DHIN416 : प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य
इकाई-1:
कबीरदास का काव्यगत विशेषताएँ
प्रस्तावना
कबीरदास का जन्म सन् 1598 में काशी (वर्तमान वाराणसी) में हुआ। उनके बारे में मान्यता है कि उन्हें एक ब्राह्मणी ने जन्म दिया, लेकिन समाज से छिपाने के लिए उन्हें लहरतारा तालाब के किनारे छोड़ दिया गया था। नीरू और नीमा नामक मुस्लिम दंपति ने उन्हें गोद लिया और उनका पालन-पोषण किया। कबीर ने रामानंद से निर्गुण भक्ति की दीक्षा ली और उनका विश्वास था कि केवल सच्चे प्रेम और ज्ञान के माध्यम से ईश्वर की प्राप्ति संभव है। कबीर की रचनाएँ "कबीर ग्रंथावली" में संकलित हैं, जिनमें 'वीजक', 'रमैनी', और 'सबद' शामिल हैं। उनकी वाणी को सिख धर्म के गुरु ग्रंथ साहिब में भी स्थान मिला है।
कबीर की काव्यगत विशेषताएँ
1.1.1 वर्ण्य-विषय
कबीर के काव्य का वर्ण्य-विषय व्यापक और विविध है। वे सामाजिक और धार्मिक स्थितियों, रहस्यात्मक अनुभूतियों, और उपदेशपरक विषयों को छूते हैं। उनके काव्य में समाज में व्याप्त जातिवाद, कुरीतियों, और बाहरी आडंबरों की आलोचना की जाती है। कबीर के वर्ण्य-विषय को तीन प्रमुख श्रेणियों में बांटा जा सकता है:
1.
सामाजिक-धार्मिक स्थितियाँ: इनमें जातिवाद, साम्प्रदायिकता, और बाहरी आडंबरों की आलोचना शामिल है।
2.
रहस्यपरक अनुभूतियाँ: ब्रह्म, माया, भक्ति, और दर्शन से संबंधित कविताएँ।
3.
उपदेशपरक विषय: गुरु की महिमा, आत्मनिग्रह, और जीवन की क्षणभंगुरता पर विचार।
कबीर की रचनाएँ स्वाभाविक सत्यता और सहजता से भरी हुई हैं, जैसे कि परशुराम चतुर्वेदी ने कबीर साहित्य के बारे में कहा, "कबीर-साहित्य उन रंगबिरंगे पुष्पों में नहीं जो सजाए गए उद्यानों में उगाए जाते हैं। यह तो एक वन्य कुसुम है जो अपने स्थल पर उगता है।"
1.1.2 रस-योजना
काव्य में रस की प्रमुखता कबीर के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। उनका प्रिय रस 'शांत' (निर्वेद) है, जो उनके भक्तिपरक पदों और साखियों में प्रमुख रूप से मिलता है। कबीर ने जीवन की क्षणभंगुरता, कुरूप यथार्थ, और अकारण भय को चित्रित करने के लिए विविध युक्तियाँ अपनाई हैं।
मुख्य रस:
1.
शांत रस: कबीर के पद और साखियाँ इस रस से युक्त हैं, जैसे:
o "चूठे सुख को सुख कहैं, मानत हैं मन-मोद।"
o "नर नारी सब नरक हैं, जब लग देह सकाम।"
2.
श्रृंगार रस: दाम्पत्य रूपकों के माध्यम से आत्मा और परमात्मा का चित्रण।
o संयोग: "दुलहनिं गावहु मंगलाचार।"
o वियोग: "यह तन जालौं मसि करूँ लिखौं राम का नाउं।"
3.
अद्भुत रस: असामान्य घटनाओं का चित्रण।
o "एक अचंभा देखा रे भाई, ठाड़ा सिंह चरावै गाई।"
4.
