकों और उनके शासन ने हिंदू समाज में धार्मिक और सांस्कृतिक विचारों को चुनौती दी। भक्ति आंदोलन ने धार्मिक सहिष्णुता और सांस्कृतिक संवाद को प्रोत्साहित किया।
o स्थानीय शासकों का समर्थन: कई स्थानीय शासकों ने भक्ति आंदोलन का समर्थन किया, जिसने इसे बढ़ावा दिया।
5.
संतों की उपदेश और विचारधारा:
o संतों की शिक्षाएँ: संतों जैसे रामानंद, तुलसीदास, कबीर, मीराबाई, आदि ने भक्ति के माध्यम से प्रेम और समानता का संदेश फैलाया। उनकी शिक्षाएँ सरल और सीधे-सीधे थीं, जो लोगों को अधिक आकर्षित करती थीं।
6.
धार्मिक और नैतिक सुधार की आवश्यकता:
o सामाजिक सुधार: भक्ति आंदोलन ने धार्मिक और सामाजिक सुधारों की आवश्यकता को महसूस किया, जैसे कि जातिवाद और अंधविश्वास के खिलाफ लड़ाई।
o नैतिक जीवन का आग्रह: भक्ति संतों ने नैतिक जीवन, ईश्वर की भक्ति और सच्चे प्रेम का महत्व बताया।
7.
समाज में असंतोष और परिवर्तन की लहर:
o सामाजिक असंतोष: लोगों में बढ़ती असंतोष और परिवर्तन की भावना ने भक्ति आंदोलन को प्रोत्साहित किया। यह आंदोलन समाज के विभिन्न वर्गों में सुधार और समानता की ओर अग्रसर हुआ।
ये सभी कारण मिलकर भक्ति आंदोलन के उदय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इस आंदोलन ने धार्मिक और सामाजिक ढाँचे में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाए और भारतीय समाज को एक नई दिशा दी।
इकाई-9:
निर्गुण भक्त साहित्य का वैचारिक पृष्ठभूमि एवं प्रमुख
प्रस्तावना
निर्गुण भक्त साहित्य भारतीय भक्तिसाहित्य का एक महत्वपूर्ण अंग है, जिसकी वैचारिक पृष्ठभूमि शंकराचार्य, उपनिषदों, नाथपंथ, सूफी धर्म और इस्लाम से प्रभावित है। उपनिषदों में वर्णित ब्रह्म, आत्मा, जगत और माया के स्वरूप को निर्गुण भक्त कवियों ने अपनाया और अपने काव्य में प्रस्तुत किया। शंकराचार्य के अद्वैत दर्शन का प्रभाव भक्त साहित्य पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, जहाँ ब्रह्म और आत्मा की एकता पर जोर दिया गया है। रामानंद ने भक्ति का मार्ग शूद्रों और निम्न जातियों के लिए खोल दिया, जिससे भक्त साहित्य में सामाजिक समानता की भावना झलकती है।
1. निर्गुण भक्त साहित्य का वैचारिक पृष्ठभूमि
निर्गुण भक्त साहित्य का वैचारिक आधार शंकराचार्य के अद्वैत दर्शन, उपनिषदों, नाथपंथ, सूफी धर्म और इस्लाम से है। उपनिषदों में ब्रह्म, आत्मा, जगत और माया के स्वरूप को निर्गुण भक्त कवियों ने यथार्थ रूप में अपनाया। शंकराचार्य के अद्वैत दर्शन ने भक्तों को ब्रह्म की एकता की ओर प्रेरित किया, और इस दर्शन ने भक्तों को माया के कारण उत्पन्न भिन्नता को नकारने की प्रेरणा दी। नाथपंथ से शून्यवाद, योगसाधना और गुरु की महत्ता के तत्व लिए गए। सूफी धर्म ने प्रेमभाव और दांपत्य प्रतीकों का उपयोग भक्त भावना को अभिव्यक्त करने के लिए किया। इस्लाम के प्रभाव ने एकेश्वरवाद को अपनाया और मूर्तिपूजा तथा अवतारवाद का विरोध किया।
2. प्रमुख निर्गुण भक्त और उनकी रचनाएँ
1. कबीर (1398-1518)
कबीर एक प्रमुख निर्गुण भक्त कवि थे, जिनका जन्म काशी में हुआ और वे जाति के जुलाहे थे। कबीर ने जातिवाद, मूर्तिपूजा और धार्मिक कर्मकांडों की आलोचना की। उनका काव्य सरल और प्रवाहमय था, जिसमें उन्होंने सामाजिक सुधार और धर्म के वास्तविक अर्थ को प्रस्तुत किया। कबीर के दो प्रमुख ग्रंथ "कबीर ग्रंथावली" और "कबीर बाजक" में संकलित हैं। उनके काव्य में उलटबांसियाँ, वाक्यप्रवर्तन, और अन्य अलंकारों का समावेश है। वे गुरु की महत्ता को मानते थे और शुद्ध ब्रह्म की अवधारणा को प्रस्तुत करते थे।
2. रामानंद (1368-1468)
रामानंद एक प्रमुख भक्त कवि और भक्ति आंदोलन के प्रवर्तक थे। उन्होंने रामभक्ति पर जोर दिया और मूर्तिपूजा, जातिवाद और वेदांत का विरोध किया। उनके शिष्य काबीर, रैदास, और अन्य भक्त कवि थे। रामानंद ने भक्ति के माध्यम से सामाजिक समानता और धार्मिक समरसता को प्रोत्साहित किया।
3. रैदास (1398-1448)
रैदास एक प्रसिद्ध निर्गुण भक्त कवि थे, जिन्होंने ब्रजभाषा में सरल काव्य लिखा। उनका काव्य जातिवाद और धार्मिक विभाजन के खिलाफ था और उन्होंने भक्ति के माध्यम से एकता और समानता की बात की। रैदास के पद गुरु ग्रंथ साहब में भी संकलित हैं, और उनके काव्य में प्रेम और भक्ति का गहरा असर दिखता है।
4. गुरु नानक (1469-1538)
गुरु नानक सिख धर्म के संस्थापक थे और उनके काव्य में निर्गुण ब्रह्म की भक्ति और सामाजिक समानता पर जोर दिया गया। उनका जन्म 1469 में हुआ और उनके पद गुरु ग्रंथ साहब में संकलित हैं। गुरु नानक का काव्य शांति, करुणा और प्रेम से भरा हुआ है और उन्होंने धार्मिक भेदभाव और सामाजिक असमानता के खिलाफ आवाज उठाई।
5. हारदास नरज़ना
हारदास नरज़ना नाथ पंथ और निर्गुण भक्त साहित्य के कवि थे। उन्होंने भक्ति साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया और उनके काव्य में नाथ पंथ और सत काव्य की छाप स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।
निष्कर्ष
निर्गुण भक्त साहित्य भारतीय भक्तिसाहित्य का एक अनूठा अंग है, जिसने भक्ति और सामाजिक सुधार के माध्यम से धर्म और समाज की जटिलताओं को सरल और सारगर्भित तरीके से प्रस्तुत किया। कबीर, रामानंद, रैदास, गुरु नानक और हारदास नरज़ना जैसे प्रमुख कवियों ने अपने काव्य के माध्यम से एकता, समानता और सच्ची भक्ति की अवधारणा को समाज के सामने रखा। उनके काव्य में सामाजिक रूढ़ियों, जातिवाद, और धार्मिक पाखंडों की आलोचना की गई और भक्ति के शुद्ध रूप को उजागर किया गया।
अभ्यास्- प्रश्न
नर्गुण भक्ति साहित्य का वंचारक पृष्ठभूम तथा प्रमुख सत काव और उनके योगदान का उल्लेख काजए।
नर्गुण भक्ति साहित्य भारतीय भक्ति आंदोलन की एक महत्वपूर्ण धारा है, जो विशेषकर मध्यकालीन भारत में लोकप्रिय हुई। यह साहित्य अद्वितीय रूप से निर्गुण और निराकार ब्रह्मा की पूजा पर केंद्रित है। इसके प्रमुख कवि और उनके योगदान इस प्रकार हैं:
वंचारक पृष्ठभूमि
नर्गुण भक्ति उस भक्ति परंपरा को दर्शाती है जिसमें परमात्मा को किसी भी गुण या रूप में नहीं माना जाता, बल्कि उसे निराकार और निर्गुण माना जाता है। यह भक्ति पंथ विशेषकर संतों और कवियों के माध्यम से फैलाया गया, जिन्होंने अपने काव्य और विचारों के माध्यम से निर्गुण ब्रह्मा की महिमा का वर्णन किया। इस भक्ति का उद्देश्य आत्मा और परमात्मा के बीच एक गहन व्यक्तिगत संबंध स्थापित करना था, जो बाहरी पूजा या जाति-पंथ से परे था।
प्रमुख कवि और उनके योगदान
1.
संत कबीर (1440-1518):
o साहित्य: कबीर के पद और साखियाँ बहुत प्रसिद्ध हैं। उन्होंने धार्मिक कर्मकांड और जातिवाद की आलोचना की और साधारण भक्ति की ओर प्रवृत्त किया। उनके पद निर्गुण भक्ति और सामाजिक समरसता के प्रतीक हैं।
o योगदान: कबीर ने भक्ति और धार्मिक तात्त्विकता को सरल और स्पष्ट भाषा में प्रस्तुत किया। उनका काव्य समाज में सुधार और एकता का संदेश देता है।
2.
संत तुलसीदास (1532-1623):
o साहित्य: तुलसीदास ने 'रामचरितमानस' लिखा, जो राम के चरित्र का विस्तार से वर्णन करता है। हालांकि यह निर्गुण भक्ति से अधिक सगुण भक्ति की ओर झुका है, लेकिन उनकी भक्ति की गहराई और उनकी कविताओं की व्यापकता ने भक्ति आंदोलन को सशक्त किया।
o योगदान: तुलसीदास ने संतों के जीवन और भक्ति पर गहरा प्रभाव डाला। उनके साहित्य ने धार्मिक जीवन में एक नए दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया।
3.
संत मीरा बाई (1498-1547):
o साहित्य: मीरा बाई की भजन और पदों में भगवान कृष्ण की भक्ति का अत्यधिक वर्णन है। उनके गीत और पद निर्गुण भक्ति की भावना को व्यक्त करते हैं, विशेषकर कृष्ण के प्रति उनकी अनन्य भक्ति।
o योगदान: मीरा बाई की भक्ति और उनके जीवन की सरलता ने समाज में भक्ति आंदोलन की लोकप्रियता को बढ़ाया और महिलाओं के धार्मिक अधिकारों के लिए एक प्रेरणा स्रोत बने।
4.
संत नरसिंह मेहता (1414-1481):
o साहित्य: नरसिंह मेहता के पद विशेषकर भगवान कृष्ण की भक्ति पर केंद्रित थे। उनकी कविताओं में सरलता और गहराई है जो भक्तिपंथ को सरल और सुलभ बनाती है।
o योगदान: उनकी भक्ति और साधना ने भक्ति आंदोलन को एक नई दिशा दी और भक्तिपंथ को एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाया।
इन संतों और उनके साहित्य ने निर्गुण भक्ति की विचारधारा को फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और भारतीय धार्मिक और साहित्यिक परंपरा में एक नई लहर की शुरुआत की। उनके योगदान ने भक्ति और आत्मा की खोज को सरल, सुलभ और हर व्यक्ति के लिए सुलभ बना दिया।
सत काव्य का प्रमुख विशेषताएँ क्या हे? वर्णन काजए॥
सत काव्य भारतीय भक्ति साहित्य का एक महत्वपूर्ण रूप है, जो विशेषकर निर्गुण भक्ति परंपरा में विकसित हुआ। सत काव्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
1. निर्गुण भक्ति
सत काव्य का मुख्य तत्व निर्गुण भक्ति है, जिसमें भगवान को किसी भी गुण या रूप में नहीं मानकर उसकी निराकारता और निर्गुणता पर जोर दिया गया है। कवि ने ईश्वर को एक अमूर्त और अव्यक्त रूप में प्रस्तुत किया है, जो किसी भी बाहरी रूप, प्रतीक या मूर्ति से परे है।
2. साधारण भाषा और शैली
सत काव्य आमतौर पर साधारण भाषा में लिखा गया है, ताकि यह व्यापक जनसमूह तक पहुँच सके। कवि ने सामान्य लोगों की बोल-चाल की भाषा का उपयोग किया, जिससे कि भक्ति के संदेश को हर वर्ग के लोग आसानी से समझ सकें। यह भाषा आम तौर पर सहज, सरल, और प्रवाहमयी होती है।
3. भक्ति और प्रेम का केंद्र
सत काव्य में भक्ति और प्रेम को प्रमुख स्थान दिया गया है। कवि ने अपनी कविताओं और पदों में ईश्वर के प्रति अनन्य प्रेम और भक्ति की भावनाओं को व्यक्त किया है। यह प्रेम केवल आध्यात्मिक नहीं बल्कि व्यक्तिगत और गहन भावनात्मक होता है।
4. सामाजिक और धार्मिक आलोचना
सत काव्य अक्सर सामाजिक और धार्मिक आलोचना पर केंद्रित होता है। कवि ने धार्मिक कर्मकांड, जातिवाद, और सामाजिक भेदभाव की आलोचना की और सच्चे भक्ति के आदर्शों को प्रस्तुत किया। यह आलोचना सामाजिक सुधार की दिशा में प्रेरणादायक रही है।
5. अध्यात्मिक और साधना की ओर प्रवृत्ति
सत काव्य अध्यात्मिक और साधना की ओर प्रवृत्त होता है। यह कवि के व्यक्तिगत साधना और ध्यान की अनुभूतियों को व्यक्त करता है, जो साधना के माध्यम से ईश्वर की प्राप्ति की ओर संकेत करता है।
6. गहनता और प्रेरणा
सत काव्य में गहनता और प्रेरणा की भावना होती है। कवि की कविताएँ आत्मा की गहराइयों को छूती हैं और पाठकों को आध्यात्मिक खोज में प्रेरित करती हैं। इसमें जीवन की अस्थिरता और ईश्वर के प्रति अडिग भक्ति की बात की जाती है।
7. प्राकृतिक और साधारण प्रतीक
सत काव्य में प्राकृतिक और साधारण प्रतीकों का उपयोग होता है। कवि ने ईश्वर के गुणों और भक्ति के तत्वों को प्राकृतिक वस्तुओं और जीवन की सामान्य घटनाओं के माध्यम से प्रस्तुत किया है। यह प्रतीकात्मकता भक्ति के संदेश को और प्रभावी बनाती है।
इन विशेषताओं के माध्यम से सत काव्य ने भारतीय भक्ति परंपरा में एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया और जनसाधारण को ईश्वर के प्रति प्रेम और भक्ति की एक सरल और स्पष्ट समझ प्रदान की।
इकाई-10:
सूफा काव्य परंपरा
सूफा काव्य परंपरा और सूफा मत का वैचारिक आधार
सूफा काव्य परंपरा एक महत्वपूर्ण साहित्यिक परंपरा है जो प्रेम और भक्ति को विशेष रूप से संबोधित करती है। यह परंपरा भारत की भक्ति परंपरा से कुछ हद तक भिन्न है और इसमें प्रेम की अभिव्यक्ति के विशेष तरीके होते हैं। इस इकाई में सूफा काव्य की विशेषताओं और इसके भारतीय पौराणिक साहित्य से संबंध पर चर्चा की जाएगी।
1. सूफा काव्य में प्रेम भावना
सूफा काव्य में प्रेम की भावना भारत के पारंपरिक प्रेम से भिन्न है। सूफा काव्य में प्रेम को स्वच्छद प्रेम के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिसे अंग्रेजी में "रोमांस" कहा जाता है। इस प्रेम में स्वच्छदता, सौंदर्यभावना, और साहसपूर्ण क्रियाकलाप होते हैं। यह दाम्पत्य प्रेम की मर्यादाओं से हटकर समाज के मान्यताओं को स्वीकार नहीं करता। सूफा काव्य में प्रेम की इस स्वतंत्रता और सहजता को महत्वपूर्ण माना गया है।
2. भारतीय पौराणिक साहित्य में प्रेम परंपरा
भारतीय पौराणिक साहित्य में भी प्रेम की परंपरा बहुत समृद्ध है। महाभारत में नल-दमयन्ती और उर्वशी-पुरुषरव जैसे प्रेमाख्यान विद्यमान हैं। ये प्रेमाख्यान भारतीय साहित्य के प्रारंभिक रूपों में प्रेम की अवधारणा को दर्शाते हैं। इन प्रेम कथाओं में स्वच्छद प्रेम की भावनाएँ स्पष्ट रूप से देखी जा सकती हैं।
3. सूफा काव्य और फारसी प्रभाव
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सूफा काव्य में फारसी मास्नवी की छाप देखी है, लेकिन यह भी याद रखना चाहिए कि इस प्रकार का प्रेम भारतीय परंपरा में भी उपलब्ध था। भारतीय साहित्य में भी प्रेम का स्वच्छद रूप देखा गया है, जैसे कि वासवदत्ता, कादंबरी, और दशकुमारचरित में। ये काव्य भी नायक-नायिका के प्रेम संघर्ष को दर्शाते हैं, जो सूफा काव्य से मेल खाता है।
4. सूफा काव्य की विशेषताएँ
सूफा काव्य की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
- प्रेम के स्वतंत्र रूप: इसमें प्रेम को स्वतंत्र और स्वच्छद रूप में दर्शाया गया है।
- सामाजिक मान्यताओं का उल्लंघन: सूफा काव्य में प्रेम समाज के पारंपरिक मान्यताओं को मान्यता नहीं देता।
- स्वप्न और चत्रदर्शन: प्रेम की उत्पत्ति स्वप्न और चत्रदर्शन से होती है, जो भारतीय पौराणिक कथाओं में भी दिखाया गया है।
- सहायता और संघर्ष: नायक द्वारा नायका प्राप्त करने के लिए संघर्ष और देवताओं से सहायता की मांग की जाती है।
5. भारतीय और सूफा काव्य की समानताएँ
सारांश रूप में, सूफा काव्य की प्रेम परंपरा भारतीय पौराणिक साहित्य में भी स्पष्ट रूप से देखी जाती है। उदाहरण के लिए, महाभारत में नायकों द्वारा प्रेम में किए गए संघर्ष और साहसपूर्ण प्रयासों की कहानियाँ भी सूफा काव्य के समान होती हैं। सूफा काव्य का प्रेम केवल फारसी प्रभाव से नहीं, बल्कि भारतीय पौराणिक साहित्य से भी प्रभावित और संबंधित है।
निष्कर्ष
सूफा काव्य परंपरा और भारतीय पौराणिक साहित्य में प्रेम की परंपरा में गहरा संबंध है। दोनों परंपराओं में प्रेम की अभिव्यक्ति और नायिका प्राप्ति के संघर्ष में समानताएँ हैं। सूफा काव्य, फारसी प्रभाव के बावजूद, भारतीय साहित्य की एक अनिवार्य भाग है और इसके जड़े भारतीय पौराणिक साहित्य में मौजूद हैं।
अभ्यास- प्रश्न
सूफा मत के वैचारिक आधार से क्या तात्पर्य है? स्पष्ट काजए।
सूफा मत के वैचारिक आधार से तात्पर्य
सूफा मत एक इस्लामी रहस्यवादी परंपरा है, जो विशेषकर प्रेम और भक्ति की अवधारणाओं पर केंद्रित होती है। इसके वैचारिक आधार से तात्पर्य उन सिद्धांतों और विचारों से है जो सूफा परंपरा की नींव को ठोस बनाते हैं। सूफा मत के वैचारिक आधार की समझ के लिए निम्नलिखित बिंदुओं पर ध्यान दिया जा सकता है:
1. प्रेम और भक्ति की अवधारणा
सूफा मत में प्रेम और भक्ति की अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका होती है। सूफा कवि प्रेम को ईश्वर के प्रति प्रेम के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जो दुनियावी प्रेम से कहीं अधिक गहरा और आत्मिक होता है। यहाँ प्रेम केवल व्यक्तिगत और सांसारिक नहीं, बल्कि ईश्वर के साथ एक गहरा और आध्यात्मिक संबंध भी होता है। यह प्रेम स्वच्छदता, निःस्वार्थता, और आध्यात्मिक संलिप्तता से भरा होता है।
2. मुस्कुराहट और परोपकार की भावना
सूफा मत में मुस्कुराहट, शांति, और परोपकार का महत्व बहुत अधिक है। सूफी इस संसार की नश्वरता को समझते हैं और इसे अस्थायी मानते हैं। वे मानते हैं कि इस संसार के सुख-साधन और भौतिक वस्तुएं अंततः तुच्छ हैं, और वास्तविक सुख और शांति केवल ईश्वर के साथ एकता में ही प्राप्त होती है।
3. आध्यात्मिक यात्रा और आत्मज्ञान
सूफा मत का एक महत्वपूर्ण पहलू आध्यात्मिक यात्रा और आत्मज्ञान है। सूफी अपने आध्यात्मिक विकास की यात्रा पर निकलते हैं, जो आत्मा की शुद्धि और ईश्वर के साथ एकता की दिशा में होती है। यह यात्रा कठिन और पेचीदा हो सकती है, जिसमें साधक को अपने स्वयं के भीतर गहराई से झाँकना होता है।
4. रहस्यवाद और पारंपरिक मान्यताएँ
सूफा मत की रहस्यवादी प्रकृति पारंपरिक इस्लामिक मान्यताओं से अलग होती है। सूफी रहस्यवाद में आध्यात्मिक अनुभव और प्रत्यक्ष अनुभव पर जोर दिया जाता है। सूफी, ईश्वर की वास्तविकता को केवल धार्मिक उपदेशों और धार्मिक ग्रंथों से नहीं, बल्कि व्यक्तिगत और आध्यात्मिक अनुभवों से भी समझते हैं।
5. सामाजिक और धार्मिक परंपराओं से परे
सूफा मत में अक्सर पारंपरिक धार्मिक और सामाजिक मान्यताओं की आलोचना होती है। सूफी इसे एक बाधा मानते हैं जो आध्यात्मिक विकास और ईश्वर के साथ एकता की राह में रुकावट डाल सकती है। वे इन परंपराओं से परे जाकर सीधे आत्मिक अनुभव की ओर बढ़ने की कोशिश करते हैं।
6. मधुर भक्ति और संगीत
सूफा मत में भक्ति की अभिव्यक्ति संगीत और काव्य के माध्यम से की जाती है। सूफी कवि और संगीतकार अपने गीतों और रचनाओं के माध्यम से ईश्वर के प्रति अपने प्रेम और भक्ति को व्यक्त करते हैं। यह संगीत और काव्य इस भावनात्मक और आध्यात्मिक यात्रा का एक अभिन्न हिस्सा हैं।
निष्कर्ष
सूफा मत का वैचारिक आधार प्रेम, भक्ति, आध्यात्मिक यात्रा, रहस्यवाद, और पारंपरिक मान्यताओं से परे जाकर एक गहरी आध्यात्मिक समझ को दर्शाता है। यह मत ईश्वर के साथ आत्मिक एकता और गहरी आत्मज्ञान की दिशा में एक व्यक्तिगत और आध्यात्मिक यात्रा को महत्वपूर्ण मानता है। सूफा मत की ये विशेषताएँ इसे एक विशिष्ट और प्रभावशाली आध्यात्मिक परंपरा बनाती हैं।
सूफा प्रेमाख्यानों का परपरा के ववषय में बताइए।
सूफा प्रेमाख्यानों का परंपरा
सूफा प्रेमाख्यानों का परंपरा एक विशेष रूप की प्रेमकथा परंपरा है जो सूफा साहित्य में उभरती है। यह परंपरा विशेष रूप से प्रेम की दिव्य और आत्मिक पहलुओं को प्रस्तुत करती है। सूफा प्रेमाख्यानों की परंपरा की विशेषताएँ और महत्वपूर्ण तत्व निम्नलिखित हैं:
1. प्रेम की दिव्यता और आध्यात्मिकता
सूफा प्रेमाख्यानों में प्रेम को एक दिव्य और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया जाता है। यहाँ प्रेम केवल शारीरिक या दुनियावी प्रेम से अलग होता है। सूफी प्रेम को ईश्वर के प्रति प्रेम के रूप में देखते हैं, जो आत्मा की शुद्धि और ईश्वर के साथ एकता की ओर ले जाता है। इस प्रकार के प्रेम को सूफी कवि अक्सर 'इश्क' और 'माशूक' के संदर्भ में व्यक्त करते हैं।
2. स्वच्छद प्रेम की प्रस्तुति
सूफा प्रेमाख्यानों में प्रेम को स्वच्छद और निष्कलंक रूप में प्रस्तुत किया जाता है। यहाँ प्रेम की भावना पारंपरिक सामाजिक और धार्मिक सीमाओं से परे होती है। यह प्रेम न तो किसी पारंपरिक दांपत्य प्रेम की सीमा में बंधता है और न ही सामाजिक मान्यताओं से प्रभावित होता है। इसका मुख्य उद्देश्य आत्मिक संतोष और ईश्वर के साथ गहरा संबंध बनाना होता है।
3. प्रेम की कथा और उसकी विशेषताएँ
सूफा प्रेमाख्यानों में प्रेम की कथा एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। ये कथाएँ अक्सर प्रेम की अद्वितीयता, संघर्ष, और प्रेमी और प्रेमिका के बीच की कठिनाइयों को चित्रित करती हैं। प्रेम कथा में नायिका और नायक के बीच की समस्याएँ और उनके समाधान की प्रक्रिया को सूफी कवि गहराई से वर्णित करते हैं।
4. संगीत और कविता का उपयोग
सूफा प्रेमाख्यानों में संगीत और कविता का अत्यधिक उपयोग किया जाता है। प्रेम की भावनाओं और दिव्यता को व्यक्त करने के लिए सूफी कवि अपनी रचनाओं में कविताएँ और गीतों का सहारा लेते हैं। इन काव्य रचनाओं के माध्यम से वे प्रेम के गहरे और आध्यात्मिक अर्थ को व्यक्त करते हैं।
5. धार्मिक और सांस्कृतिक प्रभाव
सूफा प्रेमाख्यानों की परंपरा में धार्मिक और सांस्कृतिक प्रभाव भी देखे जा सकते हैं। ये कथाएँ इस्लामिक रहस्यवाद और भारतीय धार्मिकता के संगम से उत्पन्न होती हैं। सूफी कवि अक्सर इन प्रेम कथाओं के माध्यम से धार्मिक और आध्यात्मिक अवधारणाओं को प्रस्तुत करते हैं।
6. कथानक और पात्र
सूफा प्रेमाख्यानों के कथानक में अक्सर प्रेम की जटिलताएँ और संघर्ष शामिल होते हैं। पात्रों के बीच प्रेम की भावना और उनके बीच की दूरियाँ कथा के मुख्य तत्व होते हैं। पात्रों के संघर्ष, उनका साहस, और उनकी आध्यात्मिक यात्रा इन कथाओं का महत्वपूर्ण हिस्सा होती हैं।
7. प्राकृतिक तत्वों का उपयोग
सूफा प्रेमाख्यानों में प्राकृतिक तत्वों का भी उपयोग किया जाता है। प्राकृतिक सौंदर्य, जैसे कि बाग-बगिचे, फूल, और चाँद, प्रेम की भावनाओं को व्यक्त करने के लिए उपयोग किए जाते हैं। ये तत्व प्रेम की दिव्यता और स्वच्छदता को प्रकट करने में सहायक होते हैं।
निष्कर्ष
सूफा प्रेमाख्यानों का परंपरा एक अनूठी साहित्यिक और आध्यात्मिक परंपरा है जो प्रेम को एक दिव्य और आत्मिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत करती है। इसमें स्वच्छद प्रेम, धार्मिक और सांस्कृतिक प्रभाव, संगीत और कविता का उपयोग, और जटिल कथानक की विशेषताएँ शामिल होती हैं। यह परंपरा सूफी कवियों के माध्यम से प्रेम की गहरी और आध्यात्मिक समझ को व्यक्त करती है।
इकाई-11:
प्रमुख सूफा काव्य और काव्य प्रवृत्तियाँ
इस इकाई का अध्ययन करने के बाद विद्यार्थी निम्नलिखित बिंदुओं पर समझ विकसित कर सकेंगे:
- सूफा काव्य की प्रवृत्तियाँ
- प्रमुख सूफा काव्य ग्रंथों का परिचय
- प्रेमाख्यानों की परंपरा का ज्ञान
- महत्त्वपूर्ण स्मरणीय बिंदुओं की समझ
प्रस्तावना
सूफा काव्य ने अपनी रचनाओं में भारतीय और ईरानी काव्य रूढ़ियों का समावेश किया है। इन प्रेमगाथाओं में प्रायः उन काव्य रूढ़ियों का प्रयोग होता है जो भारतीय कथाओं में प्रचलित हैं। उदाहरण स्वरूप, चरित्र दर्शन, स्वप्न दर्शन, या शुक्र-सारका द्वारा नायिका का रूप देख-सुनकर उस पर आसक्त हो जाना, पशु-पक्षियों की बातचात से भावनात्मक संकेत प्राप्त करना और उद्यान या उपवन में प्रेम युगल का मिलन जैसी प्रवृत्तियाँ शामिल हैं। सूफा काव्य के प्रेमाख्यानक प्रबंध-काव्य होते हैं, जिनमें कथा तत्व का समावेश है। इन प्रबंध काव्यों के कथा स्रोत भारतीय पुराण, इतिहास और अन्य लोकप्रचलित प्रेम कहानियाँ हैं।
11.1 प्रमुख सूफा काव और काव्य प्रवृत्तियाँ
11.1.1 सूफा काव्य की प्रवृत्तियाँ
1.