हास्य रस: सामाजिक और धार्मिक विषयों पर व्यंग्य।
o "वेद पुरान पढ़त अस पांडे, खर चंदन जैसे भारा।"
1.1.3 भावानुभूति
कबीर का काव्य सहज और स्वाभाविक भावनाओं से भरा हुआ है। उन्होंने अपनी अनुभूतियों को बिना किसी अलंकार शास्त्र के ज्ञान के व्यक्त किया। उनकी काव्य भाषा में गहन सत्यता है, और उनकी भक्ति पदों में यह सहजता स्पष्ट रूप से झलकती है। डॉ. सतनाम सिंह शर्मा के अनुसार, कबीर ने गहन सत्यों को उनके रूप में प्रकट किया और कोई अतिरिक्त अलंकारिक ज्ञान की आवश्यकता महसूस नहीं की।
1.1.4 भाषा
कबीर की भाषा 'पूर्वी' कहलाती है, जिसमें बनारस, मिर्जापुर, और गोरखपुर की शब्दावली प्रमुख है। इसके अलावा, इसमें ब्रज, अवधी, पंजाबी, और अरबी-फारसी शब्द भी शामिल हैं। कबीर की भाषा को 'सधुक्कड़ी', 'पंचमेल खिचड़ी', और 'गँवारू' कहा गया है। उनकी भाषा सरल और प्रभावशाली है, जिसमें भावनाओं की सटीक अभिव्यक्ति होती है। डॉ. पारसनाथ तिवारी के अनुसार, कबीर की भाषा में शब्द-शक्ति और भाव-शक्ति अत्यधिक मजबूत है।
1.1.5 छंद-अलंकार
कबीर ने मुख्यतः सधुक्कड़ी छंदों का प्रयोग किया है, जिनमें प्रमुख हैं - सबद, साखी, दोहा, और रमैनी। कबीर ने छंदों में नियमों की अवहेलना की और अपने भावों को स्वतंत्रता से व्यक्त किया। उनके छंद स्वच्छंद हैं और मात्राओं के बंधन से स्वतंत्र हैं। कबीर के प्रिय अलंकार रूपक, उपमा, और प्रतीप हैं, जिनका प्रयोग उन्होंने अपने काव्य में मौलिकता के साथ किया।
इस प्रकार, कबीरदास का काव्य समाज और धर्म की जटिलताओं को सरल और प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करता है। उनकी भाषा की सहजता और काव्य की विविध रस-योजना उनके काव्य को विशिष्ट बनाती है।
अभ्यास-प्रश्न
कबीरदास की काव्यगत विशेषताएँ पर प्रकाश डालिए।
कबीरदास की काव्यगत विशेषताएँ उनकी रचनाओं के अनूठे और प्रभावशाली स्वरूप को दर्शाती हैं। उनकी काव्य-शैली और विषय-वस्तु को समझने से हमें उनके काव्य की गहराई और विवेक का पता चलता है। यहाँ उनकी काव्यगत विशेषताओं का विस्तृत और बिंदुवार वर्णन प्रस्तुत है:
1. वर्ण्य-विषय (Subject Matter)
कबीरदास के काव्य का वर्ण्य-विषय उनकी जीवन के विभिन्न पहलुओं को दर्शाता है, जो कि उनकी जीवनानुभूति और दृष्टिकोण से प्रभावित हैं। उनके काव्य को निम्नलिखित तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है:
- सामाजिक-धार्मिक स्थितियाँ: इन कविताओं में साम्प्रदायिकता, वर्ण-भेद, और कुरीतियों की आलोचना की जाती है। कबीर ने समाज में फैली हुई बुराइयों और बाह्याचारों के खिलाफ आवाज उठाई है।
- रहस्यपरक अनुभूतियाँ: इस वर्ग में ब्रह्म, माया, भक्ति, और दर्शन से संबंधित काव्यांश आते हैं, जिसमें जीवन के गहन रहस्यों और आत्मा के संबंध की चर्चा की जाती है।
- उपदेशपरक विषय: इसमें गुरु-महिमा, आचरण, आत्मनिग्रह, और जीवन की क्षणभंगुरता के बारे में उपदेश दिया जाता है। इन कविताओं में कबीर जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
2. रस-योजना (Rasa)
काव्य की आत्मा रस है, और कबीरदास ने अपनी काव्य-रचनाओं में विभिन्न रसों का प्रयोग किया है:
- शांत रस (निर्वेद): कबीर का प्रिय रस शांत है, जो उनके भक्तिपरक पदों और साखियों में प्रमुख रूप से मौजूद है। इस रस के माध्यम से उन्होंने जीवन की क्षणभंगुरता और कुरूप यथार्थ का चित्रण किया।
- श्रृंगार रस: कबीर ने आत्मा और परमात्मा के संबंध का चित्रण दाम्पत्य रूपकों के माध्यम से किया है। इसमें संयोग और वियोग की स्थितियाँ दर्शाई गई हैं।
- अद्भुत रस: कबीर की रचनाओं में अद्भुत रस भी दिखाई देता है, जिसमें उन्होंने विविध उलटबांसियों (विपर्यय) का प्रयोग किया है।
- हास्य रस: कबीर की काव्य-रचनाओं में व्यंग्य और हास्य रस भी देखने को मिलता है, जिसमें समाज और धर्म की बुराइयों की आलोचना की गई है।
3. भावानुभूति (Emotional
Expression)
कबीर की काव्य-शैली सहज और स्वाभाविक है। उन्होंने अपने अनुभवों को सीधे और स्पष्ट रूप में प्रस्तुत किया है, बिना किसी अलंकार शास्त्र या काव्य-रीति के पालन के। उनका काव्य सहज भावनात्मकता से ओत-प्रोत होता है, और यह उनकी भक्ति-पदों में विशेष रूप से स्पष्ट होता है।
4. भाषा (Language)
कबीर की भाषा अनगढ़, अपरिष्कृत और सादी है। उन्होंने लोकभाषा का प्रयोग किया है, जिसमें ब्रज, अवधी, पंजाबी, और अरबी-फारसी शब्द भी शामिल हैं। उनकी भाषा में व्याकरण दोष हो सकते हैं, लेकिन यह जीवन्त और भावानुकूल है। कबीर ने भाषा को अपनी भावनाओं और विचारों को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने के लिए एक साधन के रूप में इस्तेमाल किया है।
5. छन्द और अलंकार (Meter and Figures of Speech)
कबीर ने अपने काव्य में प्रायः सधुक्कड़ी छन्दों का प्रयोग किया है, जैसे कि सबद, साखी, और दोहा। उन्होंने छन्द-स्वच्छंदता को अपनाया और पिंगलशास्त्र के नियमों से स्वतंत्रता बरती। उनके प्रिय अलंकार रूपक, उपमा, और प्रतीप हैं, जिनका प्रयोग उन्होंने मौलिकता के साथ किया है।
कबीरदास की काव्यगत विशेषताएँ उनकी रचनाओं को एक अद्वितीय और प्रभावशाली स्थान प्रदान करती हैं। उनकी सहज भाषा, भावनात्मक अभिव्यक्ति, और गहन विषय-वस्तु ने उन्हें भारतीय काव्य-परंपरा में एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाया है।
मेरा मुझ में कछु नहीं, जो कछु है सो तेरा।
तेरा तुझको सौंपता, क्या लागे मेरा।
उपरोक्त पंक्तियों का काव्य-सौंदर्य लिखिए ।
कबीरदास की पंक्तियाँ—"मेरा मुझ में कछु नहीं, जो कछु है सो तेरा। तेरा तुझको सौंपता, क्या लागे मेरा।"—एक अत्यंत गहन और सरल भावनात्मक अभिव्यक्ति हैं। इन पंक्तियों का काव्य-सौंदर्य निम्नलिखित बिंदुओं में स्पष्ट किया जा सकता है:
1. विषयवस्तु की सरलता और गहराई
इन पंक्तियों में कबीर ने आत्म-समर्पण और आत्मज्ञान की बात की है। कवि खुद को अपनी पहचान और अस्तित्व से अज्ञात मानता है और सच्चे आत्मा की शुद्धता की ओर इंगित करता है। उनका कहना है कि जो कुछ भी है, वह सब परमात्मा का है; इस दृष्टिकोण से व्यक्तिगत 'मेरा' और 'तेरा' का भेद मिट जाता है। यह आत्म-परिभाषा का एक आदर्श उदाहरण है, जिसमें विषय की सरलता और गहराई दोनों शामिल हैं।
2. भावनात्मक अभिव्यक्ति
कबीर की ये पंक्तियाँ आत्मसमर्पण और भक्ति की भावना को स्पष्ट रूप से व्यक्त करती हैं। 'मेरा मुझ में कछु नहीं'—इस भावनात्मक अभिव्यक्ति में निस्वार्थता और समर्पण की भावना परिलक्षित होती है। कवि परमात्मा के प्रति अपने समर्पण को व्यक्त करते हुए अपने व्यक्तिगत अस्तित्व को बेमानी मानता है।
3. भाषा और शैली
कबीर की भाषा साधारण और बोधगम्य है, जो उन्हें आम जनमानस के करीब लाती है। 'जो कछु है सो तेरा'—इस सरल और स्पष्ट भाषा में गहरी धार्मिक और दार्शनिक विचारधारा छिपी हुई है। इस सादगी में ही उनकी काव्य की विशेषता है।