मुसलमान काव्य और मसनवी शैली
o सूफा काव्यधारा के आरंभिक काव्य मुसलमानों द्वारा लिखे गए थे, लेकिन उनमें धार्मिक कट्टरता की कमी थी।
o सूफा कवियों ने सूफा मत का प्रचार-प्रसार करने के लिए हिंदू और अन्य धर्मों की प्रचलित प्रेम कहानियों को अपनाया।
o उदाहरण के लिए, जायसी ने अपनी रचना "पद्मावत" में राजा रत्नसेन और राजकुमारी पद्मावती की ऐतिहासिक प्रेमगाथा को लिया।
o सूफा कवि प्रायः काव्य में ईश्वर की स्तुति (हम्द), हजरत मुहम्मद की प्रशंसा (नात), और अन्य धार्मिक व्यक्तियों की प्रशंसा (मकबत) को शामिल करते हैं।
2.
प्रेमगाथाओं का नामकरण
o सूफा कवियों ने प्रेमगाथाओं का नाम प्रायः नायिका के आधार पर रखा।
o उदाहरण के लिए, "पद्मावत" का नाम नायिका पद्मावती के नाम पर रखा गया है।
o कुछ काव्य ग्रंथों का नाम नायिका के नाम के साथ कथा शब्द जोड़कर रखा गया है, जैसे "सत्यवता कथा"।
o नायिका को ईश्वर की ज्योति और सौंदर्य के प्रतीक के रूप में चित्रित किया गया है।
3.
अलौकिक प्रेम का विन्यास
o सूफा कवियों ने प्रेमगाथाओं के माध्यम से अलौकिक प्रेम का चित्रण किया।
o उदाहरण के रूप में, "पद्मावत" में राजा रत्नसेन और राजकुमारी पद्मावती का प्रेम अलौकिक प्रेम का प्रतीक है।
o सूफा कवियों ने रहस्यवाद को भी अपने काव्य में शामिल किया, जिससे प्रेम को आध्यात्मिक रूप में देखा गया।
o आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसे भावात्मक कोट के रहस्यवाद के रूप में परिभाषित किया है।
4.
कथा-संरचना और कथानक रूढ़ियाँ
o सूफा काव्यों के प्रेमाख्यानक प्रबंध-काव्य होते हैं, जिनमें कथा तत्व होता है।
o इन काव्यों का कथा स्रोत भारतीय पुराण, इतिहास और लोक प्रचलित प्रेम कहानियाँ हैं।
o सूफा काव्य ने भारतीय और ईरानी काव्य रूढ़ियों का समावेश किया है।
o इन काव्यों में वस्त्र, आभूषण, बारहमासा, और समुद्री तूफान जैसे कथानक रूढ़ियाँ शामिल हैं।
5.
चरित्र-चित्रण
o सूफा प्रेमाख्यानकों में नायक-नायिकाओं का एक समान चरित्र चित्रण होता है।
o नायक को प्रायः सहृदय, साहसी और प्रेमी के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जबकि नायिका को सुंदर, बुद्धिमान और आदर्श राजकन्या के रूप में।
o नायकों को नायिकाओं के सौंदर्य से आकर्षित होकर कई संघर्षों से गुजरते हुए चित्रित किया गया है।
o कुछ सूफा काव्यों में मानवेतर पात्र भी हैं, जैसे "पद्मावत" में हारामन तोता।
6.
लोकपक्ष और हिंदू संस्कृति का चित्रण
o सूफा काव्यों ने जन सामान्य के विश्वास, जादू-टोना, लोक व्यवहार और सांस्कृतिक क्रियाओं का सुंदर चित्रण किया है।
o हिंदू धर्म की स्थूल सिद्धांतों, रहन-सहन और आचार-विचार का भी यथासर चित्रण इन काव्यों में किया गया है।
o सूफा कवि हिंदू धर्म और संस्कृति से परिचित थे, और उन्होंने पौराणिक ज्ञान, ज्योतिष, और आयुर्वेद का भी उपयोग किया है।
7.
भाव और रस विन्यास
o सूफा काव्यों में प्रेम और श्रृंगार रस की प्रधानता होती है।
o श्रृंगार के दोनों पक्षों—सयोग और विपयोग—का प्रभावपूर्ण चित्रण किया गया है।
o नायिका के सौंदर्य का वर्णन और सयोग श्रृंगार में काम-क्रोध का वर्णन किया गया है।
o विपयोग वर्णन के तहत बारहमासों का भी सुंदर चित्रण किया गया है।
8.
वस्तु वर्णन
o सूफा प्रेमाख्यानक काव्यों में वस्तु वर्णन की प्रधानता होती है।
o काव्य में वन, वाटिका, समुद्र, पर्वत, नगर, पर्व, उत्सव, भोज्य सामग्री, और वस्त्राभूषणों का विस्तृत वर्णन किया गया है।
o उदाहरण के रूप में, जायसी की "पद्मावत" में वन, समुद्र, पर्वत आदि का सुंदर और विस्तृत वर्णन किया गया है।
निष्कर्ष
सूफा काव्यों के प्रेमाख्यानों ने मध्यकालीन हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया है। इन रचनाओं ने प्रेम के सर्वोत्तम रूप को प्रस्तुत किया और सहिष्णुता, उदारता, और भाईचारे का संदेश दिया। इन ग्रंथों में दर्शन, धर्म, कामशास्त्र, ज्योतिष, और आयुर्वेद का भी समावेश हुआ है। इन काव्यों ने प्रेम के गहरे और भव्य रूप का चित्रण किया है, जिससे इन्हें हिंदी साहित्य में उच्च स्थान प्राप्त है।
अभ्यास- प्रश्न
हदा सूफा प्रेमाख्यान को का प्रमुख प्रवात्तयों तथा ॥विशेषता ओं का बेचना काजए।
हदा सूफा प्रेमाख्यान, जिसे हिंदी में "हदा सूफा" भी कहा जाता है, एक प्रमुख भक्ति काव्य है जिसे प्रमुख रूप से संत शिरोमणि मीराबाई ने लिखा। यह प्रेम और भक्ति के भाव को व्यक्त करने वाली रचनाओं का संग्रह है। इस काव्य के प्रमुख प्रवात्तयों और विशेषताओं पर ध्यान देने योग्य बिंदु निम्नलिखित हैं:
प्रमुख प्रवात्तय:
1.
भक्ति का अनुभव: हदा सूफा प्रेमाख्यान का मुख्य प्रवात्तय भक्तिपंथ के प्रति गहरी भक्ति और प्रेम को दर्शाना है। इसमें भगवान के प्रति अनन्य प्रेम और समर्पण का वर्णन किया गया है।
2.
दर्शन और भक्ति: यह काव्य भक्ति के दर्शन को प्रस्तुत करता है, जिसमें भक्तिपंथ के विभिन्न पहलुओं जैसे आत्मसाक्षात्कार, ईश्वर के प्रति प्रेम, और भक्ति की विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन है।
3.
रूपक और प्रतीकात्मकता: काव्य में कई रूपक और प्रतीकात्मकताएँ उपयोग की जाती हैं जो भक्ति और प्रेम के गहरे भावों को प्रकट करती हैं। इसमें प्रेम और ईश्वर के संबंध को एक आत्मिक यात्रा के रूप में चित्रित किया गया है।
4.
सामाजिक और धार्मिक सन्देश: हदा सूफा प्रेमाख्यान में सामाजिक और धार्मिक सन्देश भी दिए गए हैं, जो सामाजिक बुराइयों के खिलाफ जागरूकता और सुधार की दिशा में प्रेरित करते हैं।
विशेषताएँ:
1.
सहज और भावुक भाषा: काव्य की भाषा सरल और भावुक है, जो सीधे दिल को छूने वाली होती है। इसमें भावनाओं की गहराई और ईश्वर के प्रति सच्ची भक्ति की अभिव्यक्ति है।
2.
पारंपरिक कविताई स्वरूप: हदा सूफा प्रेमाख्यान पारंपरिक कविताई स्वरूप में लिखा गया है जिसमें छंद और रस की विशेषताएँ हैं।
3.
वैयक्तिक अनुभव: यह काव्य मीराबाई के व्यक्तिगत भक्ति अनुभव को प्रस्तुत करता है, जिससे पाठक को उसकी भक्ति और प्रेम की गहराई को समझने में मदद मिलती है।
4.
आध्यात्मिक साधना: काव्य में भक्ति और आध्यात्मिक साधना के विभिन्न पहलुओं का वर्णन किया गया है, जो आत्मा के उन्नति और ईश्वर के साथ संबंध को दर्शाते हैं।
हदा सूफा प्रेमाख्यान की ये विशेषताएँ इसे भक्ति साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करती हैं, और इसे अध्ययन करने से भक्ति और प्रेम के अनुभव को गहराई से समझा जा सकता है।
प्रमुख सूफा काव्य ग्रथों का पारचय/प्रेमख्यानों का परपरा का उल्लेख काजए।
सूफा (Sufi) काव्य परंपरा,
जो कि सूफी इस्लाम की धार्मिक और दार्शनिक विचारधारा से जुड़ी है, प्रेम और भक्ति की
गहराई को व्यक्त करने वाले ग्रंथों और कविताओं की एक समृद्ध धारा है। सूफी काव्य मुख्यतः
ईश्वर के प्रेम, भक्ति, और आत्मज्ञान पर केंद्रित होता है। प्रमुख सूफा काव्य ग्रंथों
और प्रेमख्यानों की परंपरा पर संक्षिप्त रूप में विवरण निम्नलिखित है:
प्रमुख सूफा काव्य ग्रंथों
का परिचय:
1. "दीवान-ए-हफीज" (Divan-e-Hafez) - हफीज (Hafez):
o विवरण:
हफीज, एक प्रमुख सूफी कवि हैं जिनकी कविताओं में प्रेम और भक्ति की गहराई का सुंदर
वर्णन मिलता है। उनके काव्य संग्रह "दीवान-ए-हफीज" में प्रेम, आत्मज्ञान
और ईश्वर के प्रति समर्पण की भावनाएँ प्रकट की गई हैं।
o विशेषता:
हफीज की कविताएँ गहरी सूफी भावनाओं और रहस्यमय प्रेम की अभिव्यक्ति करती हैं, जिनमें
सूफी प्रतीकवाद का उपयोग होता है।
2. "क़ासिदा-ए-हिजाज़" (Qasida-e-Hijaz) - इब्न अरबी (Ibn Arabi):
o विवरण:
इब्न अरबी, सूफी धर्म के महान दार्शनिक और कवि हैं। उनकी कविताएँ ईश्वर के प्रेम और
आध्यात्मिक ज्ञान की गहराई को व्यक्त करती हैं।
o विशेषता:
इब्न अरबी की कविताओं में सूफी दर्शन की गहराई और आत्मा की यात्रा की सुंदरता को दर्शाया
गया है।
3. "दीवान-ए-रूमी" (Divan-e-Rumi) - जलालुद्दीन रूमी (Rumi):
o विवरण:
रूमी, सूफी काव्य के सबसे प्रसिद्ध कवि हैं। उनका "दीवान-ए-रूमी" प्रेम और
भक्ति की भावनाओं को प्रकट करता है।
o विशेषता:
रूमी की कविताएँ प्रेम, सूफी भक्ति, और मानवता के आदर्शों को दर्शाती हैं। उनके काम
में "मस्नवी" भी शामिल है, जो सूफी शिक्षाओं की गहराई को दर्शाता है।
4. "मस्नवी"
(Masnavi) - जलालुद्दीन रूमी:
o विवरण:
रूमी का "मस्नवी" एक प्रमुख सूफी ग्रंथ है जो कविता की श्रृंखला में ईश्वर,
प्रेम, और भक्ति की गहरी शिक्षाएँ प्रदान करता है।
o विशेषता:
इसमें सूफी शिक्षाओं, कहानियों और उपाख्यानों के माध्यम से धार्मिक और दार्शनिक विचारों
को प्रस्तुत किया गया है।
5. "दीवान-ए-शम्स" (Divan-e-Shams) - जलालुद्दीन रूमी:
o विवरण:
यह रूमी की कविताओं का एक संग्रह है जो उनके गुरु शम्स-ए-तिबरीज़ के प्रति समर्पण को
दर्शाता है।
o विशेषता:
इसमें सूफी प्रेम और भक्ति की गहराई को व्यक्त करने वाली कविताएँ हैं, जो रूमी के आध्यात्मिक
अनुभवों को प्रकट करती हैं।
प्रेमख्यानों की परंपरा:
1. प्रेम और भक्ति का केंद्र: सूफा प्रेमख्यानों में प्रेम और भक्ति की भावना को प्रमुखता
दी जाती है। इन कविताओं में ईश्वर के प्रति प्रेम और आत्मा की यात्रा का सुंदर चित्रण
मिलता है।
2. रहस्यमय प्रतीकवाद:
सूफा काव्य में रहस्यमय प्रतीकवाद और रूपक का उपयोग किया जाता है। यह प्रतीकवाद भक्ति
और आत्मज्ञान के गहरे पहलुओं को प्रकट करता है।
3. आध्यात्मिक यात्रा:
प्रेमख्यानों में भक्त की आध्यात्मिक यात्रा और ईश्वर के साथ एकत्व की खोज को प्रमुखता
दी जाती है।
4. साधारण भाषा:
सूफा कवि आमतौर पर सरल और भावुक भाषा का उपयोग करते हैं जिससे कि उनकी भावनाएँ और विचार
सीधे पाठकों तक पहुंच सकें।
सूफा काव्य की यह परंपरा
भारतीय और विश्व साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है और इसकी कविताएँ आज भी भक्ति
और प्रेम के गहरे अनुभव को प्रकट करती हैं।
महत्त्वपूर्ण स्मरणाय बिंदुओं पर संक्षिप्त टिप्पणी लाखए॥
स्मरणीय बातें और महत्वपूर्ण बिंदुओं पर संक्षिप्त टिप्पणी (बुलेट प्वाइंट्स) देने से आपके अध्ययन में सहूलियत हो सकती है। यहाँ पर कुछ प्रमुख बिंदु दिए गए हैं जो सूफा काव्य और प्रेमख्यानों की परंपरा से संबंधित हैं:
सूफा काव्य के प्रमुख ग्रंथ:
- "दीवान-ए-हफीज"
(Divan-e-Hafez):
- रचनाकार: हफीज