4. अलंकार
- उपमा
(Simile): कवि अपने अस्तित्व को 'मेरा' और 'तेरा' के माध्यम से तुलना करता है, जो एक उपमा का संकेत है। यहाँ 'मेरा' और 'तेरा' के बीच भेद को समाप्त कर दिया गया है, जिससे यह अलंकार और भी प्रभावशाली हो जाता है।
- प्रतीक
(Symbol): 'मेरा' और 'तेरा' प्रतीक के रूप में उपयोग किए गए हैं, जो व्यक्तिगत और दिव्य के बीच की सीमा को स्पष्ट करने का काम करते हैं।
5. सादगी और प्रभाव
कबीर की यह पंक्ति काव्य की सादगी में गहराई और प्रभाव को दर्शाती है। बहुत कम शब्दों में कबीर ने बड़े गहरे और उच्च आध्यात्मिक सत्य को व्यक्त किया है। इसका प्रभाव पाठक या श्रोता पर गहरा और स्थायी होता है।
6. आध्यात्मिकता
इन पंक्तियों में कबीर की आध्यात्मिकता प्रकट होती है। 'तेरा तुझको सौंपता' में आत्मा और परमात्मा के बीच की वास्तविकता को दिखाया गया है। यह भक्ति और विनम्रता का परिचायक है, जो व्यक्ति को परमात्मा के प्रति गहरी श्रद्धा और आत्मसमर्पण की ओर प्रवृत्त करता है।
निष्कर्ष
कबीर की पंक्तियाँ 'मेरा मुझ में कछु नहीं, जो कछु है सो तेरा। तेरा तुझको सौंपता, क्या लागे मेरा।' काव्य की साधारणता और गहराई का आदर्श उदाहरण हैं। उनकी काव्य-शैली की यह विशेषता उन्हें भारतीय भक्ति साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करती है।
इकाई2:
कबीर की भक्ति-भावना
प्रस्तावना
कबीरदास की भक्ति-भावना उनके जीवन और काव्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। उन्होंने सांसारिकता को एक बोझ के रूप में देखा और उसे केवल अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए सहा। कबीर ने अपने जीवन में शुद्ध वैराग्यवादी दृष्टिकोण को अपनाने की बजाय सांसारिकता से भागने का विकल्प नहीं चुना। उनके भक्ति-भावना का आधार परमात्मा के प्रति प्रेम था, और उन्होंने इसे अपनी कविता और जीवन में प्रकट किया। कबीर निर्गुण भक्ति में विश्वास करते थे, जिसका मतलब था कि वे एक निराकार और सर्वव्यापी ईश्वर के प्रति भक्ति रखते थे।
कबीर की भक्ति-भावना
1.
सांसारिकता और भक्ति
कबीर का जन्म लहरतारा के कमल-पुष्प पर नहीं हुआ, लेकिन उन्होंने अपनी जीवनशैली और विचारधारा से सिद्ध किया कि सांसारिक उत्तरदायित्वों के बावजूद सांसारिकता से अलग रहना संभव है। उन्होंने सांसारिक प्रेम, विशेषकर पुत्र प्रेम, की ओर से कोई विशेष आग्रह नहीं दिखाया। उनके अनुसार, सांसारिक प्रेम केवल एक दायित्व है, न कि वास्तविक प्रेम।
2.
कबीर की भक्ति का स्वरूप
कबीर की भक्ति का स्वरूप मुख्यतः निर्गुण भक्ति पर आधारित था। वे निराकार ब्रह्म की उपासना करते थे, जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का प्राणतत्व है लेकिन निर्गुण और निराकार है। उनका भक्ति दर्शन वह परमात्मा है जो हर वस्तु में व्याप्त है और कोई जाति या धर्म से संबंधित नहीं है। कबीर ने हिन्दू धर्म के बहुदेववाद और इस्लाम के एकेश्वरवाद दोनों की आलोचना की।
3.
प्रेम का माधुर्य
कबीर ने प्रेम को अत्यंत महत्व दिया है, लेकिन उनका प्रेम किसी व्यक्ति के प्रति नहीं, बल्कि परमात्मा के प्रति था। उनका प्रेम आत्मा की अज्ञानता और परमात्मा से मिलन की लालसा को दर्शाता है। कबीर की भक्ति में प्रेम का माधुर्य सूफी विचारधारा के प्रभाव में भी था, और इसका भावनात्मक स्वरूप श्रृंगार रस की प्रधानता को दिखाता है।
4.