- विशेषता: प्रेम, भक्ति, और सूफी प्रतीकवाद की सुंदर अभिव्यक्ति।
- "क़ासिदा-ए-हिजाज़"
(Qasida-e-Hijaz):
- रचनाकार: इब्न अरबी
- विशेषता: सूफी दर्शन और आत्मा की यात्रा की गहराई को व्यक्त करता है।
- "दीवान-ए-रूमी"
(Divan-e-Rumi):
- रचनाकार: जलालुद्दीन रूमी
- विशेषता: प्रेम, भक्ति, और मानवता के आदर्शों की कविताएँ।
- "मस्नवी"
(Masnavi):
- रचनाकार: जलालुद्दीन रूमी
- विशेषता: सूफी शिक्षाओं और उपाख्यानों की श्रृंखला।
- "दीवान-ए-शम्स"
(Divan-e-Shams):
- रचनाकार: जलालुद्दीन रूमी
- विशेषता: शम्स-ए-तिबरीज़ के प्रति समर्पण और प्रेम।
प्रेमख्यानों की परंपरा:
- प्रेम और भक्ति: प्रेम और भक्ति की गहराई को व्यक्त करना।
- रहस्यमय प्रतीकवाद: सूफी प्रतीकवाद और रूपक का उपयोग।
- आध्यात्मिक यात्रा: भक्त की आध्यात्मिक यात्रा और ईश्वर के साथ एकत्व की खोज।
- साधारण भाषा: सरल और भावुक भाषा का उपयोग।
ये बिंदु सूफा काव्य की मुख्य विशेषताओं और महत्वपूर्ण ग्रंथों को समझने में मदद करेंगे और आपको सूफा काव्य की परंपरा का एक संक्षिप्त लेकिन समृद्ध अवलोकन प्रदान करेंगे।
इकाई-12
: राम एवं कृष्ण काव्य धारा : प्रमुख काव्य एवं काव्य प्रवर्तक
सारांश (लंबे विवरण में)
राम काव्य एवं कृष्ण काव्य धारा: सगुण भक्ति धारा के अंतर्गत राम काव्य और कृष्ण काव्य दो प्रमुख काव्य धाराएं हैं। इन काव्यों ने धार्मिक और भक्ति साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया है। राम और कृष्ण दोनों ही भगवान विष्णु के अवतार माने जाते हैं। राम काव्य में भगवान राम की आराधना और उनके जीवन का वर्णन किया गया है, जबकि कृष्ण काव्य में भगवान कृष्ण की लीलाओं और उनके प्रेम की गाथाओं का बखान किया गया है।
राम काव्य: राम काव्य की शुरुआत राम के जीवन और उनके गुणों की महिमा गाने वाले काव्य रचनाओं से हुई। भगवान राम को अयोध्या के राजा दशरथ का पुत्र और विष्णु का अवतार माना जाता है। राम काव्य का उद्देश्य राम की भक्ति को प्रचारित करना और उनके चरित्र की महिमा का बखान करना है। इस धारा के प्रवर्तक प्रमुख आचार्य रामानुजाचार्य, रामानंद, पनंबकाचार्य, माध्वाचार्य और श्रीविष्णुस्वामी जैसे संत हुए हैं। इन आचार्यों ने राम के भक्तिपंथ को बढ़ावा दिया और इसके माध्यम से राम की उपासना का प्रचार किया।
कृष्ण काव्य धारा: कृष्ण काव्य की शुरुआत भागवत पुराण और महाभारत जैसे प्राचीन ग्रंथों से हुई। संस्कृत साहित्य में अश्वघोष के "बुद्धचरित" में कृष्ण के वर्णन का उल्लेख मिलता है। राधा और कृष्ण के प्रेम का वर्णन प्राकृत भाषा में "गाथा सप्तशता" में किया गया है। राधा का पहला स्पष्ट वर्णन ब्रह्मविवर्त पुराण में मिलता है। संस्कृत कवि जयदेव ने "गीत गोविंद" में राधा और कृष्ण के प्रेम की सुंदरता का वर्णन किया, जिससे कृष्ण काव्य को नई दिशा मिली।
कृष्ण काव्य के प्रवर्तक: कृष्ण काव्य के प्रवर्तन में प्रमुख योगदान सूरदास का है। उन्होंने भागवत पुराण के आधार पर कृष्ण की बाल लीलाओं और प्रेम की गाथाओं को सूरसागर, स्माहत्य लहरा, और सूर-सूराबला जैसे ग्रंथों में प्रस्तुत किया। सूरदास ने एक लाख पदों की रचना की थी, हालांकि अब केवल चार-पांच हजार पद ही उपलब्ध हैं। अष्टछाप काव्य के अन्य प्रमुख कवि कुंभनदास, परमानंददास, कृष्णदास, छातस्वामा, गोविंदस्वामी, चतुर्भुजदास, और नंददास थे। इन कवियों ने कृष्ण की भक्ति और प्रेम को विभिन्न दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया।
सप्रदाय और उनका योगदान:
1.
बल्लभ सप्रदाय:
o प्रवर्तक: बल्लभाचार्य।
o सिद्धांत: शुद्धाद्वैत दर्शन, जिसमें माया का कोई स्थान नहीं है।
o बल्लभाचार्य ने "पुष्टमार्ग" की स्थापना की, जिसमें ईश्वर की कृपा को मुख्य मान्यता दी गई। उन्होंने माया के दो प्रकार - विद्या माया और अविद्या माया - का वर्णन किया। उनके अनुयायी, अष्टछाप के कवि, कृष्ण भक्ति के प्रचारक बने।
2.
नंबरक सप्रदाय:
o प्रवर्तक: नंबार्काचार्य।
o सिद्धांत: द्वैत-आद्वैत (त्वताद्वैतवाद), जिसमें कृष्ण को परब्रह्म और राधा को स्वकाया रूप मानते हैं।
o नंबार्काचार्य ने राधा-कृष्ण के युगल स्वरूप की उपासना की। उनके ग्रंथ "वेदांत पारिजात" और "दशश्लोका" में उनके सिद्धांतों का वर्णन है।
3.
राधाबल्लभ सप्रदाय:
o प्रवर्तक: श्रीहित हरिवंश।
o सिद्धांत: प्रेम को भक्ति का मूलाधार माना गया। राधा को कृष्ण से ऊँचा स्थान दिया गया।
o राधा की उपासना प्रमुख रूप से की जाती है, जबकि कृष्ण गौण रूप में होते हैं। इस सप्रदाय के कवि राधा-कृष्ण की प्रेमलीलाओं का सुंदर चित्रण करते हैं।
4.
हारदास सप्रदाय:
o प्रवर्तक: स्वामा हारदास।
o सिद्धांत: प्रेम को उपासना का मुख्य तत्व माना गया।
o हारदास ने प्रेम और भक्तिभाव को अपने काव्य में प्रमुख स्थान दिया। उनके ग्रंथ "प्रेमदास के पद" और "कालमाल" में राधा-कृष्ण की प्रेमलीलाओं का वर्णन है।
5.
चैतन्य सप्रदाय:
o प्रवर्तक: महाप्रभु चैतन्य।
o सिद्धांत: आचार्य भेदाभेद, जिसमें कृष्ण को परम तत्व माना गया और भक्ति को मोक्ष का साधन कहा गया।
o चैतन्य महाप्रभु ने प्रेम, ममता और भावुकता को भक्ति का आधार माना और राधा-कृष्ण की उपासना की। उनके अनुयायी ब्रजभाषा में कृष्ण भक्ति के ग्रंथों की रचना करने लगे।
सारांश (पॉइंट-वाइज)
- राम काव्य धारा:
- भगवान राम के जीवन और गुणों पर आधारित काव्य।
- प्रमुख आचार्य: रामानुजाचार्य, रामानंद, माध्वाचार्य।
- उद्देश्य: राम की भक्ति और उनके चरित्र का प्रचार।
- कृष्ण काव्य धारा:
- भागवत पुराण और महाभारत पर आधारित।
- प्रमुख कवि: अश्वघोष, जयदेव, सूरदास।
- राधा-कृष्ण के प्रेम का वर्णन।
- अष्टछाप के कवि: सूरदास, कुंभनदास, परमानंददास, कृष्णदास, आदि।
- सप्रदाय:
- बल्लभ सप्रदाय:
- प्रवर्तक: बल्लभाचार्य।
- सिद्धांत: शुद्धाद्वैत दर्शन, पुष्टमार्ग।
- माया के प्रकार: विद्या और अविद्या।
- नंबरक सप्रदाय:
- प्रवर्तक: नंबार्काचार्य।
- सिद्धांत: द्वैत-आद्वैत (त्वताद्वैतवाद), राधा-कृष्ण उपासना।
- ग्रंथ: वेदांत पारिजात, दशश्लोका।
- राधाबल्लभ सप्रदाय:
- प्रवर्तक: श्रीहित हरिवंश।
- सिद्धांत: प्रेम को भक्ति का आधार, राधा की उपासना।
- हारदास सप्रदाय:
- प्रवर्तक: स्वामा हारदास।
- सिद्धांत: प्रेम की उपासना।
- ग्रंथ: प्रेमदास के पद, कालमाल।
- चैतन्य सप्रदाय:
- प्रवर्तक: महाप्रभु चैतन्य।
- सिद्धांत: आचार्य भेदाभेद, प्रेम और भक्ति का महत्व।
- प्रमुख ग्रंथ: जयदेव, वेदांत पारिजात, आदि।
यह संक्षिप्त और विस्तृत विवरण राम और कृष्ण काव्य धाराओं तथा उनके प्रमुख प्रवर्तकों और सप्रदायों की समग्र जानकारी प्रदान करता है।
रस योजना
विस्तृत सारांश
कृष्ण काव्य में रस योजना
कृष्ण काव्य का मूल प्रातपाद्य कृष्ण का बाललीला और प्रणय काव्य का चित्रण है, इसलिए इसमें मुख्यतः वात्सल्य और श्रृंगार रस की प्रधानता है। इन दोनों रसों का पूर्ण परिचय कृष्ण भक्त साहित्य में देखने को मिलता है। सूरदास को वात्सल्य रस का सम्राट माना जाता है क्योंकि उन्होंने बाल कृष्ण के मनोभावों का ऐसा हृदयस्पर्शी वर्णन किया है जो अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। आचार्य हजारप्रसाद द्ववेदी ने सूरदास के वात्सल्य वर्णन पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि बालकृष्ण की चेष्टाओं का चित्रण काव्य में अद्वितीय होशियारी और सूक्ष्म निरीक्षण का परिचायक है। इसमें न तो शब्दों की कमी है, न अलंकार की, न भावों की और न ही भाषा की। सूरदास के “मैया मैं नाह माखन खायो” और “मैया कबाह बढ़ेगा चोटा” जैसे पदों का माधुर्य सूरदास के वात्सल्य रस के वर्णन को उजागर करने में पूरी तरह सक्षम है।
श्रृंगार रस की योजना भी सूरदास और अन्य कृष्ण भक्त कवियों के काव्य में सुंदर रूप से की गई है। राधा और कृष्ण के प्रेम का चित्रण सूर ने अपनी पूरी काव्य कुशलता के साथ किया है। भ्रमरगीत प्रसंग में गोपियों के प्रेम का अत्यंत मनोवैज्ञानिक वर्णन किया गया है। मीराबाई, सूरदास और रसखान ने विरह श्रृंगार के मार्मिक चित्रण अपने काव्य में प्रस्तुत किए हैं। कृष्ण काव्य में वात्सल्य और श्रृंगार रस के अलावा शांति और अद्भुत रस की योजना भी की गई है। वन्य के पदों में शांति रस और श्रृंगार-कृष्ण के अलंकरण कार्यों का वर्णन अद्भुत रस में हुआ है।
रात तत्व का समावेश
कृष्ण काव्य में श्रृंगार वर्णन के साथ-साथ रात तत्व का भी समावेश हुआ है। कवियों ने नायिका-भेद और अलंकार-निरूपण करना शुरू कर दिया था। सूरदास और रसखान के काव्यों में रात तत्व का समावेश प्रचुर मात्रा में है। सूरदास ने “साहित्य लहरा” में नायिका भेद और अलंकार वर्णन किया है जबकि रसखान ने अपने “रस मजरा” में नायिका भेद, हाव-भाव, रात आदि का विस्तृत निरूपण किया है। रसखान का एक अन्य रचनात्मक ग्रंथ “वराह मजरा” भी है जिसमें रात के काव्यशास्त्रीय भेद समझाए गए हैं। राधा और कृष्ण के शोभा को लेकर नख-शिख वर्णन की परंपरा भी चल रही थी और इसी आधार पर ऋतु वर्णन की शुरुआत हुई थी। इस प्रकार कृष्ण भक्त काव्य में रातशास्त्र का प्रवेश हो गया था।
डॉ. रामकुमार वर्मा के अनुसार, कृष्ण काव्य का वर्ण्य विषय केवल कृष्ण भक्त से संबंधित न रहकर नख-शिख, नायिका भेद और ऋतु वर्णन में विस्तार पाने लगा था। इस समय भाषा परंपरागत हो गई थी, इसलिए अलंकार योजना भी भाषा के साथ जुड़ी हुई थी। रात तत्व का निरूपण कृष्ण भक्त काव्य में व्यापक रूप से देखने को मिलता है।
काव्य रूप
कृष्ण काव्य के महाकाव्यात्मक उदात्तता और व्यापकता का अभाव होता है। कृष्ण के किशोर जीवन और बाल-जीवन का चित्रण तो हुआ है, लेकिन महाभारत के योगेश्वर कृष्ण, जो राजनैतिक और धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण थे, उनका चित्रण कृष्ण भक्त काव्य में प्रायः नहीं हुआ है। कृष्ण जीवन के प्रेम पक्ष पर आधारित काव्य में मधुरता, सरसता और रागात्मकता तो है, लेकिन उदात्तता, गरिमा और भव्यता के स्तर पर यह राम काव्य से मेल नहीं खाता। इसका कारण यह है कि रामभक्त कवियों ने प्रबंधकाव्य की रचना की, जबकि कृष्ण भक्त कवियों ने मुक्तक काव्य की रचना की। कृष्णलाला के विषय पर रचित काव्य गात और मुक्तक शैलाओं के लिए उपयुक्त था। इस काल में कृष्ण के जीवन को आधार बनाकर कुछ प्रबंध काव्य भी लिखे गए जैसे कि भवरगात, रास पचाध्याय, सुदामा चरित, रुक्मणा मंगल आदि, लेकिन मुक्तक काव्य की प्रधानता बनी रही। प्रबंध रचना के लिए जो व्यापक दृष्टि और शब्द निर्वाह की आवश्यकता थी, उसका अभाव इस काल के काव्यों में देखा जा सकता है।
भाषा शैली
कृष्ण काव्य पूरी तरह से ब्रजभाषा में लिखा गया है। इस दृष्टि से कृष्ण भक्त काव्य अत्यंत समर्थ और सशक्त माना जाता है। सूरदास की ब्रजभाषा पारंपरिक और साहित्यिक है और इसमें प्रत्येक मनोभाव को सफलतापूर्वक व्यक्त करने की क्षमता है। उनकी ब्रजभाषा की कोमलता, सरसता और माधुर्यता ने इसे व्यापक काव्य भाषा के रूप में स्थापित किया और कई सौ वर्षों तक काव्य भाषा के रूप में सम्मानित रही। ब्रज के लोकप्रचलित भाषा को व्यापक काव्य भाषा बना कर इन्होंने अपनी सामर्थ्य का परिचय दिया है। नददास भी ब्रजभाषा के अच्छे ज्ञाता थे, इसलिए उनके संबंध में कहा जाता है कि “नददास जाड॒या।” इन कवियों की भाषा लोकभाषा में आधारित रही है और इसमें लोकप्रचलित मुहावरों और सूक्तियों का सुंदर समावेश किया गया है।
ब्रजभाषा का व्यापक प्रतिष्ठान होने के बावजूद, उस समय तक उसका कोई पारंपरिक व्याकरण स्वरूप स्थापित नहीं हो पाया था। इसका कारण यह था कि कवियों ने मनमाने प्रयोग करते हुए शब्दों को इच्छानुसार तोड़ा-मरोड़ा और कई शब्दों का गलत प्रयोग किया। सूरदास का भाषा पर राजस्थानी प्रभाव है जबकि रसखान की भाषा शुद्ध ब्रजभाषा है।
कृष्ण भक्त कवियों ने प्रायः गात शैलाओं का प्रयोग किया है। गातात्मकता, भावात्मकता, वैयक्तिकता और कोमलता जैसे गात तत्वों का समावेश इनकी रचनाओं में मिलता है। सूरदास की काव्य रचनाओं में भाव व्यंजकता, वक्रता और लाक्षणिकता के कारण गात शैलागत प्रौढ़ता भी देखने को मिलती है।
अलकार और छंद
सूरदास, नददास, रसखान और मीराबाई कृष्ण भक्त काव्य में अग्रगण्य कवि हैं। उनके काव्यों में अलकारों का मनोहर सौंदर्य देखा जा सकता है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, भावना, असगात और प्रत्यक जैसे अलकार उनके काव्य में यत्र-तत्र देखे जा सकते हैं। ये अलकार भाव व्यंजना के लिए आवश्यक होने पर ही प्रयुक्त किए गए हैं, न कि चमत्कार प्रदर्शन के लिए या केवल प्रयास साध्य के रूप में। इन कवियों के काव्य का सौंदर्य अत्यंत सशक्त और सुंदर बन पड़ा है।
कृष्ण भक्त काव्यों में प्रायः पद लिखे गए हैं। सूरसागर में पदों की प्रधानता है। नददास ने रूप मजरा और रास मजरा में दोहा-चौपाई का प्रयोग किया है। रसखान ने काव्य और सवैया लिखा है। काव्य में कुडालया, गातका और आरल्ल जैसे अन्य छंदों का भी प्रयोग हुआ है।
प्रमुख कृष्ण भक्त काव्य और काव्यकार
1.
सूरदास (1478-1583 ई.) - सूरसागर, साहित्य लहरा, सूर सूराबला
2.
कुंभदास (1468-1583 ई.) - पद संग्रह में 186 पद
3.
परमानंददास (1493 ई.) - परमानंद सागर में 835 पद
4.
कृष्णदास (1496-1578 ई.) - जुगलमान चरित, भ्रमरगात, प्रेमतत्व निरूपण
5.
नददास (1533-1583 ई.) - अनेकार्थ मजरा, रस मजरा, मान मजरा, रूप मजरा, गोवर्धन लाला
6.
गावदस्वामा (1505-1585 ई.) - गोवदस्वामा के पद में 252 पद
7.
छातस्वामा (1515-1583 ई.) - पदावला में 200 पद
8.
चतुर्भुजदास (1530-1585 ई.) - चतुर्भुज कार्तन संग्रह, कार्तनावला
9.
श्राभट् (1595 ई.) - युगल शतक (177 पद)
10. हारव्यासदेव - माहावाणा
11. **परशुराम
अभ्यास- प्रश्न
कृष्ण काव्य का प्रमुख प्रवृत्तियों के विषय समझाइए।
कृष्ण काव्य का प्रमुख प्रवृत्तियों के विषय में विवरण
कृष्ण काव्य भारतीय काव्य परंपरा का एक महत्वपूर्ण अंग है, जिसे विशेष रूप से कृष्ण भक्ति के साहित्यिक अनुभवों से जोड़कर देखा जाता है। इस काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित हैं:
1. रस योजना
कृष्ण काव्य का मूल तत्व कृष्ण की बाललीलाओं और प्रेम क्रीड़ों का चित्रण है। इस काव्य में वात्सल्य और श्रृंगार रस की प्रधानता होती है। सूरदास जैसे कवि ने कृष्ण के बाल मनोभावों का ऐसा हृदयगाह वर्णन किया है कि वह अन्यत्र नहीं मिलता। उनके पदों में वात्सल्य रस का मधुर वर्णन मिलता है, जैसे कि "मैया में नाह माखन खायो" और "मैया कबाह बढ़ेगा चोटा" में वात्सल्य की विशेषताएँ स्पष्ट रूप से उभरती हैं। इसके साथ-साथ, श्रृंगार रस का भी सुंदर चित्रण कृष्ण भक्त काव्य में मिलता है, जो राधा-कृष्ण के प्रेम को अत्यंत भावनात्मक और कला के उत्कृष्ट रूप में प्रस्तुत करता है।
2. रास तत्व का समावेश
कृष्ण काव्य में रास तत्व का समावेश प्रमुखता से हुआ है। कवि नायिका-भेद और अलंकार-निरूपण की प्रक्रियाओं को विकसित करते हैं। सूरदास और नददास जैसे कवियों ने नायिका भेद और अलंकारों की विस्तृत व्याख्या की है। सूरदास की काव्य-रचना "साहित्य लहरा" और नददास की "रस मजरा" रास तत्व का प्रतिनिधित्व करती है। इन काव्यों में नायिका-भेद, हाव-भाव, और ऋतु वर्णन को लेकर विचार किया गया है, जिससे रासशास्त्र का व्यापक विकास हुआ है।
3. काव्य रूप
कृष्ण काव्य की महाकाव्यात्मक उदात्तता और व्यापकता की तुलना महाभारत जैसे ग्रंथों से की जा सकती है, परंतु इसमें मुख्यतः काव्यात्मक रचनाएँ, जैसे कि मुक्तक काव्य, प्रचलित हैं। कृष्ण की किशोरावस्था और बाल-लीलाओं का चित्रण इस काव्य में हुआ है, लेकिन महाभारत के योगेश्वर कृष्ण का चित्रण कम देखने को मिलता है। कृष्ण भक्त काव्य में रचनात्मकता के लिए प्रबंध काव्य की अपेक्षा मुक्तक काव्य का प्रयोग अधिक हुआ है।
4. भाषा शैली
कृष्ण काव्य ब्रजभाषा में लिखा गया है, जो कि काव्य भाषा के रूप में अत्यंत समर्थ और सशक्त मानी जाती है। सूरदास की ब्रजभाषा अपने कोमलता, सरसता, और माधुर्य के कारण व्यापक काव्य भाषा के रूप में प्रतिष्ठित है। ब्रजभाषा ने लोक प्रचलित भाषा को काव्यात्मक रूप में प्रस्तुत किया और इसे व्यापक सम्मान प्राप्त हुआ। हालांकि, इस काल में ब्रजभाषा का कोई पारंपरिक व्याकरण नहीं था, लेकिन काव्य लेखकों ने इसे अपने अनुसार प्रयोग किया।
5. अलंकार और छंद
कृष्ण भक्त काव्य में अलंकारों का महत्वपूर्ण स्थान है। सूरदास, नददास, रसखान, और मारा जैसे कवियों ने अलंकारों का मनोहारी प्रयोग किया है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, भावना, आदि अलंकार उनके काव्यों में स्वाभाविक रूप से शामिल हैं। ये अलंकार भाव व्यंजना के लिए आवश्यक होते हैं और काव्य की सुंदरता और प्रभावशीलता को बढ़ाते हैं। कृष्ण काव्य में अक्सर पदों का प्रयोग किया गया है, जैसे सूरसागर में पदों की प्रधानता है, जबकि नददास ने दोहा-चौपाई का प्रयोग किया है।
6. प्रमुख कृष्ण भक्त कवि और काव्य
कृष्ण काव्य की प्रमुख रचनाएँ और कवि निम्नलिखित हैं:
- सूरदास
(1478-1583): प्रमुख काव्य रचनाएँ - सूरसागर, साहित्य लहरा, सूर सूराबला।
- नददास
(1533-1583): प्रमुख काव्य रचनाएँ - अनेकार्थ मजरा, रस मजरा, मान मजरा।
- रसखान
(1533-1618): प्रमुख काव्य रचनाएँ - सुजान रसखान, प्रेम वाटिका, दान लाला।
- परमानंददास (1493): प्रमुख काव्य रचनाएँ - परमानंद सागर।
- कृष्णदास
(1496-1578): प्रमुख काव्य रचनाएँ - जुगलमान चरित्र, भ्रमरगात।
इन कवियों ने कृष्ण के भक्ति काव्य को विभिन्न रूपों में प्रस्तुत किया और कृष्ण भक्ति की विविधता को दर्शाया।
कृष्णभक्ति काव्यधारा के प्रमुख काव कौन-से है? उनकी रचनाएँ का संक्षिप्त उल्लेख काजए॥
कृष्णभक्ति काव्यधारा के प्रमुख कवि और उनकी रचनाएँ
कृष्णभक्ति काव्यधारा में कई महत्वपूर्ण कवि हुए हैं, जिन्होंने कृष्ण के प्रति अपनी भक्ति और प्रेम को अद्भुत काव्यात्मक रूप में प्रस्तुत किया। यहाँ कुछ प्रमुख कृष्णभक्त कवियों और उनके रचनाओं का संक्षिप्त उल्लेख किया गया है:
1. सूरदास (1478-1583)
- रचनाएँ:
- सूरसागर: यह सूरदास की प्रमुख रचना है, जिसमें कृष्ण की बाल लीलाओं और उनके प्रेम को बड़े सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया गया है।
- सूरसार: इसमें कृष्ण के विभिन्न रंगों और स्वरूपों का चित्रण है।
- साहित्य लहरा: इसमें कृष्ण की अलौकिक लीलाओं और उनके प्रेम का वर्णन है।
- सूर सूराबला: इसमें सूरदास ने कृष्ण के जीवन की विभिन्न घटनाओं का वर्णन किया है।
2. रसखान (1533-1618)
- रचनाएँ:
- रसखान की कविताएँ: ये कविताएँ कृष्ण के प्रेम और भक्ति की गहराई को दर्शाती हैं। विशेष रूप से उनकी कविताओं में कृष्ण के चरित्र की विशेषताएँ और उनके प्रति भक्तों की भावनाएँ प्रकट की गई हैं।
- प्रेम वाटिका: इसमें कृष्ण और राधा के प्रेम की सुंदर अभिव्यक्ति है।
3. नददास (1533-1583)
- रचनाएँ:
- अनेक अर्थ मजरा: इसमें कृष्ण की भक्ति और उनके स्वरूप का वर्णन है।
- रस मजरा: इसमें कृष्ण के प्रेम रस का गहराई से वर्णन किया गया है।
- मान मजरा: यह रचना कृष्ण के प्रेम और उनके भक्तों की भावनाओं को व्यक्त करती है।
4. कृष्णदास (1496-1578)
- रचनाएँ:
- जुगलमान चरित्र: इसमें कृष्ण और राधा के प्रेम की विभिन्न घटनाओं का वर्णन है।
- भ्रमरगात: इसमें कृष्ण के प्रेम और उनके भक्तों के अनुभवों को वर्णित किया गया है।
5. परमानंददास (1493)
- रचनाएँ:
- परमानंद सागर: इसमें कृष्ण की भक्ति और उनके प्रेम का सार प्रस्तुत किया गया है।
6. कबीर (1440-1518)
- रचनाएँ:
- कबीर की साखियाँ: हालांकि कबीर की काव्यधारा में कृष्ण भक्ति का स्थान विशेष नहीं है, लेकिन उनकी रचनाओं में कृष्ण और राम के प्रति प्रेम और भक्ति का उल्लेख मिलता है।
7. घनानंद (18वीं शताब्दी)
- रचनाएँ:
- कृष्ण काव्य: इसमें कृष्ण के चरित्र और उनके भक्तों के प्रेम का चित्रण किया गया है।
ये कवि कृष्णभक्ति काव्यधारा के प्रमुख स्तंभ हैं और उनके काव्य भारतीय साहित्य में कृष्ण की भक्ति और प्रेम के अद्वितीय रूप को प्रस्तुत करते हैं। उनके काव्य में कृष्ण के विभिन्न रूप, उनके चरित्र, और उनके भक्तों की भावनाओं का सुंदर वर्णन मिलता है।
राम काव्य का ववकास तथा राम काव्य परपरा के भक्त कावयों के ववषय में उल्लेख करें।
राम काव्य का विकास और राम काव्य परंपरा के भक्त कवि
राम काव्य का विकास
राम काव्य का विकास भारतीय साहित्य में विशेष महत्व रखता है। यह काव्य भारतीय धार्मिकता, संस्कृति और समाज के महत्वपूर्ण हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है। इसके विकास की प्रक्रिया निम्नलिखित चरणों में देखी जा सकती है:
1.