नाम-स्मरण का महत्त्व
कबीर ने नाम-स्मरण को परमात्मा की प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन माना, लेकिन उन्होंने बाहरी आइम्बरों, जैसे माला फेरना, की आलोचना की। उनके अनुसार, नाम का स्मरण मन से होना चाहिए, न कि मुँह से। वे कहते हैं कि सच्चा स्मरण आत्मा का होना चाहिए।
5.
गुरु की महत्ता
कबीर की भक्ति में गुरु की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण थी। उन्होंने गुरु की सेवा को भक्ति का मुख्य मार्ग माना और गुरु की कृपा को अपनी भक्ति का आधार माना।
6.
मध्यम मार्ग
कबीर ने सांसारिकता को त्याग कर जंगल में निवास करने की बजाय मध्यम मार्ग की भक्ति को महत्व दिया। उन्होंने सरल भक्ति भाव और गुरु से ज्ञान प्राप्त करने को प्राथमिकता दी।
7.
जीव और ब्रह्म की एकता
कबीर के अनुसार, जीव और ब्रह्म एक ही हैं। उनका मानना था कि प्रत्येक जीव में परमात्मा ही विद्यमान है। वे कहते हैं कि जीवन में अहंकार का त्याग करके ही परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है।
8.
आत्म-समर्पण भाव
कबीर के भक्ति में आत्म-समर्पण और अहंकार का त्याग अत्यंत महत्वपूर्ण था। उन्होंने बताया कि परमात्मा की प्राप्ति के लिए आत्म-संर्पण और अहंकार का त्याग करना आवश्यक है।
9.
निर्मल भाव
कबीर ने भक्ति के लिए हृदय की निर्मलता को महत्त्वपूर्ण माना। उन्होंने जाति-पाँति और बाहरी आडंबरों की बजाय आंतरिक शुद्धता पर बल दिया।
निष्कर्ष
कबीर की भक्ति-भावना अत्यंत गहन और विवेचित है। उन्होंने भक्ति के माध्यम से एक ऐसा मार्ग प्रस्तुत किया जो सांसारिकता और आध्यात्मिकता के बीच का संतुलन बनाए रखता है। कबीर की भक्ति में प्रेम, नाम-स्मरण, गुरु की महत्ता, और आत्म-समर्पण जैसे तत्व महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। उनके विचार आज भी आध्यात्मिकता की दिशा में मार्गदर्शन प्रदान करते हैं।
अभ्यास-प्रश्न
कबीर की भक्ति के विभिन्न स्वरूपों को समझाइए।
कबीरदास की भक्ति के विभिन्न स्वरूप उनके काव्य और विचारधारा में स्पष्ट रूप से प्रकट होते हैं। उनकी भक्ति में गहराई और विशिष्टता है, जो उनकी निर्गुण भक्ति, प्रेम का माधुर्य, नाम-स्मरण, गुरु की महत्ता, और आत्म-समर्पण के स्वरूपों में देखी जा सकती है। यहाँ कबीर की भक्ति के विभिन्न स्वरूपों का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत है:
1. निर्गुण भक्ति
विवरण: कबीर की भक्ति का प्रमुख स्वरूप निर्गुण भक्ति है। निर्गुण भक्ति का तात्पर्य है कि भगवान के किसी भी आकार, विशेषता, या गुण का अस्तित्व नहीं होता। कबीर ने निर्गुण और निराकार ब्रह्म की उपासना की, जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का प्राणतत्व है, लेकिन किसी विशेष रूप, रंग या आकार में नहीं है।
उदाहरण: कबीर ने लिखा है:
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पाणीरी ही तैं हिम भया, हिम है गया बिलाइ।
जो कुछ था सोई भया, अब कुछ कहा न जाइ ॥
इस पंक्ति में कबीर ने यह स्पष्ट किया है कि ईश्वर निर्गुण है और इस सृष्टि का स्रोत भी है।
2. एक ही परमात्मा
विवरण: कबीर के अनुसार, परमात्मा एक ही है जो समस्त सृष्टि में व्याप्त है। वे किसी जाति, धर्म, या समुदाय के आधार पर ईश्वर के भिन्न अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते। उनका परमात्मा सभी जीवों में समान रूप से व्याप्त है और जाति-पाँति से परे है।