प्रारंभिक काव्य:
o रामायण (वाल्मीकि):
§ काल: लगभग 5वीं शताब्दी ई.पू.
§ सार: रामायण, महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित, राम की जीवन गाथा का सबसे प्राचीन और महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसमें राम के आदर्श जीवन, उनके धर्म, और रघुकुल की प्रतिष्ठा का विस्तृत वर्णन है।
2.
मध्यकालीन काव्य:
o कवियों द्वारा रचित रामकाव्य:
§ काल: 12वीं शताब्दी से 17वीं शताब्दी
§ सार: इस काल में कई कवियों ने राम के जीवन और उनके चरित्र पर आधारित काव्य रचनाएँ कीं। इनमें कुछ प्रमुख रचनाएँ और कवि निम्नलिखित हैं:
§ रामचरितमानस (तुलसीदास):
§ काल: 16वीं शताब्दी
§ सार: तुलसीदास द्वारा रचित, यह ग्रंथ राम की जीवनगाथा का वर्णन करता है और इसे हिन्दी साहित्य की महान काव्य रचनाओं में से एक माना जाता है।
§ आदर्शरामायण (नरसिंह मेहता):
§ काल: 15वीं शताब्दी
§ सार: यह काव्य भी राम के जीवन पर आधारित है और भक्तिरस की अभिव्यक्ति है।
3.
भक्तिकाव्य और लोककाव्य:
o काल: 17वीं शताब्दी से वर्तमान समय तक
o सार: भक्तिकाव्य और लोककाव्य में राम का आदर्श, उनकी भक्तिरस की छवि, और उनके प्रति श्रद्धा का अनुपम वर्णन किया गया है।
राम काव्य परंपरा के भक्त कवि
राम काव्य परंपरा में कई प्रमुख भक्त कवि हुए हैं जिन्होंने अपने काव्य के माध्यम से राम के प्रति अपनी भक्ति और श्रद्धा को व्यक्त किया:
1.
तुलसीदास (1532-1623):
o रचनाएँ:
§ रामचरितमानस: यह तुलसीदास की सबसे प्रसिद्ध रचना है, जो राम के जीवन, उनके आदर्शों, और उनके भक्तों की भक्ति को सुंदर ढंग से प्रस्तुत करती है।
§ दोहावली: इसमें राम के गुणों और उनके भक्तों के अनुभवों को व्यक्त किया गया है।
§ कवितावली: इसमें तुलसीदास की भक्ति और राम के प्रति श्रद्धा का वर्णन है।
2.
कबीर (1440-1518):
o रचनाएँ:
§ कबीर की साखियाँ: कबीर ने अपने पदों में राम के प्रति भक्ति और उनके आदर्शों का वर्णन किया है। उनके पदों में राम और कबीर की भक्ति का सुंदर चित्रण मिलता है।
3.
रामनंद (14वीं शताब्दी):
o रचनाएँ:
§ रामनंद की भजन: रामनंद ने अपने भजनों और पदों में राम के प्रति गहरी भक्ति और प्रेम व्यक्त किया है।
4.
नरसिंह मेहता (15वीं शताब्दी):
o रचनाएँ:
§ आदर्शरामायण: इसमें राम की भक्ति और उनके जीवन के आदर्शों का चित्रण है।
5.
घनानंद (18वीं शताब्दी):
o रचनाएँ:
§ राम काव्य: इसमें राम के चरित्र और उनके भक्तों की भक्ति का सुंदर वर्णन है।
इन कवियों ने अपने-अपने समय में राम के जीवन और उनके आदर्शों को साहित्यिक रूप में प्रस्तुत किया, जिससे राम काव्य परंपरा समृद्ध और विविध रूप में विकसित हुई। इन काव्यों ने भारतीय समाज में राम के प्रति भक्ति और श्रद्धा को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
राम काव्य प्रमुख प्रवर्त्तक पर प्रकाश डाले।
राम काव्य का प्रमुख प्रवर्त्तक
राम काव्य की परंपरा भारतीय
साहित्य और संस्कृति में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इसमें कई प्रमुख प्रवर्त्तक
रहे हैं जिन्होंने राम के जीवन, उनकी भक्ति, और उनके आदर्शों को अपने काव्य के माध्यम
से व्यक्त किया। यहां हम उन प्रमुख प्रवर्त्तकों पर प्रकाश डालेंगे जिन्होंने राम काव्य
को आकार देने और लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई:
1. वाल्मीकि
- काल: लगभग 5वीं शताब्दी ई.पू.
- रचना: रामायण
- योगदान: वाल्मीकि को रामायण का लेखक माना जाता
है। उनकी यह रचना भारतीय काव्य साहित्य की पहली और सबसे महत्वपूर्ण काव्य ग्रंथ
मानी जाती है। इसमें राम के जीवन की पूरी कथा, उनके आदर्श, और उनके संघर्षों का
विस्तार से वर्णन किया गया है। वाल्मीकि ने राम के चरित्र को आदर्श रूप में प्रस्तुत
किया, जो आज भी धार्मिक और साहित्यिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है।
2. तुलसीदास
- काल: 16वीं शताब्दी
- रचना: रामचरितमानस
- योगदान: तुलसीदास ने रामायण की कहानी को अवधी
भाषा में प्रस्तुत किया, जिससे यह आम जन के बीच अधिक लोकप्रिय हुआ। उनका रामचरितमानस
एक महान भक्ति काव्य है जिसमें राम के जीवन के आदर्शों और उनकी भक्ति का गहराई
से वर्णन किया गया है। इस ग्रंथ ने भक्ति साहित्य की धारा को नये दिशा में अग्रसर
किया और व्यापक जनमानस में राम के प्रति श्रद्धा को फैलाया।
3. कबीर
- काल: 15वीं शताब्दी
- रचना: साखियाँ और पद
- योगदान: कबीर ने अपने भक्ति पदों में राम के
प्रति अपनी गहरी भक्ति और उनके आदर्शों को व्यक्त किया। उनके भजन और साखियाँ राम
के दिव्यत्व और भक्ति के पहलुओं को सरल और प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करती हैं,
जो भक्ति आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान है।
4. नरसिंह मेहता
- काल: 15वीं शताब्दी
- रचना: आदर्शरामायण
- योगदान: नरसिंह मेहता ने रामकाव्य में भक्तिरस
की प्रधानता को स्थापित किया। उनका आदर्शरामायण राम की भक्ति और उनके जीवन की
कथा को भक्तिपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करता है। उन्होंने भक्ति और संत परंपरा को
साहित्य में अभिव्यक्त किया।
5. घनानंद
- काल: 18वीं शताब्दी
- रचना: राम काव्य
- योगदान: घनानंद ने राम के जीवन और उनके आदर्शों
को अपनी कविताओं में प्रस्तुत किया। उनके काव्य में राम के भक्ति और प्रेम का
सुंदर चित्रण मिलता है, जो भक्तिपंथ की साहित्यिक परंपरा को समृद्ध करता है।
6. रामानंद
- काल: 14वीं शताब्दी
- रचना: भजन और पद
- योगदान: रामानंद ने भक्ति काव्य की परंपरा को
स्थापित किया और राम के प्रति भक्ति को लोकप्रिय बनाया। उनके भजन और पद राम की
भक्ति का एक महत्वपूर्ण स्रोत बने, और उन्होंने भक्तिरस की अभिव्यक्ति में योगदान
दिया।
इन प्रवर्त्तकों ने राम काव्य
की परंपरा को अपने-अपने समय में समृद्ध और प्रभावशाली बनाया। उनके द्वारा रचित काव्य
ग्रंथ और पद आज भी भक्ति और साहित्यिक परंपरा में अत्यंत महत्वपूर्ण माने जाते हैं।
अष्टछाप के कुछ प्रमुख काव्य का साक्षप्त जावन पारचय दाजए।
अष्टछाप भक्ति काव्य की एक महत्वपूर्ण परंपरा है जिसमें प्रमुख कवियों के आठ समूह को शामिल किया गया है, जिनका योगदान कृष्णभक्ति साहित्य में अत्यधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। ये कवि विभिन्न भाषाओं में काव्य रचनाएँ करते थे और उनकी रचनाओं में कृष्ण की भक्ति का गहराई से वर्णन होता है। यहाँ पर कुछ प्रमुख अष्टछाप काव्यों का संक्षिप्त परिचय दिया गया है:
1. संत तुलसीदास
- रचना: रामचरितमानस
- परिचय: तुलसीदास ने रामचरितमानस के माध्यम से भगवान राम की कथा को अवधी भाषा में प्रस्तुत किया। यह ग्रंथ भक्ति साहित्य में अत्यधिक महत्वपूर्ण है और भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में एक विशेष स्थान रखता है। तुलसीदास ने राम के जीवन के आदर्शों और उनके संघर्षों को विस्तृत रूप से वर्णित किया है।
2. संत सूरदास
- रचना: सूर सागर
- परिचय: सूरदास की रचनाएँ कृष्णभक्ति की गहराई को दर्शाती हैं। उनका सूर सागर काव्य कृष्ण की बाललीलाओं और उनके दिव्य खेलों को चित्रित करता है। सूरदास ने कृष्ण के प्रति अपनी गहरी भक्ति और प्रेम को अत्यंत प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है।
3. संत मीरा बाई
- रचना: मीराबाई के पद
- परिचय: मीरा बाई की भक्ति रचनाएँ कृष्ण भक्ति की उत्कृष्टता का परिचायक हैं। उनके पद कृष्ण के प्रति अटूट प्रेम और भक्ति को दर्शाते हैं। मीरा बाई के पद उनके व्यक्तिगत भक्ति अनुभव और कृष्ण के साथ उनके दिव्य संबंध को प्रस्तुत करते हैं।
4. संत नंददास
- रचना: नंददास के पद
- परिचय: नंददास ने कृष्णभक्ति को अपने पदों और रचनाओं के माध्यम से प्रकट किया। उनकी रचनाएँ कृष्ण के भक्तिपंथ को सजीव रूप में प्रस्तुत करती हैं और भक्तिरस को प्रकट करती हैं।
5. संत परशुराम
- रचना: परशुराम के पद
- परिचय: परशुराम ने कृष्णभक्ति काव्य में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। उनकी रचनाएँ कृष्ण के प्रति भक्ति और प्रेम के गहरे भावों को प्रकट करती हैं।
6. संत कृतिवास
- रचना: कृतिवास रामायण
- परिचय: कृतिवास ने अपनी रचनाओं में राम के जीवन की कथा को प्रस्तुत किया। उनकी काव्य रचनाएँ रामकाव्य परंपरा में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं और भक्ति साहित्य की परंपरा को समृद्ध करती हैं।
7. संत चैतन्य महाप्रभु
- रचना: साहित्यिक ग्रंथ और भजन
- परिचय: चैतन्य महाप्रभु ने भक्ति साहित्य में कृष्ण भक्ति की विशेषता को उजागर किया। उनके ग्रंथ और भजन कृष्ण की भक्ति और उनके जीवन के आदर्शों को व्यक्त करते हैं।
8. संत भक्त सूर
- रचना: सूर भक्ति रचनाएँ
- परिचय: भक्त सूर ने अपनी रचनाओं के माध्यम से कृष्ण की भक्ति को प्रकट किया। उनकी कविताएँ और भजन कृष्ण के दिव्य रूप और भक्ति को प्रस्तुत करते हैं।
इन अष्टछाप कवियों ने कृष्णभक्ति साहित्य को समृद्ध करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके काव्य और भक्ति रचनाएँ आज भी भक्ति परंपरा और साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं।
इकाई-13:
भक्तिकाल हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग
भक्तिकाल हिंदी साहित्य के स्वर्ण युग के रूप में जाना जाता है। इस काल के महत्व और विशेषताओं को समझना साहित्य के इतिहास में अति आवश्यक है। भक्तिकाल की साहित्यिक विशेषताएँ इस प्रकार हैं:
1. राज्याश्रय का त्याग
भक्तिकाल में कवियों ने राज्याश्रय को स्वीकार नहीं किया। इसके विपरीत, वारगाथा काल के कवि राज्याश्रित थे, जबकि भक्तिकाल के कवि स्वतंत्र रहकर काव्य का सृजन करते थे। इन कवियों ने किसी राजा की स्तुति या प्रशंसा नहीं की। केवल जायसी ने तत्कालीन बादशाह की स्तुति में कुछ पंक्तियाँ लिखी हैं, अन्यथा कवियों ने स्वतंत्रता और स्वाभाविकता को प्राथमिकता दी।
2. स्वान्तः सुखाय और परजन हिताय रचना
भक्तिकाल के कवियों ने जो भी रचनाएँ की, वे मुख्य रूप से "स्वान्तः सुखाय" (अपने अंतःकरण के सुख के लिए) थीं। हालांकि, यह रचनाएँ केवल अपने सुख के लिए नहीं, बल्कि समाज के लिए भी कल्याणकारी साबित हुईं। इन कवियों के धर्म उपदेश, नैतिक सिद्धांत, और भगवान के विभिन्न क्रियाकलाप समाज को सद्मार्ग पर प्रेरित करने वाले साबित हुए। अतः, इन रचनाओं को "परजन हिताय" भी माना जा सकता है।
3. भक्ति का प्राधान्य
भक्तिकाल के साहित्य में भक्ति का विशेष महत्व रहा। इस काल के कवियों ने परमात्मा की भक्ति का संदेश दिया और भक्ति के विभिन्न सोपानों और सिद्धांतों का वर्णन किया। दास्य और सखा भाव के साथ-साथ नवधा भक्ति (श्रवण, कीर्तन, नाम, जप आदि) का भी इसमें उल्लेख मिलता है। प्रेम, ज्ञान, और भक्ति का सुंदर समन्वय इस युग की एक महत्वपूर्ण देन है।
4. समन्वय की भावना
भक्तिकाल का सबसे बड़ा विशेषता समन्वय की भावना थी। इस काल के कवियों ने सगुण-निर्गुण, कर्म-भक्ति, शैव-वैष्णव, राजा-प्रजा, निर्धन-धनाढ्य, और विभिन्न संप्रदायों और मतों के बीच सुंदर समन्वय स्थापित किया। इस समन्वय का प्रतीक तुलसीदास के काव्य में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, जहाँ उन्होंने सगुण और निर्गुण दोनों को एक साथ स्वीकार किया है।
5. भारतीय संस्कृति की रक्षा
भक्तिकाल के कवियों ने भारतीय धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मुसलमानों के अत्याचारों के बावजूद, इन कवियों ने भारतीय संस्कृति को जीवित रखा और उसे उच्चतम रूप में प्रस्तुत किया। इससे समाज को श्रेष्ठ आदर्शों से प्रेरणा प्राप्त हुई और भारतीय संस्कृति की उन्नति संभव हो सकी।
6. श्रृंगार तथा शांत रस की प्रधानता
भक्तिकाल के साहित्य में मुख्यतः श्रृंगार और शांत रस का प्रयोग हुआ है। आत्मा-परमात्मा के विरह-मिलन और सौंदर्य-चित्रण में श्रृंगार रस प्रमुख रहा, जबकि भक्ति के उपदेशों, संदेशों, और सिद्धांतों में शांत रस का प्राधान्य रहा। तुलसीदास ने अपने काव्य में सभी रसों का प्रयोग किया है।
7. मुक्तक तथा प्रबंधकाव्य
इस काल में मुक्तक और प्रबंध दोनों प्रकार के काव्य लिखे गए। जायसी का "पद्मावत" और तुलसीदास का "रामचरितमानस" श्रेष्ठ प्रबंधकाव्य हैं। सूरदास और कबीर ने मुक्तक काव्य की रचना की। तुलसीदास ने भी कई मुक्तक काव्य लिखे।
8. गुरु का महत्त्व
भक्तिकाल में गुरु का महत्त्व सर्वोपरी माना गया। गुरु को मार्गदर्शक और परमात्मा से भी बढ़कर माना गया। यह विश्वास किया गया कि जीवन के विभिन्न संघर्षों से उद्धार पाने का मार्ग गुरु ही दिखाता है और गुरु ही साधक को परमात्मा के द्वार तक पहुंचाता है। कबीरदास ने भी गुरु की महिमा का गान किया है।
9. सामाजिक विषमता का खंडन
भक्तिकाल के कवियों ने समाज में व्याप्त विभिन्न कुरितियों, आडंबरों, अंधविश्वासों, और ऊँच-नीच के भेदभावों का खंडन किया। उन्होंने सभी को एक ही परमात्मा का अंश माना और कहा कि जो भी परमात्मा का ध्यान करता है, वह श्रेष्ठ है। इन कवियों ने मानवीय गुणों की प्रतिष्ठा की और समाज के कुत्सित रूप को बदलने का प्रयास किया।
10. भाषा
भक्तिकाल में ब्रज और अवधी भाषा का प्रचुर प्रयोग हुआ। संतों ने साधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग किया, तो जायसी ने अवधी भाषा का। तुलसीदास ने अवधी और ब्रज दोनों भाषाओं में काव्य का सृजन किया, जबकि सूरदास ने ब्रजभाषा को अपनाया।
11. छंद
इस काल में दोहा, चौपाई, कवित्त, सवैया, पद, सोरठा, बरवै आदि विभिन्न छंदों का प्रयोग किया गया। इन छंदों ने भक्तिकाव्य को लयबद्ध और आकर्षक बना दिया।
12. अलंकार
भक्तिकाल के कवियों ने अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग किया है। अनुप्रास, रूपक, उद्दीपक, प्रहर्षण, व्यतिरेक आदि अलंकारों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुआ है, जिससे काव्य और भी प्रभावशाली बन गया है।
13. संगीतात्मकता
भक्तिकाल का संपूर्ण साहित्य संगीतात्मकता से भरपूर है। दोहा, चौपाई आदि तो गेय हैं ही, पदों में यह गुण विशेष रूप से विद्यमान है। हर पद किसी न किसी राग-रागिनी पर आधारित है, जिससे काव्य में माधुर्य की वृद्धि हुई है।
14. अमर साहित्य
भक्तिकाल का साहित्य अमर साहित्य है। इसका महत्त्व आज भी है। इस समय की परिस्थितियों के लिए यह जितना उपयोगी और कल्याणकारी था, आज भी यह हमें प्रभुभक्ति के पावन गंगा में अवगाहन कराता है। तुलसीदास का "रामचरितमानस" आज भी प्रातःस्मरणीय ग्रंथ है। कबीर के उपदेश आज भी हमें ज्ञान प्रदान करते हैं। जायसी और सूरदास का काव्य आज भी पाठकों के हृदय में मधुरता का संचार करता है।
निष्कर्ष
इस प्रकार हम देखते हैं कि भक्तिकाल का साहित्य सर्वश्रेष्ठ साहित्य है। भाव और शिल्प की दृष्टि से यह साहित्य अत्यंत महत्वपूर्ण है। परमात्मा की भक्ति का पावन संदेश देने वाला यह साहित्य हिंदी साहित्य का अमूल्य निधि है। इस काल के कवियों ने जो साहित्य रचा, वह अपनी विशेषताओं के कारण आज भी अमर है। इस काल की विभिन्न विशेषताएँ इसे स्वर्णयुग का दर्जा प्रदान करती हैं। डॉ. श्यामसुंदर दास का कथन सत्य है कि "जिस युग में कबीर, जायसी, तुलसी, सूर जैसे रसासिद्ध कवियों और महात्माओं की दिव्यवाणी उनके अंतःकरणों से निकलकर देश के कोने-कोने में फैली थी, उसे हिंदी साहित्य के इतिहास में सामान्यतः भक्तयुग कहते हैं। निश्चित रूप से यह हिंदी साहित्य का स्वर्णयुग था।"
अभ्यास- प्रश्न
भूतकाल का मुख्य विशेषताएँ क्या है? सक्षेप में उल्लेख काजए।
भूतकाल (भूतकाल) की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
1.
घटनाओं का उल्लेख: भूतकाल का उपयोग उन घटनाओं, क्रियाओं या स्थितियों के बारे में बात करने के लिए किया जाता है जो पहले घटित हो चुकी हैं।
2.
समाप्त क्रिया: भूतकाल में क्रिया उस समय पूरी हो चुकी होती है जब उसके बारे में बात की जा रही होती है।
3.
विभिन्न रूप: भूतकाल के कई रूप होते हैं जैसे कि साधारण भूतकाल (Simple Past), अपूर्ण भूतकाल (Imperfect
Past), और पूर्ण भूतकाल (Perfect
Past), जिनका उपयोग भूतकालीन घटनाओं को अलग-अलग संदर्भों में व्यक्त करने के लिए किया जाता है।
4.
सन्दर्भ और समय: भूतकाल में की गई क्रियाओं का समय या संदर्भ अक्सर स्पष्ट होता है, जैसे "कल,"
"पिछले साल," आदि।
5.
कथात्मक शैली: भूतकाल का प्रयोग अक्सर कहानियाँ या घटनाओं का वर्णन करने में किया जाता है, जिससे यह कथात्मक शैली के लिए उपयुक्त होता है।
6.
क्रिया के रूपांतरण: भूतकाल में क्रियाओं के रूप को बदल दिया जाता है, जैसे "करना" का "किया," "आना" का "आया," आदि।
इस प्रकार भूतकाल उन घटनाओं और क्रियाओं को व्यक्त करता है जो पहले हो चुकी हैं और अब वर्तमान में नहीं हो रही हैं।
संक्षिप्त टिप्पणी लाखए-
(अ)
स्वान्त: सुखाय-परजनाहताय रचना। (ब) सामाजक 1वषमता का खडन
यहाँ दो विषयों पर संक्षिप्त टिप्पणी दी गई है:
(अ) स्वान्त: सुखाय-परजनाहताय रचना:
स्वान्त: सुखाय-परजनाहताय रचना का अर्थ है ऐसी रचना जो रचनाकार की आत्मसंतुष्टि और आनंद के लिए की गई हो, लेकिन वह समाज या अन्य लोगों के लिए भी प्रेरणादायक या उपयोगी हो। इसमें लेखक या कलाकार अपनी व्यक्तिगत भावना, विचार और संवेदनाओं को व्यक्त करता है, जो न केवल उसके लिए सुखद होता है, बल्कि दूसरों के जीवन में भी सकारात्मक प्रभाव डालता है। इस प्रकार की रचनाएँ अक्सर अपनी मौलिकता और आत्मिक गहराई के कारण अद्वितीय होती हैं।
(ब) सामाजिक विषमता का खंडन:
सामाजिक विषमता का खंडन का तात्पर्य है, समाज में व्याप्त असमानताओं, जैसे जाति, वर्ग, लिंग, धर्म, आदि के आधार पर हो रही भेदभावपूर्ण प्रथाओं और अन्यायों का विरोध करना। यह खंडन विभिन्न रूपों में हो सकता है, जैसे लेखन, आंदोलन, सामाजिक सुधार आदि। इस प्रक्रिया में ऐसे विचार और प्रयास किए जाते हैं जो समाज में समानता, न्याय और एकता को बढ़ावा देते हैं, और सभी व्यक्तियों को समान अवसर प्रदान करने की दिशा में काम करते हैं।
इकाई-14:
भक्ति कालान अन्य साहित्यिक प्रवृत्तियाँ
इस इकाई के अध्ययन के पश्चात् विद्यार्थी निम्नलिखित ज्ञान और समझ हासिल कर सकेंगे:
1.
भक्ति काल की साहित्यिक प्रवृत्तियों को जानना।
2.
वारकाव्य एवं प्रबंधात्मक चार्तकाव्य को समझना।
3.
अकबर दरबार के काव्य तथा रासकाव्य को जानना।
प्रस्तावना:
भक्ति काल की साहित्यिक प्रवृत्तियाँ साहित्य इतिहास के अन्य कालों से विशेष रूप से भिन्न हैं। इन प्रवृत्तियों का अपना एक विशेष महत्त्व है। भक्ति काल में निर्गुण-सगुण जैसी प्रमुख प्रवृत्तियों के अतिरिक्त कुछ गौण काव्य प्रवृत्तियाँ भी देखने को मिलती हैं, जिनका उल्लेख साहित्य के इतिहास में आवश्यक है। ये हैं - वारकाव्य, प्रबंधात्मक, चार्तकाव्य, रासकाव्य, अकबर दरबार का काव्य और रासकाव्य।
14.1 प्रमुख काव्य प्रवृत्तियाँ:
भक्ति काल में निर्गुण-सगुण जैसी प्रमुख प्रवृत्तियों के अतिरिक्त कुछ गौण काव्य प्रवृत्तियाँ भी देखने को मिलती हैं। इनमें वारकाव्य, प्रबंधात्मक, चार्तकाव्य, रासकाव्य, अकबर दरबार का काव्य और रासकाव्य का विशेष उल्लेख है। धार्मिक काव्य की प्रमुखता के कारण भक्ति काल में वारकाव्य-धारा अपेक्षाकृत कमज़ोर हो गई, लेकिन इसका नैरंतर्य बना रहा। इस काल में वारकाव्य का रचना करने वाले प्रमुख कवियों में श्राधर, नल्हासह, राउ जैतसा रासोकार, दुरसा आढ़ा, दयाराम (दयाल), कुभकर्ण, न्यामत खाँ जान शामिल हैं।
वारकाव्य:
वारकाव्य से तात्पर्य उन काव्य रचनाओं से है जो युद्ध, वीरता, और राजाओं की यशोगाथा को केंद्र में रखकर लिखे गए हैं। भक्ति काल में वारकाव्य अपेक्षाकृत कम हो गए थे, फिर भी इसका सिलसिला चलता रहा। इन काव्यों में युद्ध की तैयारियों, राजाओं की वीरता, शत्रुओं का उपहास, और युद्धों के भयानक चित्रण को स्थान मिला है।
श्राधर ने 'रणमल्ल छंद' की रचना की थी, जिसमें रणमल्ल राठौर की वीरता का वर्णन किया गया है। नल्हासह द्वारा रचित 'विजयपाल रासो' भी इस श्रेणी का एक प्रमुख काव्य है, जिसमें राजा विजयपाल और उनके युद्धों का वर्णन है।
राउ जैतसा रासो का रचयिता अज्ञात है, लेकिन इस काव्य में राव जैतसा और सम्राट हुमायूँ के भाई कामरान के बीच हुए युद्ध का वर्णन है।
दुरसा आढ़ा द्वारा रचित 'धुरुद्ध छत्रसाल' महाराणा प्रताप की वीरता का यशोगान करता है।
दयाराम (दयाल काब) ने 'राणा रासो' की रचना की थी, जिसमें सिसोदिया वंश के प्रमुख राजाओं के युद्धों और वीरता का वर्णन है।
कुभकर्ण द्वारा रचित 'रतन रासो' में रतलाम के महाराज रतनासह का प्रशस्तिवर्णन किया गया है।
न्यामत खाँ जान का 'क्याम खाँ रासो' भी इस काल का महत्वपूर्ण काव्य है, जिसमें क्याम खाँ चौहान और उनके वंशजों की वीरता का वर्णन किया गया है।
प्रबंधात्मक चार्तकाव्य:
भक्ति काल में सधारु अग्रवाल, शालभद्र सूर, गौतमरासकार, जाखू माणयार, देवप्रभ और पद्मनाभ जैसे कवियों ने कुछ प्रबंधात्मक चार्तकाव्यों की रचना की। ये काव्य जैन-काव्य की परंपरा में लिखे गए हैं या पौराणिक संदर्भों पर आधारित हैं। इनमें से प्रमुख काव्य हैं:
सधारु अग्रवाल की 'प्रद्युम्नचारित' ब्रजभाषा में लिखा गया एक महत्वपूर्ण काव्य है, जिसमें प्रद्युम्न की कथा का वर्णन है।
शालभद्र सूर द्वारा रचित 'पंचपांडवचारित' पांडवों की पौराणिक कथा पर आधारित जैन-काव्य है।
गौतमरास एक अन्य प्रमुख काव्य है, जिसमें महावीर के प्रथम गणधर गौतम की कथा का वर्णन है।
जाखू माणयार द्वारा रचित 'हर्षचंद्र पुराण' ब्रजभाषा का महत्वपूर्ण काव्य है, जिसमें राजा हर्षचंद्र की पौराणिक कथा का वर्णन है।
इन काव्यों में जैन-कथा और पौराणिक संदर्भों को ध्यान में रखकर घटनाओं और भावनाओं का समन्वय किया गया है।
अकबर दरबार का काव्य:
अकबर के दरबार में कई कवियों ने काव्य रचनाएं की, जिनमें दरबारी कवियों ने अकबर और उसके शासनकाल की प्रशंसा में कविताएं लिखीं।
रासकाव्य:
रासकाव्य में शृंगार, रासलीला, और कृष्ण के जीवन की घटनाओं का वर्णन किया गया है। ये काव्य भक्ति काल के कवियों द्वारा लिखे गए हैं और इनमें भक्ति भावना प्रमुख है।
निष्कर्ष:
भक्ति काल के साहित्यिक प्रवृत्तियाँ भारतीय साहित्य के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। इस काल के कवियों ने विभिन्न काव्य रूपों में अपने भावों और विचारों को व्यक्त किया। चाहे वह वारकाव्य हो, प्रबंधात्मक चार्तकाव्य हो, या अकबर दरबार का काव्य, सभी ने अपने-अपने तरीके से साहित्य को समृद्ध किया।
अभ्यास- प्रश्न
रातकालान काव्य का प्रमुख प्रवात्तयों का वववेचना काजए।
इस इकाई के अध्ययन के पश्चात् विद्यार्थी योग्य होंगे:
- भक्तिकाल के साहित्यिक प्रवत्तियों को समझने में।
- वारकाव्य एवं प्रबंधात्मक चारणकाव्य को समझने में।
- अकबर के दरबार के काव्य और रीतिकाव्य को जानने में।
प्रस्तावना:
भक्तिकाल की साहित्यिक प्रवत्तियाँ साहित्य इतिहास के अन्य कालों से अलग हैं। इन प्रवत्तियों का एक विशेष महत्त्व है। भक्तिकाल में निर्गुण-सगुण की प्रमुख प्रवत्तियों के अतिरिक्त कुछ गौण काव्य-प्रवत्तियाँ भी लक्षित होती हैं, जिनका उल्लेख साहित्य के इतिहास में आवश्यक है। ये हैं: वारकाव्य, प्रबंधात्मक, चारणकाव्य, नाटककाव्य, अकबर के दरबार का काव्य और रीतिकाव्य।
प्रमुख काव्य प्रवत्तियाँ:
भक्तिकाल में निर्गुण-सगुण की प्रमुख प्रवत्तियों के अलावा कुछ गौण काव्य-प्रवत्तियाँ भी थीं, जिनका उल्लेख साहित्य के इतिहास में आवश्यक है। ये हैं: वारकाव्य, प्रबंधात्मक, चारणकाव्य, नाटककाव्य, अकबर के दरबार का काव्य और रीतिकाव्य। धार्मिक काव्य की प्रमुखता के कारण भक्तिकाल में वारकाव्य-धारा अपेक्षाकृत कमजोर हो गई, लेकिन फिर भी उसका निरंतरता बनी रही। रामचरितमानस, रामचंद्रिका जैसी रचनाओं में वार रस का प्रसंगवश समावेश हुआ है। इस काल में वारकाव्य का रचना प्राय: राजाश्रय में होती थी। इन काव्यों में प्रमुख रूप से आश्रयदाताओं की यशोगाथा, युद्ध की सज्जा, अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन, दान, और शौर्य का वर्णन किया गया है।
इस काल के प्रमुख वारकाव्य रचयिता थे:
1.