उदाहरण: कबीर ने लिखा:
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मुसलमान का एक खुदाई।
कबीर का स्वामी रह्या रमाई ॥
यहाँ कबीर ने इस्लाम के एकेश्वरवाद और हिन्दू धर्म के बहुदेववाद दोनों की आलोचना की और एक ही परमात्मा की उपासना पर जोर दिया।
3. प्रेम का माधुर्य
विवरण: कबीर की भक्ति में प्रेम का माधुर्य प्रमुख रूप से व्यक्त होता है। यह प्रेम परमात्मा के प्रति है और किसी व्यक्ति के प्रति नहीं। कबीर ने प्रेम को आत्मा की अज्ञानता और परमात्मा से मिलन की लालसा के रूप में दर्शाया है। उनका प्रेम भावनात्मक और श्रृंगार रस से भरा हुआ है, जो उनकी भक्ति के भाव को सजीव करता है।
उदाहरण: कबीर ने लिखा:
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बहुत दिनन की जोबती, बाट तुम्हारी राम।
जिव तरसे तुझ मिलन करूँ, मन नाहीं विश्वाम॥
यह पंक्ति कबीर के प्रेम के माधुर्य को दर्शाती है, जहाँ आत्मा परमात्मा के मिलन की प्रतीक्षा में व्याकुल है।
4. नाम-स्मरण
विवरण: कबीर ने नाम-स्मरण को परमात्मा की प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन माना। वे बाहरी आइम्बरों जैसे माला फेरना या जपना के विरोधी थे और मानते थे कि सच्चा नाम-स्मरण मन से होना चाहिए। उनका मानना था कि सच्चा स्मरण आत्मा का होना चाहिए और बाहरी साधनों की आवश्यकता नहीं है।
उदाहरण: कबीर ने कहा:
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माता तो कर मैं फिरै, जीभ फिरै मुख माहिं।
मनुवा तो दस दिसि फिरै, सो तो सुमिरन नाहिं ॥
इस पंक्ति में कबीर ने बताया कि मन का स्मरण सबसे महत्वपूर्ण है, न कि बाहरी जप और माला।
5. गुरु की महत्ता
विवरण: कबीर की भक्ति में गुरु की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण है। वे गुरु को ईश्वर से भी श्रेष्ठ मानते हैं और गुरु की सेवा को भक्ति का मुख्य मार्ग मानते हैं। कबीर ने गुरु की कृपा को अपनी भक्ति का आधार माना।
उदाहरण: कबीर ने कहा:
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गुरु सेवा ते भक्ति कमाई।
इस पंक्ति में कबीर ने गुरु की सेवा को भक्ति प्राप्त करने का महत्वपूर्ण साधन माना है।
6. मध्यम मार्ग
विवरण: कबीर ने ध्यान और तपस्या की बजाय मध्यम मार्ग की भक्ति को महत्व दिया। वे नहीं मानते थे कि सांसारिकता को त्यागकर या शरीर को कष्ट देकर ईश्वर की भक्ति की जा सकती है। कबीर ने सरल भक्ति और गुरु से ज्ञान प्राप्त करने को प्राथमिकता दी।
उदाहरण: कबीर का विचार था कि भक्ति एक सहज और सरल मार्ग होना चाहिए, जिसे हर व्यक्ति अपनाकर परमात्मा की प्राप्ति कर सकता है।
7. जीव और ब्रह्म की एकता
विवरण: कबीर ने जीव और ब्रह्म के एकत्व को स्वीकार किया। उनके अनुसार, जीव परमात्मा का एक अंग है और प्रत्येक जीव में परमात्मा ही विद्यमान है। उन्होंने जीव और ब्रह्म के अद्वैतवादी दृष्टिकोण को अपनाया।
उदाहरण: कबीर ने लिखा:
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घट-घर है अविनासी, सुनहूँ तकी तुम शेख।
यह पंक्ति जीव और ब्रह्म की एकता को स्पष्ट करती है।
8. आत्म-समर्पण भाव
विवरण: कबीर ने परमात्मा की प्राप्ति के लिए आत्म-समर्पण और अहंकार का त्याग अत्यंत महत्वपूर्ण माना। उन्होंने बताया कि परमात्मा की प्राप्ति के लिए अहंकार का त्याग और पूर्ण समर्पण आवश्यक है।