श्राधर: उन्होंने 1400 ई. के लगभग 'रणमल्ल' छंद की रचना की थी। यह काव्य ओजपूर्ण भाषा में रचित है और इसमें वार रस का सुंदर प्रकट होता है।
2.
नल्हासह: उन्होंने 'विजयपाल रासो' की रचना की, जिसमें राजा विजयपाल और पग राजा के युद्ध का वर्णन है।
3.
राउ जैतसा: 'राउ जैतसा रासो' में बीकानेर-नरेश राव जैतसा और सम्राट हुमायूँ के भाई कामरान के युद्ध का वर्णन है।
4.
दुरसाजा आढ़ा: उन्होंने महाराणा प्रताप का यशोगान किया और उनकी कृति 'धन्यछत्रावली' प्रसिद्ध है।
5.
दयाराम (दयाल कवि): उन्होंने 'राणा रासो' नामक ग्रंथ की रचना की, जिसमें सिसोदिया वंश के प्रमुख राजाओं के युद्धों का वर्णन है।
6.
कुभकर्ण: उन्होंने 'रतन रासो' की रचना की, जिसमें रतलाम के महाराज रतनसिंह का वर्णन है।
7.
न्यामत खाँ जान: उन्होंने 'ख्याम खाँ रासो' की रचना की, जिसमें ख्याम खाँ चौहान और उनके वंशजों के युद्धों का वर्णन है।
वारकाव्य से तात्पर्य:
वारकाव्य वह काव्य है जिसमें युद्ध की गाथा और शौर्य का वर्णन होता है। भक्तिकाल में भी इस प्रकार के काव्यों का रचना होती रही, जो प्रमुख रूप से राजाश्रय में लिखे गए।
चारणकाव्य की प्रबंधात्मकता:
सधारु अग्रवाल, शालभट्ट सूर, गौतमरासकार, जाखू माणयार, देवप्रभ, और पद्मनाभ ने भक्तिकाल में चारणकाव्य का रचना किया। इनमें 'प्रद्युम्नचरित' (1354), 'पंचपांडवचरितरास' और 'गौतमरास' जैसे प्रबंधकाव्य शामिल हैं। ये काव्य या तो जैन-काव्य परंपरा में आधारित थे या पौराणिक संदर्भों पर। उदाहरण के लिए, प्रद्युम्नचरित में प्रद्युम्न की कथा का वर्णन किया गया है, जो जैन-कथा-ग्रंथों की श्रेणी में आता है।
निष्कर्ष:
भक्तिकाल में धार्मिक काव्यों के साथ-साथ वारकाव्य और चारणकाव्य का भी महत्वपूर्ण स्थान था। ये काव्य राजाश्रय में लिखे गए और इनमें युद्ध, शौर्य, और राजा की यशोगाथा का वर्णन किया गया। इनके अध्ययन से हमें उस समय की साहित्यिक प्रवत्तियों को समझने में सहायता मिलती है।
लक्षण ग्रथों का परंपरा एवं दरबारी संस्कृति पर संक्षिप्त टिप्पणी ।लाखए।
लक्षण ग्रंथों की परंपरा एवं दरबारी संस्कृति पर संक्षिप्त टिप्पणी:
लक्षण ग्रंथों की परंपरा:
लक्षण ग्रंथ (लक्षण शास्त्र या अलंकार शास्त्र) हिंदी साहित्य में काव्यशास्त्र का वह भाग है, जिसमें काव्य के विभिन्न अंगों, जैसे अलंकार, रस, छंद, गुण, दोष, आदि की परिभाषा, भेद और उदाहरण प्रस्तुत किए जाते हैं। ये ग्रंथ मुख्यतः साहित्यिक सिद्धांतों और काव्य-लक्षणों की विवेचना करते हैं। लक्षण ग्रंथों की परंपरा संस्कृत साहित्य में बहुत प्राचीन है, जिसे हिंदी साहित्य में भी अपनाया गया।
- आरंभिक काल: आरंभिक काल में संस्कृत के विद्वानों ने अलंकारशास्त्र की परंपरा स्थापित की। भरतमुनि का 'नाट्यशास्त्र' और आचार्य भामह का 'काव्यालंकार' इस परंपरा के प्रमुख ग्रंथ हैं।
- मध्यकाल: हिंदी साहित्य के भक्तिकाल और रीतिकाल में लक्षण ग्रंथों की रचना में विशेष वृद्धि हुई। आचार्य केशवदास ने 'रसिकप्रिया' और 'कविप्रिया' जैसे ग्रंथों की रचना की, जिसमें उन्होंने काव्य के लक्षणों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया।
- रीतिकाल: रीतिकाल में लक्षण ग्रंथों का विशेष महत्त्व रहा। इसमें कवियों ने अपने आश्रयदाताओं के मनोरंजन और शिक्षा के लिए लक्षण ग्रंथों की रचना की। इस समय के प्रमुख लक्षण ग्रंथकारों में आचार्य भिखारीदास, आचार्य भगवतीचरण और आचार्य रामचंद्र शुक्ल का नाम प्रमुख है।
लक्षण ग्रंथों की परंपरा ने हिंदी साहित्य में काव्यशास्त्र के सिद्धांतों को स्थापित किया और कवियों को काव्य रचना में दिशा प्रदान की।
दरबारी संस्कृति:
दरबारी संस्कृति भारतीय इतिहास का महत्वपूर्ण भाग रही है, जिसमें शासक और उनके दरबारियों के बीच की परंपराएँ, आदान-प्रदान, और साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियाँ शामिल होती थीं।
- मध्यकालीन दरबार: मध्यकाल में विभिन्न राजाओं और नवाबों के दरबारों में साहित्य, कला, संगीत, और नृत्य का विकास हुआ। शासक अपने दरबार में कवियों, संगीतकारों, चित्रकारों, और विद्वानों को प्रश्रय देते थे। इन दरबारों में धार्मिक और रीतिबद्ध काव्य का रचना होती थी, जो शासक की प्रशंसा और उनके विजयगाथा पर आधारित होती थी।
- अकबर के दरबार: मुगल सम्राट अकबर का दरबार इस संस्कृति का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जहाँ तानसेन जैसे महान संगीतकार और बीरबल जैसे विद्वान उपस्थित थे। यहाँ साहित्य और कला को संरक्षण मिला और फारसी भाषा का भी प्रभाव रहा।
- रीतिकाल: रीतिकाल में दरबारी संस्कृति का साहित्यिक पक्ष और भी महत्वपूर्ण हो गया। इस समय कवियों ने रास, रीति, और शृंगार के काव्य की रचना की, जो राजदरबारों में खूब सराही जाती थी।
दरबारी संस्कृति ने हिंदी साहित्य में दरबारी रस, शृंगारिक काव्य, और नीतिकाव्य की परंपरा को बढ़ावा दिया। इन दरबारों में रचित साहित्य ने उस समय की सामाजिक और सांस्कृतिक धारा को भी प्रभावित किया।
प्रमुख लक्षण ग्रथ एवं उनके रचनाकारों का उल्लेख करे।
प्रमुख लक्षण ग्रंथों एवं उनके रचनाकारों का हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान है। यहाँ कुछ प्रमुख लक्षण ग्रंथों और उनके रचनाकारों का उल्लेख किया जा रहा है:
1.
काव्यालंकार
o रचनाकार: आचार्य भामह
o विवरण: यह संस्कृत का एक प्रमुख अलंकार शास्त्र ग्रंथ है जिसमें काव्य के विभिन्न अलंकारों और उनके भेदों का वर्णन किया गया है। भामह ने इस ग्रंथ में काव्य के सौंदर्य और उसकी संरचना पर विशेष ध्यान दिया है।
2.
साहित्यदर्पण
o रचनाकार: आचार्य विश्वनाथ
o विवरण: यह संस्कृत का प्रसिद्ध काव्यशास्त्र ग्रंथ है, जिसमें काव्य के रस, अलंकार, गुण, दोष आदि का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। विश्वनाथ ने इसमें काव्य के लक्षणों को गहराई से समझाने का प्रयास किया है।
3.
काव्यप्रकाश
o रचनाकार: आचार्य मम्मट
o विवरण: मम्मट का 'काव्यप्रकाश' संस्कृत साहित्य का महत्वपूर्ण काव्यशास्त्र ग्रंथ है। इस ग्रंथ में काव्य के रस, अलंकार, गुण, दोष आदि का विस्तृत विवेचन किया गया है। यह ग्रंथ हिंदी साहित्य के लक्षण ग्रंथों पर भी प्रभावी रहा है।
4.
रसिकप्रिया
o रचनाकार: आचार्य केशवदास
o विवरण: हिंदी साहित्य के रीतिकाल के प्रमुख कवि केशवदास ने 'रसिकप्रिया' की रचना की। इस ग्रंथ में नायिका-भेद, रस, अलंकार, और रीति पर विस्तार से चर्चा की गई है। यह लक्षण ग्रंथ हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण माना जाता है।
5.
कविप्रिया
o रचनाकार: आचार्य केशवदास
o विवरण: केशवदास की यह दूसरी महत्वपूर्ण कृति है, जिसमें कवियों के लिए काव्य रचना के नियमों और विधियों का वर्णन किया गया है। इसमें अलंकार, रस, और छंद के भेद-प्रभेदों का भी विश्लेषण किया गया है।
6.
अलंकारमणिहारा
o रचनाकार: आचार्य भिखारीदास
o विवरण: यह लक्षण ग्रंथ हिंदी साहित्य के रीतिकाल का एक महत्वपूर्ण काव्यशास्त्र ग्रंथ है। भिखारीदास ने इसमें विभिन्न अलंकारों और काव्य के अन्य तत्त्वों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है।
7.
शृंगारशतक
o रचनाकार: भट्टमंगल
o विवरण: यह संस्कृत का एक महत्वपूर्ण लक्षण ग्रंथ है जिसमें शृंगार रस के सौंदर्य और उसकी विभूतियों का वर्णन किया गया है।
8.
काव्यनिरण्य
o रचनाकार: आचार्य हरिश्चंद्र
o विवरण: हिंदी साहित्य के आधुनिक काल में हरिश्चंद्र ने 'काव्यनिरण्य' की रचना की। इस ग्रंथ में काव्य के सिद्धांतों और लक्षणों का सरल और प्रभावी भाषा में विवेचन किया गया है।
ये लक्षण ग्रंथ काव्यशास्त्र के विकास में मील के पत्थर साबित हुए हैं और इनकी शिक्षाओं का प्रभाव हिंदी साहित्य की काव्य परंपरा पर गहराई से पड़ा है।