उदाहरण: कबीर ने लिखा:
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लाली मेरे लाल की, जित देखहूँ तित लाल।
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल ॥
यह पंक्ति आत्म-समर्पण और अहंकार के त्याग की भावना को दर्शाती है।
9. निर्मल भाव
विवरण: कबीर ने भक्ति के लिए हृदय की निर्मलता को प्राथमिकता दी। उन्होंने जाति-पाँति और बाहरी आडंबरों की बजाय आंतरिक शुद्धता पर बल दिया। कबीर ने भगवद्भक्ति के लिए जाति या समाज की विशेषता की आवश्यकता नहीं मानी।
उदाहरण: कबीर ने कहा:
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जाति पाँति पूछे नहीं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई।
इस पंक्ति में कबीर ने जाति-पाँति से परे भगवान की भक्ति की बात की है।
निष्कर्ष
कबीर की भक्ति के स्वरूप उनके जीवन और काव्य में गहराई और विविधता दर्शाते हैं। उनकी निर्गुण भक्ति, प्रेम का माधुर्य, नाम-स्मरण, गुरु की महत्ता, और आत्म-समर्पण के तत्व उनके भक्ति दर्शन की प्रमुख विशेषताएँ हैं। कबीर का भक्ति स्वरूप आज भी आध्यात्मिकता और सच्चे प्रेम की दिशा में मार्गदर्शन प्रदान करता है।
कबीर ने अपनी भक्ति में बाह्य आडम्बरों का विरोध किया है' क्या आप इस बात से सहमत हैं? स्पष्ट कीजिए।
कबीर ने अपनी भक्ति में बाह्य आडम्बरों का विरोध किया है और इस विचार को उन्होंने अपनी रचनाओं और शिक्षाओं में स्पष्ट रूप से व्यक्त किया है। कबीर की भक्ति का मूल तत्व आंतरिक पवित्रता और सत्यता था, न कि बाहरी धार्मिक कृत्यों और आडम्बरों पर आधारित। इस दृष्टिकोण को स्पष्ट करने के लिए निम्नलिखित बिंदुओं पर ध्यान दिया जा सकता है:
1. बाहरी आडम्बरों का विरोध
कबीर ने धार्मिक आडम्बरों और रीतियों का विरोध किया, जिन्हें वह भक्ति और सच्चे धार्मिक अनुभव के लिए बाधक मानते थे। उन्होंने देखा कि धार्मिक अनुष्ठान और बाहरी आडम्बर अक्सर आध्यात्मिकता के वास्तविक अनुभव को ढक देते हैं।
उदाहरण: कबीर ने कहा:
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माता तो कर मैं फिरै, जीभ फिरै मुख माहिं।
मनुवा तो दस दिसि फिरै, सो तो सुमिरन नाहिं ॥
इस पंक्ति में कबीर ने बाहरी रूप से ईश्वर का नाम जपने की आलोचना की है और इसे आंतरिक सच्चे स्मरण से परे मानते हैं। उनका कहना है कि बाहरी क्रियाएँ जैसे जपना और माला फेरना केवल दिखावा हैं, जबकि सच्चा स्मरण मन की गहराई से होना चाहिए।
2. आंतरिक अनुभव की महत्वता
कबीर के अनुसार, भक्ति का वास्तविक अनुभव आंतरिक शुद्धता और सच्चाई पर निर्भर करता है, न कि बाहरी धार्मिक अनुष्ठानों और कर्मकांडों पर। उन्होंने स्पष्ट किया कि भक्ति और ईश्वर की प्राप्ति के लिए व्यक्ति के हृदय की निर्मलता आवश्यक है।
उदाहरण: कबीर ने कहा:
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जाति पाँति पूछे नहीं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई।
यहाँ कबीर ने जाति और पाँति जैसे बाहरी सामाजिक आडम्बरों को भक्ति के लिए निराधार मानते हुए आंतरिक भक्ति को प्रमुख माना।
3. सच्ची भक्ति की अवधारणा
कबीर ने भक्ति को बाहरी आडम्बरों और धार्मिक कर्मकांडों से स्वतंत्र रखा। उनके अनुसार, सच्ची भक्ति वह है जो व्यक्ति की आत्मा को शुद्ध करती है और उसे परमात्मा के साथ एकता का अनुभव कराती है। बाहरी आडम्बर केवल सतही प्रतीक होते हैं जो आध्यात्मिक प्रगति में बाधा डालते हैं।
उदाहरण: कबीर ने लिखा:
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तूँ तूँ करता तूँ भया, मुझ मैं रही न हूँ।
बारी फेरिं बलि गई, जित देखौं तित तूँ।
इस पंक्ति में कबीर ने बाहरी कर्मकांडों की बजाय आत्मिक अनुभव और आंतरिक सत्यता पर बल दिया है।
4. गुरु की भूमिका और साधना
कबीर ने गुरु की महत्ता को स्वीकार किया, लेकिन उन्होंने गुरु की सेवा को भी बाहरी दिखावे से परे रखा। उनके अनुसार, गुरु की सेवा और भक्ति आंतरिक अनुभव और समर्पण से जुड़ी होनी चाहिए, न कि केवल बाहरी आडम्बरों से।
उदाहरण: कबीर ने कहा:
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गुरु सेवा ते भक्ति कमाई।
इस पंक्ति में कबीर ने गुरु की सेवा को भक्ति का वास्तविक साधन माना, जो बाहरी दिखावे से परे है।
निष्कर्ष
कबीर ने अपनी भक्ति में बाहरी आडम्बरों का विरोध किया है और इसे सच्ची भक्ति के मार्ग में बाधा मानते हैं। उन्होंने आंतरिक शुद्धता, सच्चे स्मरण, और गुरु की सेवा को भक्ति के वास्तविक रूप के रूप में प्रस्तुत किया। उनकी शिक्षाएँ आज भी धार्मिक और आध्यात्मिक जीवन में आंतरिक सत्यता और सच्चाई की ओर मार्गदर्शन करती हैं।
इकाई3:
कबीर का भाषा-शैला
प्रस्तावना
कबीरदास की रचनाओं में उन्होंने कई भाषाओं और बोलियों का प्रयोग किया है, जैसे पंजाबी, राजस्थानी, बघेली, ब्रजभाषा, खड़ीबोली, भोजपुरी, अरबी, फारसी, सिंधी, गुजराती, बंगला, और मैथिली। इतनी भाषाओं के प्रयोग के कारण कबीर की भाषा का अध्ययन एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। समीक्षकों ने इस समस्या को हल करने के लिए कबीर की भाषा को 'सधुक्कड़ी अन्नकूट' नाम दिया है। इसे साधुओं की भाषा माना गया है, जिसमें लिंग, वचन, और कारक का कोई बंधन नहीं होता। यह भाषा विभिन्न बोलियों के शब्द और पद-विन्यास को मिश्रित रूप में प्रस्तुत करती है, जिससे भाषा में विविधता देखने को मिलती है। कबीर की भाषा की यह विशेषता उनके विविध भाषा-क्षेत्रों में भ्रमण करने के कारण विकसित हुई।
2.1 कबीर की भाषा-शैली
कबीर की भाषा की पहचान 'सधुक्कड़ी' के अतिरिक्त किसी अन्य नाम से करना कठिन है। कबीर का मुख्य उद्देश्य कविता करना नहीं था; वे अपनी आत्मा की प्रेरणा के अनुसार बोलते थे। उनकी रचनाओं में विभिन्न भाषाओं का सम्मिश्रण देखा जा सकता है, जैसे अवधी, भोजपुरी, ब्रजभाषा, खड़ीबोली, पंजाबी, और राजस्थानी। इन भाषाओं के उदाहरण उनके काव्य में प्रस्तुत किए गए हैं, जैसे:
- अवधी: “जब तूं तस तोष्टि कोई न जान |”
- भोजपुरी: “नाँ हम जीवत मुख न ले माँही”
- ब्रजभाषा: “अपनापौ आपुन ही बिसरतोउ”
- खड़ीबोली: “करण किया करम का नाम”
- पंजाबी: “लूण बिलग्गा पाँणियां पांणि लूँण बिलर्ग”
- राजस्थानी: “क्या जाणों उस पीव कूँ”
विभिन्न आलोचकों ने कबीर की भाषा का मूल्यांकन विभिन्न दृष्टिकोणों से किया है। कुछ ने इसे ब्रज, कुछ ने अवधी, और कुछ ने पंजाबी बताया है। उदाहरणस्वरूप:
- डॉ. श्यामसुंदरदास:
"कबीर ग्रंथावली की भाषा पंचमेल खिचड़ी है।"
- डॉ. बाबूराम सक्सेना:
"कबीर अवधी के प्रथम संत कवि हैं।"
- डॉ. सिद्धनाथ तिवारी:
"कबीर भाषा का सरल पथ छोड़कर स्वड़े मार्ग पर यात्रा कर रहे हैं।"
- डॉ. रामकुमार वर्मा: "कबीर ग्रंथावली की भाषा में पंजाबवीपन अधिक है।"